संजीव भगत कुमाऊँ के उन गिने-चुने लोगों में हैं जिन्होंने मामूली पूंजी से सफल उद्यम खड़ा कर एक मिसाल कायम की है. एक हिमालयी राज्य के युवाओं के लिए संजीव की कंपनी ‘नैनीताल फूड प्रोडक्टस’ उम्मीद की किरण है. 50,000 की पूंजी और सरकारी कर्ज लेकर शुरू किया गया यह छोटा उद्यम आज एक करोड़ के टर्नओवर वाली कंपनी में बदल चुका है. नैनीताल जिले के भवाली के निकट फरसौली गाँव में संचालित नैनीताल फ़ूड प्रोडक्ट का ब्रांड ‘फ्रूटेज’ आज देश-विदेश में एक लोकप्रिय ब्रांड है. यहाँ आने वाले पर्यटक और स्थानीय लोग आज फ्रूटेज के 45 ऑर्गेनिक उत्पादों को साथ ले जाना नहीं भूलते. ‘काफल ट्री’ के पाठकों लिए सुधीर कुमार और गिरीश लोहनी ने संजीव भगत से एक लम्बी बातचीत की. प्रस्तुत है उस बातचीत के खास हिस्से.
अपने बचपन और पढ़ाई-लिखाई के बारे में बताएं
मेरी शुरूआती पढ़ाई-लिखाई सैनिक स्कूल नैनीताल में हुई. फरसौली, भवाली में मेरा पैतृक गाँव है, लेकिन मेरे पिता वन विभाग में नौकरी करते थे इसलिए शिक्षा-दीक्षा नैनीताल में ही हुई. सैनिक स्कूल से 12वीं करने के बाद मैंने डीएसबी नैनीताल से अपनी ग्रेजुएशन (प्राइवेट) पास की.
ग्रेजुएशन के दौरान ही मैंने कई मीडिया संस्थानों में भी काम किया. 6 साल तक मैंने उत्तर उजाला, दैनिक जागरण और राष्ट्रीय सहारा में काम किया, मीडिया में काम करने के दौरान ही मैंने अपनी फैक्ट्री स्थापित करने का आधार भी तैयार किया.
1989 में मैंने अपनी फैक्ट्री के लिए बिल्डिंग बनाने की नींव रख दी. 1993 में फैक्ट्री ने उत्पादन शुरू कर दिया. इस समय मेरी उम्र मात्र 25 साल थी. इस काम को करने के लिए मेरे पास मात्र 50,000 की ही पूंजी थी. तब उत्तराखण्ड उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था. मैंने उत्तर प्रदेश खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड से 2,60,000 का लोन लिया. इसके लिए मुझे लगातार 4 सालों तक लखनऊ में धक्के खाने पड़े.
इस तरह के उद्यम को शुरू करने का विचार कैसे आया?
ये बुनियादी तौर पर मेरे पिताजी का विचार था. मेरे पिता ने हमेशा मुझे इन्तर्प्रिन्योर बनने के लिए प्रेरित किया, सामान्यतः अन्य अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी नौकरी के लिए तैयार करते हैं. जब में दसवीं में पढता था तभी उन्होंने उद्यमी बनने के लिए तरह-तरह की जानकारी इकट्ठा करना और तमाम विभागों से इस विषय में चिट्ठी-पत्री करना शुरू कर दिया था. अपनी इंटर की पढाई करने के बाद मैंने भी अपनी कोशिशें शुरू कर दी थीं और 23 साल की उम्र में बाकायदा काम शुरू कर दिया था.
काम के शुरूआती अनुभव कैसे रहे?
1993 में जब हमने प्रोडक्शन शुरू किया तो हमने तीसरे साल से व्यापार में मुनाफा आने का अनुमान लगाया था. सो पहले और दूसरे साल उद्यम घाटे में ही रहा, काफी पैसा बाजार में फंस गया. बहुत ज्यादा पूंजी भी नहीं थी तो किसी तरह पिताजी के फंड व अन्य छोटी बचतों से प्रोडक्शन चालू रखा. तीसरे साल में हमारे पहले साल का पैसा वापस आने लगा. कुल मिलाकर एक रोटेशन बनने लगा. इस साल थोड़ा मुनाफा भी हुआ. तीसरे साल की स्थिति देखकर हमारा आत्मविश्वास बढ़ा, कि हाँ हम कर सकते हैं.
