Featured

उत्तराखंड में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये क्लिक करें – Support Kafal Tree

ज्योर्तिलिंगों से संबंधित स्तुति में कुल बारह ज्योर्तिलिंगों का उल्लेख है, जिनके नामों का स्मरण सनातनी परम्परा में आस्था रखने वाला हर श्रद्धालु नित्य स्मरण करता है. जरूरी नहीं कि हर श्रद्धालु को ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का सौभाग्य मिले, लेकिन शिवलिंग का पूजन व जलाभिषेक तो हर भक्त के हिस्से आता ही है. यहां पर यह जान लेना आवश्यक है कि शिवलिंग व ज्योतिर्लिंग में मुख्य अन्तर क्या है? दरअसल ज्योतिर्लिंग अन्य शिवलिंगों से अलग मानने के पीछे मान्यता है, कि ज्योतिर्लिंग में भगवान शिव ज्योति रूप में विराजमान रहते हैं और वे मानव निर्मित न होकर स्वयंभू होते हैं, जब कि अन्य मन्दिरों में स्थापित शिवलिंग मानव निर्मित भी हो सकते हैं और स्वयंभू भी. लेकिन उन्हें ज्योतिर्लिंग की मान्यता नहीं दी गई है.
(Nageshwar Jyotirlinga Uttarakhand)

ज्योर्तिलिगों का इतिहास कितना पुराना है, इस संबंध में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है. जाहिर है कि यदि शास्त्रों में इन ज्योर्तिलिंगों का उल्लेख है तो इसका इतिहास शास्त्रों की रचना से पूर्व का रहा होगा. इन बारह ज्योर्तिलिगों में अधिकांश ज्योर्तिलिगों के स्थान के संबंध में कोई संशय नहीं है, लेकिन कुछ ज्योतिर्लिगों के स्थान के संबंध में भ्रम की स्थिति है. भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग को कुछ लोग महाराष्ट्र प्रान्त में पुणे के पास सह्याद्रि नामक पर्वत श्रृंखला पर मानते हैं तो कुछ लोग आसाम में माता कामाख्या मन्दिर के पास. इसी तरह वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की झारखण्ड राज्य के देवघर की मान्यता है, जब कि महाराष्ट्र में बैजनाथ परली में भी लोग उसे ज्योतिर्लिंग ही मानते हैं. स्तुति में ’परल्यां वैद्यनाथं च’ उनके इस तर्क की पुष्टि करता है. यों तो उत्तराखण्ड में भी बैजनाथ बागेश्वर जनपद के अन्तर्गत एक स्थान है, लेकिन इसे ज्योतिर्लिंग की मान्यता नहीं है.

आठवें ज्योतिर्लिंग, नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के स्थान के संबंध में एक नहीं, दो नहीं बल्कि तीन-तीन स्थानों पर होने के अपने अपने तर्क हैं और भिन्न-भिन्न किंवदन्तियां है. नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के संबंध में विस्तार से जानने के लिए पंक्ति ’नागेशं दारूका वने’ पर गौर करना होगा. सामान्यतया जनसामान्य में द्वारिका के पास स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग को ही नागेश ज्योतिर्लिंग की मान्यता है.

इस संबंध में एक पौराणिक आख्यान का सन्दर्भ दिया गया है कि दारूका नाम की एक राक्षसी थी, जिसने पार्वती माता की उपासना कर दारूका वन को वरदान स्वरूप मांग लिया. दारूका वन में अनमोल जड़ी-बूटियों का भण्डार था. वहां सुप्रिया नाम की एक भक्त भगवान शिव की परम भक्त थी. दारूका राक्षसी ने उसे बहुत यातनाऐं दी और अपने कारागार में बन्दी बना दिया. लेकिन सुप्रिया की भगवान शिव के प्रति अनन्य श्रद्धा बनी रही और कारागार में ही उसने शिव की उपासना जारी रखी और खुद की रक्षा तथा राक्षसों के विनाश की प्रार्थना की. भगवान शिव उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए और दारूका नाम राक्षसी का वध कर ज्योति के रूप में एक गुफा में अवतरित हुए और नागेश्वर कहलाये. यह कहानी है – द्वारिका के पास नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की.
(Nageshwar Jyotirlinga Uttarakhand)

