कॉलम

पहाड़ और मेरा बचपन – सुंदर चंद ठाकुर का नया कॉलम

[देश के प्रमुख पत्रकार-संपादकों व लेखकों में गिने जाने वाले सुन्दर चंद ठाकुर मूलतः जिला पिथौरागढ़ के एक छोटे से गाँव खड़कू भल्या के रहने वाले हैं. सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत कुछ वर्ष नौकरी कर चुकने के बाद सुन्दर ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह में सिक्युरिटी अफसर के रूप में काम किया. साहित्य और पत्रकारिता के लिए उनकी लगन के चलते कुछ ही वर्षों में वे इस समूह के सम्पादकीय विभाग में जगह बना पाने में सफल हुए. फिलहाल वे नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के मुख्य सम्पादक हैं. सुन्दर हिन्दी के पुरुस्कृत कवि-लेखक हैं. उनके दो कविता संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हैं. यहाँ यह बताना भी उल्लेखनीय होगा कि सुन्दर भारत की विश्वविजेता अंडर-19 क्रिकेट टीम के यशस्वी कप्तान उन्मुक्त चंद के सगे चाचा भी हैं. सार्वजनिक रूप से उन्मुक्त ने अपनी सफलता का सेहरा जिन चुनिन्दा लोगों के सर बांधा है उनमें सुन्दर का नाम काफी ऊपर रहता आया है. सुन्दर चंद ठाकुर ने काफल ट्री के लिए पहाड़ में बिताये अपने शुरुआती जीवन के संस्मरण लिखना आरम्भ किया है.]

पहाड़ में मैंने जीवन का बेशकीमती समय गुजारा है. बचपन का वह हिस्सा जब आपको अक्ल आनी शुरू होती है, जब आपके शरीर में जवानी के हार्मोंस अपना असर दिखाना शुरू करते हैं, नवीं से लेकर बारहवीं तक की दोस्तों से भरपूर जिंदगी और फिर कॉलेज का नशीला जीवन, मेरे लिए यह सब पहाड़ में ही घटा. इस जीवन को उसकी खुशबू के साथ आपके सामने परोसने के लिए मुझे पूरी किताब भर शब्द चाहिए होंगे. पता नहीं मैं कितना लिख पाता हूं, पर यहां जैसे अशोक ने अपना लप्पूझन्ना लिखा, मैं अपने बचपन को हुबहू पूरे स्वाद के साथ वापस जीने की कोशिश करूंगा. हालांकि मैंने ऐसी कोई सोची-समझी योजना नहीं बनाई, पर यह सब लिखते हुए लगा कि लिख ही रहे हैं, तो सिलसिलेवार पूरी यात्रा को दर्ज किया जाए, वह यात्रा जिसने मुझे वहां पहुंचाया, जहां मैं आज हूं. मैं जो भी हूं, उस सबके बीच बचपन में ही पड़ गए होंगे. क्यश उन बीजों को तलाश करने का खेल मजेदार नहीं रहेगा?

मुझे जो सबसे पहली याद है पहाड़ की वह अपने गांव खड़कू भल्या की है. ये बहुत धुंधली यादें हैं. धुंधली इसलिए हैं क्योंकि मैंने पांच साल की उम्र में गांव छोड़ दिया था. इसलिए जो भी यादें हैं, वे पांच साल की उम्र से पहले की हैं. लेकिन जब से होश संभाला ये यादें तभी से बनी हुई हैं. खड़कू भल्या में हमारा घर नौल घर के नाम से जाना जाता रहा है क्योंकि वही सबसे नया घर था. वह मेरे स्वर्गीय पिताजी ने इस ठसक में बनवाया था कि वे फौज में जब अफसर बनेंगे, तो लोगों को नए घर में बुलाकर पार्टी देंगे. वे अफसर बनते-बनते रह गए और आज यह नौल घर भी पूरी तरह जर्जर हालत में है. कई बार मां ने कहा कि उसके पत्थर, लकड़ी वगैरह निकालकर बेच दो, लेकिन बड़े भाई और मुझे इसकी कभी जरूरत महसूस नहीं हुई. इस नौल घर की सबसे बड़ी पहचान इसके अहाते में दाहिनी ओर खड़ा आम का पेड़ है. यह बहुत बड़ा पेड़ है. मैं इस पेड़ के नीचे से गिरे हुए आम उठाकर उन्हें अपनी कमीज में जमा करता था और जब-तब चूसता रहता. मुझे यह भी याद है कि मैं नीचे से पत्थर मारकर भी आम तोड़ने की कोशिश करता था, हालांकि मेरी याद में ऐसा कोई दृश्य नहीं आता जबकि मेरा पत्थर लगने से कोई आम टूटकर नीचे गिरा हो. पांच साल के बच्चे का पत्थर जाता ही कितना ऊपर होगा और पहुंचता भी होगा, तो आम पर प्रहार करने की बजाय वह उसे चुंबन का अहसास करवाता होगा. मुझे यह भी याद है कि कई बार पेड़ के नीचे बाल्टी रखी होती थी. पता नहीं कौन इसमें आम तोड़कर रखता था. मैंने किसी को इसमें आम डालते नहीं देखा.