1996-97 तक हम लोग थोड़ा बेहतर स्थिति में आने लगे और 1999 में हमने भवाली भीमताल रोड में अपने उत्पादों का शोरूम शुरू कर दिया. इससे हुआ यह कि हमारा ज्यादातर रेवेन्यु इसी शोरूम से आने लगा.
1993 से लेकर 1999 में शोरूम की स्थापना तक आपकी बिक्री का मॉडल क्या था?
शोरूम की शुरुआत करने से पहले हम खुद बाजार में अपने उत्पादों की मार्केटिंग करते थे और उनकी बिक्री करते थे. उस समय भी माल तो ठीक-ठाक बिक जाता था, लेकिन पैसा बाजार में फंसा रह जाता था. इसके अलावा बाजार में कई जगहों पर उत्पाद पड़े-पड़े ख़राब हो जाया करता था. शोरूम की शुरुआती सफलता से में इस नतीजे पर पहुंचा कि बाजार में माल बेचने से ज्यादा अच्छा है खुद के शोरूम खोलकर उत्पादों को बाजार में उतरना.
इस समय आपके कितने शोरूम हैं?
भीमताल के बाद हमने नैनीताल, आम पड़ाव में शोरूम खोले और अब हल्द्वानी में भी. सभी के नतीजे बहुत अच्छे रहे हैं. मार्केटिंग की इस तकनीक में हम उत्पाद की मांग के हिसाब से उसे एक जगह से दूसरी जगह रोटेट कर सकते हैं, इससे माल ख़राब होने कि गुंजाइश कम हो जाती है. इससे उपभोक्ता को भी ज्यादा ताजा उत्पाद हर वक़्त मिलता रहता है.
खाद्य प्रसंस्करण के इस उद्यम को शुरू करने से पहले आपने किस तरह की ट्रेनिंग ली?
जब इस काम में कूदा तो मैं इतिहास का छात्र था, मैंने एमए इतिहास विषय से ही किया है. फूड प्रोसेसिंग का काम शुरू करने के लिए मैंने कहीं से भी किसी तरह की ट्रेनिंग नहीं ली. इस तरह के उद्यमों में जाकर, घूम-घूमकर, एक्सपर्ट्स से बात करके. तिनका-तिनका जानकारी जुटाकर खुद ही सीखा. आज भी सीखने की यह प्रक्रिया चल ही रही है. आज हम लोग जूस, जैम, अचार, चटनी और शरबत जैसे 45 प्रोडक्ट बनाते हैं. एक साथ इतने प्रोडक्ट एक ही जगह पर सीखे भी नहीं जा सकते. इसलिए कई अलग-अलग जगहों पर जाकर सीखा. खुद सीखने के बाद अपने अनस्किल्ड वर्कर्स को भी सिखाया.
1993 में आपने अपने उद्यम की शुरुआत कितने उत्पादों से की?
शुरुआत में हमारे पास 5-6 ही प्रोडक्ट थे. सॉस, अचार वगैरह से शुरू किया था, हमने सोचा था कि टूरिस्ट स्पॉट्स हैं तो हम होटल, रेस्तरां वगैरह को ये माल सप्लाई करेंगे. इस बाजार में बहुत कॉम्पटीशन था. हम उत्पाद कि गुणवत्ता से समझौता कर प्राइस में उनसे कम्पीट नहीं कर सकते थे.
फिर हमने अपना विचार बदला. हमने इस कांसेप्ट पर काम करना शुरू किया कि यहाँ आने वाला पर्यटक कम दाम में यहाँ का कोई उत्पाद खरीदकर ले जाये. हम उसे वह उत्पाद मुहैया कराने की दिशा में सोचने लगे. इसमें हम सफल भी रहे. आज बुरांश का जूस हमारा सबसे लोकप्रिय उत्पाद है. हमारे सभी उत्पाद यहाँ आने वाले पर्यटक साथ ले जाना नहीं भूलते.
शुरुआत से लेकर अब तक की व्यापारिक प्रगति को आप कैसे देखते हैं?