ठीक इसी से मिलती जुलती कहानी समेटे महाराष्ट्र के हिंगोली जनपद में स्थित औंधा नागनाथ मन्दिर को भी कुछ लोग नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की मान्यता देते हैं. यहां राक्षस दारूक और राक्षसी दारूका का जिक्र है. यहां भी कहा गया दारूक व दारूका का किसी वन क्षेत्र में आधिपत्य था. सुप्रिय नाम का शिवभक्त वैश्य का जिक्र यहां भी आता है और उसी भक्त की रक्षा के लिए भगवान शिव उस राक्षस व राक्षसी का विनाश कर भक्त की रक्षा के लिए ज्योति रूप में प्रकट होते हैं. यही नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से पूजे जाने लगे. कहा जाता है कि औंधा नागनाथ का क्षेत्र पहले दारूकावन के नाम से जाना जाता है. कालान्तर में यहां अमरदक नाम से झील का निर्माण हुआ और ज्योतिर्लिंग झील में समाहित हो गया. शाब्दिक अर्थ से देखें तो अमरदक का शुद्ध नाम अमरोदक (अमर$उदक) रहा होगा. हो सकता है, मूल ज्योतिर्लिंग की जलसमाधि के बाद इसी नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्रतिनिधि के रूप में द्वारका में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना की गयी हो. यदि हम दारूक का नाम अपभ्रंश होकर द्वारिका होने की थ्योरी पर भी बात करें तो यह ’दारूका वने’ की पुष्टि नहीं करता, क्योंकि द्वारिका के पास ऐसा सघन वन क्षेत्र नहीं है.

अब बात करते हैं, नागेश्वर ज्योतिर्लिंग से संबंधित एक और स्थान का, जो देवभूमि उत्तराखण्ड में अल्मोड़ा जनपद मुख्यालय से लगभग 35-36 कि0मी0 की दूरी पर अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग के समीप स्थित है. आरतोला नामक स्थान से यहां के लिए अलग सड़क मार्ग बना है. महामृत्युंजय मन्दिर सहित 124 अन्य मन्दिरों के समूह वाला यह भारत का एकमात्र धार्मिक स्थल है, जहां इतने मन्दिर एक साथ हैं. इस मन्दिर के निर्माण की भी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है, कहा जाता है कि पूर्व कत्यूर वंश से लेकर चंद वंश तक के शासनकाल में (सातवी से अठारहवीं शताब्दी) इसका निर्माण हुआ होगा. कहा जाता है कि यह मन्दिर अभीष्ट फलदाई था, जो इस मन्दिर में जो कामना लेकर आता, उसकी वांछित कामना पूरी हो जाती. श्रद्धालु किसी का अहित की कामना लेकर भी आता तो वह भी पूरी हो जाती. बताते है कि बाद में आदिशंकराचार्य जब यहां आये तो उन्होंने इस शक्ति को कीलित किया और दूसरों के अहित की कामना वाले भक्तों की मुराद तबसे पूरी न हो सकी.