आम के पेड़ से जुड़ी दूसरी याद ऐसी है कि मैं पेड़ के नीचे से कोई सूखी हुई लकड़ी उठाकर उसे तलवार बना लेता. पेड़ पर या इसके आसपास कहीं तो मेरे पिताजी ने एक लाउडस्पीकर बांध रखा था, जिस पर पहाड़ी गाने भी बजते थे. मैं अक्सर अपनी लकड़ी की तलवार के साथ छलिया नृत्य करता था, जिसे देखकर मेरी आमां बहुत खुश होती थी. वह जितना खुश होती मैं उतने आवेग से नृत्य करता. आमां ही मुझे पगड़ी पहनाती और नीचे लुंगी की तरह कपड़ा लपेट देतीं क्योंकि मुझे छलियों की तरह गोल-गोल घूमना होता था. आमां ही थाली बजाकर धुन निकालती और छबेली गाती और मैं बेतहाशा नाचता. आने-जाने वाली गांव की औरतें भी मुझे नाचता देख दो मिनट को अपने सिर का बोझ उठाकर नीचे रख देतीं और आमां से ‘तुमर नाति भोत तेज छ हो’ जैसी कोई बात कहतीं. बचपन में उस तरह नाचने को जब मैं जवानी की दहलीज में प्रवेश कर लेने के बाद के खुद में तलाशने की कोशिश करता हूं तो सबसे पहले फौज के दिन याद आते हैं, जब मैं कमिशन लेने के बाद बंगाल इंजीनियर में गया और अनिवार्य पोस्टिंग के रूप में मुझे हैडक्वॉर्टर रुड़की भेजा गया. यहां हर शनिवार को अफसरों और उनके परिवारों के लिए क्लब में तंबोला के खेल के अलावा विशेष आयोजन होते थे, जिसमें डांस प्रमुख था.

मैं खुद को पहाड़ से निकला बनिस्बत सीधा-सादा, भीरू किस्म का नौजवान समझता था, अंग्रेजी में हाथ तंग होने के कारण जिसका व्यक्तित्व थोड़ा अंतर्मुखी लगता था और जिसके चेहरे पर इस वजह से अक्सर शराफत जैसा कुछ चिपका रहता था. लेकिन कुछ ही दिनों में मैंने गौर किया कि मैं दो पैग गटक लेने के बाद सेंटर कमांडेंट, जो कि सेंटर का सबसे बड़ा अफसर होता था और संयोग से उसकी उन्हीं दिनों लिप्टन टाइगर के विज्ञापन में आने वाले शख्स जैसी मुड़ी हुई नुकीली मूंछ थी, जिसे देखकर एक बारगी तो कोई भी सहम जाता, उसी की बेटी के पास जाकर डांस का न्योता दे सबसे पहले डांस फ्लोर पर उतर जाता और डांस जैसा भी करता, पर पूरे आत्मविश्वास से करता कि मानो मेरे सरीखा कोई दूसरा डांसर पैदा ही न हुआ हो. डांस को लेकर ऐसे लक्षण अमूमन शराब पीने वाले ज्यादातर पहाड़ी नौजवानों में मिलते हैं. इस तथ्य को वे लोग बेहतर समझ सकते हैं, जिन्होंने लड़के वालों की ओर से ऐसी बारात में शिरकत की हो, जिसमें पहाड़ी रास्ते पर लंबा पैदल चलने के बाद होने वाली दुल्हन के घर के बाहर पहुंचकर ही डांस करने लायक चौड़ी, सपाट जगह मिल पाती है. आज मुझे लगता है कि वह नुकीली मूंछ वाले कमांडेंट की बेटी के साथ डांस करने लायक साहस के तार कहीं न कहीं आमां और गांव की दूसरी महिलाओं के सामने उस आम के पेड़ के नीचे डांस करने की सहज वृत्ति से जुड़े रहे होंगे.

(जारी)

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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