देखा जाय तो हमने जीरो से शुरू किया था. शुरू में हमारा सालाना टर्नओवर 1 लाख, फिर 2, फिर 5-6 लाख रहा और धीरे-धीरे बढ़कर आज 1 करोड़ सालाना तक पहुँच चुका है. हाँ! अब इसके आगे ज्य्यादा सम्भावना नहीं दिखती. नए प्रतियोगियों का आना, खान-पान की शैली में बदलाव आदि कई कारण हैं जिनसे लगता है इससे ज्यादा ग्रोथ मुश्किल है. हालाँकि अभी हम लगातार ग्रो कर ही रहे हैं आगे देखते हैं क्या होता है.
आप किस प्रक्रिया के तहत कच्चा माल लाकर माल तैयार करते हैं?
हम ज्यादातर माल सीधा किसान से ही लेते हैं और जरूरत पड़ने पर स्थानीय मंडी से भी. बुरांश का जूस हमारा सबसे लोकप्रिय उत्पाद है. बुरांश के जूस के लिए बुरांश इकट्ठा करने के लिए हमने नैनीताल जिले के ही धारी विकासखंड के सुन्दरखाल गाँव को चुना है. इस गाँव के सभी परिवार बुरांश के सीजन में हमें बुरांश इकट्ठा करके देते हैं. हमारी गाड़ी वहां से जाकर उनसे बुरांश इकट्ठा करके ले आती है. सुन्दरखाल वन पंचायत के लोग सामुदायिक परिके से इसे इकट्ठा करते हैं और हर घर के सभी सदस्य इस प्रक्रिया में शामिल होते हैं. इससे घर के हर सदस्य को थोड़ा-बहुत आमदनी हो जाती है.
इस उत्पाद को हम सेमीप्रोसेस करके रख लेते हैं और जरूरत पड़ने पर तैयार कर लेते हैं.
जब अपने अपने उद्यम की शुरुआत की तो कितनी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ा?
उस समय इस इलाके में सिर्फ हम ही अकेले थे. पूरे कुमाऊँ में उस समय ‘हिमका’ ही थी, वे मनान में इसी तरह के उत्पाद पहले से तैयार कर रहे थे. तो ज्यादा कॉम्पटीशन नहीं था.
आपने उत्तर प्रदेश के समय में अपनी यूनिट शुरू की, आज उत्तराखण्ड बन जाने के बाद सरकार से आपको किस तरह के संरक्षण, प्रोत्साहन मिले?
हमने उत्तर प्रदेश के समय में खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड के सहयोग से उद्यम शुरू किया. बोर्ड आज विलुप्त सा हो गया है. विभाग है मगर इसकी गतिविधियाँ दिखाई नहीं देतीं. हमारे राज्य का दुर्भाग्य है कि सरकारें इस तरफ ध्यान ही नहीं दे रही हैं. हमने सरकारी विभागों से तालमेल बिठाने की कोशिश की मगर असफल रहे.
आज फ्रूटेज प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर कितने लोगों को रोजगार देता है?
फ्रूटेज इस समय 30 से 40 लोगों को प्रत्यक्ष तौर पर रोजगार देता है. करीब 25 स्थानीय महिलाएं तो सीधा फैक्ट्री में उत्पादन की ही प्रक्रिया में लगी हुई हैं, इसका सञ्चालन मेरी पत्नी सीमा भगत करती हैं. इसके अलावा विभिन्न शोरूमों में स्टाफ, मार्केटिंग टीम और ड्राइवर वगैरह भी हैं. फ्रूटेज इन्हें साल भर रोजगार देता है, बाकि किसान के रूप में लाभार्थी अलग हैं.
आज जब स्टार्टअप को सरकारी प्रोत्साहन की बात हो रही है, तब आप इस इलाके में फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में आप कितनी सम्भावना देखते हैं?
फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में कई संभावनाएँ हैं. मिसाल के तौर पर आज फ्रूट बीयर की बहुत मांग है, लेकिन इस दिशा में कोई प्रयास नहीं हैं. हम ऐसे किसी प्रोडक्ट का सेमीफिनिश बनाकर बड़ी कंपनियों को सप्लाई कर सकते हैं लेकिन बड़ी कम्पनियाँ इस दिशा में गंभीर नहीं हैं. हमने बहुत पहले नारायण दत्त तिवारी के समय में आईटीसी के साथ एक एमओयू साइन किया था. नारायण दत्त तिवारी और मणिशंकर अय्यर की मौजूदगी में यह साइन किया गया था, इस दिशा में हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाए. धरातल पर कोई काम नहीं किया.