पौराणिक आख्यानों के अनुसार जब भगीरथ की तपस्थ्या से प्रसन्न होकर उनके पुरखों की सद्गति के लिए मां गंगा का भूलोक में अवतरण हुआ, तो भगवान शिव ने उसके के वेग को शान्त करने के लिए अपनी जटाओं से होकर पृथ्वी पर उतारा. इसी जटा गंगा के तट पर बसा है जागेश्वर मन्दिर, जिसके मुख्य द्वार पर ये पंक्तियां ’नागेश दारूका वने’ आपको बरबस सोचने को विवश करेंगी कि क्या ज्योतिर्लिंगों की स्तुति में जागेश्वर मन्दिर ही नागेश्वर ज्योतिर्लिंग तो नहीं, स्थानीय लोगों का कहना है कि इसी जटा गंगा का उद्गम स्थल, जो बियावान जंगल में हैं, आज भी एक नहीं अनेक शिवलिंग के आकार की स्वयंभू शिलाऐं वहां बिखरी पड़ी मिल जायेंगी.
(Nageshwar Jyotirlinga Uttarakhand)

उत्तराखण्ड को यों ही देवभूमि नहीं कहा गया है, यहां कंकड़-कंकड़ में शंकर का वास माना जाता है. यदि जागेश्वर धाम से संबंधित प्रचलित आख्यान पर विश्वास करें कि यह भगवान शिव की तपस्थली रही होगी, इसमें संशय नहीं. प्रसंग है कि भगवान शिव ने समुद्र मंथन के समय निकले हलाहल का जब पान किया तो विषपान से नीले हो गये शरीर की तपन को शान्त करने के लिए उन्होंने पहले हरिद्वार में स्नान किया, जिससे नीलधारा व नील पर्वत हरिद्वार में बने, जिस नील पर्वत पर आज चण्डीमाता का मन्दिर है. फिर वे इसी जागेश्वर क्षेत्र के सघन वन प्रान्तर में तपस्यालीन हो गये. इसी वन क्षेत्र में सप्तर्षि भी तपस्या करते थे.

एक दिन ऋषि पत्नियां समिधा लेने के उद्देश्य से इसी सघन वन प्रान्तर में विचरण कर रही थी, तो उन्हें दिव्य रूप में तपस्यारत भगवान शिव दिगम्बर स्वरूप में दिखे. उनकी नीली काया व देहयष्टि पर वे ऋषि पत्नियां इतनी सम्मोहित हो गयी, कि देखते-देखते वहीं मूर्छित हो गयी. गहरे ध्यान में मग्न भगवान शिव को उन ऋषि पत्नियों की उपस्थिति का तनिक भी आभास नहीं हुआ. जब काफी देर तक वे ऋषि पत्नियां अपने आश्रम में नहीं लौटी तो सभी सप्तर्षि उनकी ढॅूढ-खोज में वन की ओर निकले. एक जगह पर उन्हें अपनी पत्नियां मूर्छित अवस्था में पड़ी मिली और सामने दिगम्बर भगवान शिव तपस्यालीन दिखे. ऋषियों को संदेह हुआ कि इसी तपस्यारत दिखने वाले व्यक्ति ने उनकी पत्नियों से कुछ गलत किया है और क्रोधावेश में आकर भगवान शिव को शाप दे डाला कि उनका लिंग तत्काल उनके शरीर से अलग हो जाय. शाप से शिव का लिंग शरीर से अलग तो हो गया, लेकिन जब भगवान शिव ने उन्हें उनकी भूल का अहसास कराया तो दिया गया शाप वापस नहीं हो सकता था। इसलिए सप्तर्षियों ने कहा कि हम शाप तो वापस नहीं ले सकते,अब तुम्हारा धरती पर गिरा हुआ लिंग ही शिव स्वरूप पूजा जायेगा. साथ ही भगवान शिव ने भी उन सप्तर्षियों को शाप दिया कि अब वे दूर अन्तरिक्ष में सृष्टि के अनन्त काल तक लटके रहेंगें. आज अन्तरिक्ष में जो सप्तर्षि तारमण्डल चमकते  हंै, कहते हैं, उनका संबंध इसी घटना से है. कहते हैं, शिव के लिंग स्वरूप की पूजा इसी जागेश्वर धाम से प्रारम्भ हुई. इसी मन्दिर समूह के पास दण्डेश्वर (दण्डित ईश्वर) महादेव मन्दिर होना भी इस घटना की पुष्टि करता है. इस प्रकार यह प्रसंग न केवल जागेश्वर को ज्योतिर्लिंग सिद्ध करता है, बल्कि यदि शुरूआत यहां से हुई तो प्रथम ज्योतिर्लिंग का दर्जा देता है. यहां पर यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि उज्जैन के महाकाल मन्दिर की तरह ही जागेश्वर का मन्दिर भी दक्षिणाभिमुख है तथा यहां अन्य मन्दिरों की तरह शिवलिंग लिंगाकार न होकर शिलारूप में है.
(Nageshwar Jyotirlinga Uttarakhand)