सरकार को इस पूरे प्रदेश को एक फूड प्रोसेसिंग के हब में बदलने के प्रयास करने चाहिए. हमारे जैसे कई लोग कई तरह के उत्पाद तैयार करें. इससे पूरे देश के लिए यह अपनी तरह के उत्पादों का अच्छा बाजार बन सकता है. जैसे, प्रतापगढ़ को आंवले के उत्पादों के लिए देश-विदेश में जाना जाता है. पूरी दुनिया पेठा खरीदने आगरा जाती है. नारियल, मसाला खरीदने के लिए सभी दक्षिण भारत का रुख करते हैं. इसी तर्ज पर अगर हमारी बाल मिठाई को ही स्थापित किया जाये तो आसानी से हो सकता है.
हमारे उत्तराखण्ड में फलों का ही एक अच्छा बाजार विकसित किये जाने की संभावना है. आज तक इस दिशा में ढंग का शोध तक नहीं हो पाया है कि यहाँ किस जगह कौन सा फल बेहतर तरीके से उगाया जा सकता है. उदाहरण के लिए भीमताल से भवाली तक की पट्टी नींबू, माल्टा जैसे फलों, कोटाबाग आंवला के लिए मुफीद जगह है. इसी तरह प्रदेश के हर ब्लॉक को चिन्हित किया जाना चाहिए, लेकिन सरकारें इस दिशा में उदासीन बनी हुई हैं.
ऑनलाइन मार्केट में आप कितनी संभावना देखते हैं?
हमने 2012 से आनलाइन उत्पाद बेचना शुरू किया. ऑनलाइन बाजार में भी बुरांश के जूस की खासी मांग है. लेकिन विभिन्न वजहों से यहाँ संभावना कम ही दिखाई देती है.
इस क्षेत्र में आने वाले नए उद्यमियों को क्या सलाह देंगे?
जैसे अभी हम लोग इस इंडस्ट्री के 5-6 सेगमेंट में हैं, जिम, स्क्वैश, जूस, अचार, चटनी वगैरह. आप एक सेगमेंट से शुरू करिए, जैसे अचार से शुरू कर सकते हैं. एक कमरे में मामूली लागत और कम संसाधनों से काम शुरू हो जायेगा. कम पैसा लगाइए, नया टेस्ट डेवेलप करिए लोग हाथों-हाथ लेंगे. धीरे-धीरे अपना दायरा पढ़ते जाइये. मेरी यह भी सलाह रहेगी कि पहाड़ में लुप्त होते जा रहे स्वाद को जिन्दा करिए, मिसाल के लिए नींबू-दाड़िम की चटनी.
आपका कहना है कि सरकार द्वारा इस दिशा में कोई पहलकदमी और प्रोत्साहन तो है नहीं, तो पहलकदमी कौन ले?
निश्चित तौर पर युवाओं को इस दिशा में आगे बढ़ाने के लिए अभिभावकों और शिक्षा व्यवस्था को प्रोत्साहन देना चाहिए. हमारी शिक्षा व्यवस्था और अभिभावक बच्चों को सरकारी अफसर बनने के लिए ही प्रोत्साहित करते हैं, नेता या उद्यमी या फिर व्यापारी बनने के लिए नहीं. मेरे पिताजी थे तो में हूँ, उन्होंने ढर्रे को तोड़कर ऐसा सोचा.
आप एक हिमालयी राज्य के रूप में उत्तराखण्ड में किस तरह की इंडस्ट्री का भविष्य देखते हैं, एक में तो आप हैं ही?
पर्यटन बहुत असीम संभावनाओं वाला है. इस दिशा में केरल, राजस्थान, गोवा से सीखा जा सकता है. इसके अलावा फलों का कारोबार भी एक संभावना वाला क्षेत्र है, जैसे अखरोट के 20 पेड़ ही एक घर की आजीविका चलने में सक्षम हैं. और भी कई काम हो सकते हैं.
वाट्सएप में पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…