पुनः स्तोत्र की पंक्तियों पर आयें. ’नागेशं दारूकावने’, – दारूका, देववाणी संस्कृत में देवदार वृक्ष को कहते हैं. बारह ज्योतिर्लिंगों में जागेश्वर ही एक ऐसा मन्दिर समूह है, जहां मन्दिर समूह के चारों ओर देवदार का घना जंगल है. मन्दिर प्रांगण में देवदार का एक विशालकाय वृक्ष न जाने कितनी शताब्दियों से भगवान शिव का सहचर बनकर अडिग खडा है. संभवतः देवदार का इतना घना जंगल उत्तराखण्ड में अन्य कहीं देखने को नहीं मिलेगा. शास्त्र भी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं –

हिमाद्रेरूत्तरे पाश्र्वे देवदारूवनं परम्
पावनं शंकरं स्थानं तत्र सर्वेशिवार्चिता:

अर्थात् बर्फ से ढके पहाड़ियों के उत्तर में देवदार के घने जंगलों से घिरा ये स्थान शिव की पवित्र भूमि है. जहां उन्हें हर जगह पूजा जाता है.

जागेश्वर जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है – जागृत अवस्था में ईश्वर. ज्योतिर्लिंग ही ऐसा स्वरूप है, जहां भगवान शिव लिंग स्वरूप ज्योतिपुंज जागृत अवस्था में विद्यमान रहते हैं.

नागेश्वर भगवान शिव का ही एक नाम है, जिनके कंठ में सदैव नागों की माला रहती है. लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि इस क्षेत्र से सटे जनपद पिथौरागढ़ व बागेश्वर क्षेत्र में अतीत में नागवंश का शासन रहा है. आज भी कुछ क्षेत्र में नाग एक आराध्यदेव हैं. बेड़ीनाग, धौलीनाग, वासुकीनाग आदि नाम यह प्रमाणित करते के लिए पर्याप्त हैं कि यह क्षेत्र अतीत में कभी नागवंशियों का क्षेत्र रहा अथवा नाग इनके लोक अथवा कुलदेवता रहे और उन्होंने अपने आराध्य भगवान शिव को नागों के ईश्वर या नागेश्वर नाम दिया.
(Nageshwar Jyotirlinga Uttarakhand)

उपरोक्त साक्ष्यों से इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि वास्तविक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग वर्तमान उत्तराखण्ड स्थित जागेश्वर ही हो सकता है. आस्था को किसी तर्क-वितर्क की दरकार नहीं होती. हमें इस वाद-विवाद में नहीं पढ़ना कि कौन असली ज्योतिर्लिंग है, कौन नहीं. यदि अनन्य श्रद्धा है, तो एक सामान्य पत्थर में भी भगवान का स्वरूप देखा जा सकता है. सनातन में इतनी उदारता तो है ही कि आप किसी रूप में पूजें, वह उसी रूप में फलदायी है. ’सर्व देव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति’.
(Nageshwar Jyotirlinga Uttarakhand)

– भुवन चन्द्र पन्त

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

इसे भी पढ़ें: लोकगायिका वीना तिवारी को ‘यंग उत्तराखंड लीजेंडरी सिंगर अवार्ड’ से नवाजा गया

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

3 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

3 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

4 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

5 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

5 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago