पहाड़ और मेरा जीवन – 37
(पिछली कड़ी: पहाड़ और मेरा जीवन – 36 :पहाड़ ने पुकारा तो मैं सहरा से लौट आया)
पिथौरागढ़ में डिग्री कॉलेज के बगल में सदगुरु निवास मेरे लिए चार साल तक निवास रहा। हमारे पास एक छोटा-सा कमरा था. संडास के लिए हमें बाल्टी लेकर कुछ दूर जाना पड़ता था. (My Childhood by Sundar Chand Thakur) इस निवास से सटा हुआ रामसिंह का ढाबा था, जहां चाय और चना ज्यादा बिकता था. रामसिंह क्रीम रोल भी रखता था, जिसका स्वाद मेरी जीभ पर इस बेकदर चढ़ गया था कि मुझे खुद पर एक दिन में दो से ज्यादा क्रीम रोल खाने पर प्रतिबंध लगाना पड़ा. यह प्रतिबंध इसलिए नहीं था कि क्रीम रोल मीठा होता था और मैदे का बना होता था, जिसका शरीर पर खराब असर पड़ सकता था, बल्कि इसलिए कि वह दो रुपये का आता था और हम दोनों भाइयों के लिए एक-एक रुपया बहुत कीमती होता था. मैं रोज चार रुपये क्रीम रॉल पर कैसे खर्च कर सकता था, जबकि मुझे यह पता था कि दस रुपये का एक लीटर मिट्टीतेल आ जाता है, जिससे कई दिनों तक हमारा स्टोव काम कर सकता था और हम कमरे में खाना बना सकते थे. उन दिनों सदगुरु निवास के आसपास कोई और घर नहीं था. लड़कियों का छात्रावास हालांकि बगल में था, लेकिन उसकी बहुत ऊंची दीवार थी. दीवार के पार से कभी कोई आवाज नहीं आती थी. कॉलेज जब तक खुला रहता कमरे के आसपास चहल-पहल रहती क्योंकि कॉलेज के कई बच्चे रामसिंह के ढाबे में आते थे. यह भी था कि आसपास के गांवों को जाने का रास्ता भी हमारे कमरे के ठीक सामने से जाता था. कॉलेज के थोड़ा आगे ही इंटर कॉलेज था, सो आसपास के गांवों में रहने वाले स्कूल व कॉलेज के छात्र हमारे कमरे के सामने से ही गुजरते थे. लेकिन एक बार कॉलेज बंद हो जाने के बाद कमरे के आसपास मुर्दानगी छा जाती. (My Childhood by Sundar Chand Thakur)
मेरा मिट्ठू दिल लेकर उड़ गया, पर दिल ने पुकारा तो लौट भी आया
उन दिनों ऐसी दिनचर्या थी कि मैं दोपहर में स्कूल से लौटकर आता था कोई तीन बजे के करीब. कमरे में लौटकर कुछ खा-पीकर मैं एक-आध घंटा सो जाता था. उठने के बाद मुझे सब्जी, राशन आदि रोजमर्रा का सामान लाने बाजार जाना होता. बड़ा भाई सारे मोटे काम मुझसे ही करवाता था और बारीक काम खुद करता था. मोटे यानी जिसमें शारीरिक श्रम लगता था और बारीक यानी जिसमें दिमाग लगाना होता था. जैसे कोई फॉर्म भरना हो किसी भी तरह का या कोई भाषण लिखना हो. मैं लगभग रोज ही शाम को बाजार जाता था. पुनेठा बुक स्टोर से मैं टाईम्स ऑफ इंडिया खरीदता और पांडे गांव में नवीन जनरल स्टोर से रोजमर्रा के राशन का सामान. इस दुकान में हमारा उधार खाता था. यानी पूरा महीना हम सामान खरीदते और पिताजी का मनीऑर्डर आने पर नए महीने में उधार चुकता कर देते. ये पहाड़ों में मनीऑर्डर इकॉनमी के दिन थे. पिताजी हमें हर महीने पांच सौ रुपये भेजते थे. नवीन की दुकान से कमरे तक पहुंचते हुए लगभग अंधेरा हो चुका होता था. एक ऐसे ही दिन जबकि मैं अंधेरा घिरने से पहले ही कमरे की ओर लौट रहा था, मुझे कुछ महिलाओं का विलाप सुनाई पड़ा.
मैंने तोते की लाश को तो दफ्न कर दिया, पर उसे मारने का अपराध बोध जिंदा रहा
हमारे कमरे से करीब दो सौ मीटर दूर सड़क के एक ओर एक व्यक्ति लेटा हुआ था और स्त्रियां उस पर गिरकर विलाप कर रही थीं. वहां कुछ पुरुष भी जमा हो गए थे. मैं करीब पहुंचा तो पता चला कि कोई चालीस के करीब का व्यक्ति है, जो शराबी हो गया था, उसी का देहांत हो गया था. मृत्यु से मेरा पहले साबका हो चुका था, लेकिन वह हर बार नए तरीके से मुझे छू रही थी. शव पर विलाप करती स्त्रियों वाला दृश्य बहुत दारुण था. पहाड़ों में स्त्रियों का रोना बहुत जोर का होता है. वे एकदूसरे से बिछड़ते हुए ही इतनी जोर से रोती हैं कि लगता है जैसे किसी की मृत्यु पर रो रही हैं. मेरी स्मृति में बिछड़ने के कई दृश्य हैं, जिनमें स्त्रियों का रोना भरा हुआ है. इसकी एक वजह तो यह समझ आती है कि पहाड़ के गांवों का जीवन बहुत एकाकी रहा है. वहां जब बाहर देस से कोई आता है और कुछ दिन रहकर वापस लौटता है, तो उसके जाने का दुख ज्यादा होता है क्योंकि शहरों की तरह गांव वालों को इस तरह लोगों से मिलकर जुदा होने की आदत और अनुभव नहीं होता. बहरहाल, मैं उस शव पर विलाप करती स्त्रियों को देखते हुए बहुत दुखी हुआ और दुख को दिल में बसा अपने साथ ही ले गया. पहाड़ों में सूर्यास्त के आसपास के समय वैसे ही माहौल में एक किस्म की उदासी उतरने लगती है, तिस पर आप अगर ऐसी जगह रहते हो जहां आसपास कोई न हो, तो उदासी और बढ़ जाती है. उस दिन संयोग से बड़ा भाई भी कमरे में नहीं था. मैंने घर पहुंचकर खुद को सब्जी काटने, आटा गूंथने, रोटी बनाने जैसे जरूरी कामों में व्यस्त किया, पर दिल में भरी हुई उदासी बढ़ती रही. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरे साथ यह हो क्या रहा है.
वो दिनभर किराए की साइकिल चलाना और बतौर कप्तान वो फुटबॉल मैच में मेरा अविश्वसनीय गोल
अगले दिन सूर्य की पहली किरण के साथ मैंने भी अपनी आंखें खोलीं और जैसा कि मैं रोज करता था, उठते ही चाय बनाने बैठ गया. और चाय पीते-पीते जाने क्या हुआ कि मैं अपने जीवन की पहली कविता लिखने बैठा –
दो दिन के इस जीवन में
दुखसुख सब बांटकर जिओ
क्योंकि बांस पर लिटाकर तुझे जब ले जाएंगे संगम पर
तो कोई तो हो जो आग दे तेरी चिता पर
यह कविता मैंने लिखी और किन्हीं दिनेश जोशी के संदन में निकल रहे ‘कुमाऊं सूर्योदय’ नाम के एक चार पेज के लोकल अखबार में दे दी. कविता अखबार में प्रकाशित हो गई।. अखबार में अपना नाम छपा देख मैं जैसे हवा में उड़ने लगा. फिर तो कविता लिखने का ऐसा सिलसिला चल निकला कि आज तक चालू ही है. पर उस शुरुआती दौर में इन क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं ने कविताओं में मेरी रुचि बढ़ाने में बहुत अहम भूमिका निभाई. उन दिनों जीआईसी पिथौरागढ़ में हम चार दोस्त हुआ करते थे. मैं, भुवन चंद्र पांडे, प्रवीर पुनेरा और मनोज पांडे. भुवन चंद्र पांडे इन दिनों एनटीपीसी में काम कर रहा है. उसकी दो बेटियां हैं. मनोज पांडे से मेरी एक मुलाकात दिल्ली में दरियागंज में हुई थी, वह वहीं किसी लाला की बहुत छोटी कंपनी में काम कर रहा था.
मैं क्यों चलता था 15 किलो बोझ लादे बिजली के खंभे पर संतुलन बनाता
उससे आखिरी मुलाकात काठगोदाम में हुई थी जहां मैं पीसीएस की लिखित परीक्षा देने गया था. वह भी परीक्षा देने आया था. मेरे अलावा बाकी तीनों पढ़ने में बहुत होशियार थे. उन दिनों के यूपी बोर्ड में वे 80 फीसदी तक अंक लाते थे. प्रवीर तो बाद में इंजीनियरिंग में निकला और एक-दो साल भारत में नौकरी करने के बाद अमेरिका चला गया. अब भी वह वहीं है. हम चारों में से प्रवीर को भी बहुत शुरू में मेरी तरह छपास का रोग लगा था. पिथौरागढ़ और उसके आसपास से निकलने वाले छोटे-बड़े अखबार हमें जिला पुस्तकालय में मिल जाते थे. हम यह देखते कि कौन-सा अखबार कविताएं छापता है और तुरंत अपनी कविताएं भेज देते. फिर हम एकदूसरे को अपनी प्रकाशित कविता दिखाते. प्रवीर को जल्दी समझ आ गया कि इस खेल से अहं को संतुष्टि के अलावा और कुछ नहीं मिलने वाला, सो उसने खेल छोड़ अपनी पढ़ाई पर ध्यान लगया. पर मैं कविताओं में और भीतर घुसता चला गया. इतना कि एक वक्त आया जब मैं खुद को सुमित्रा नंदन पंत सरीखा समझने लगा. समझता क्यों नहीं मैंने ठीक उनके अंदाज में, उन्हीं की शब्दावली वाली एक कविता लिखी थी, जिसे एक प्रतिष्ठित क्षेत्रीय अखबार ने एक संपादकीय घोषणा के साथ मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किया. उस घोषणा में क्या था और क्या था उस कविता में और मेरा आगे का सफर सब अगले हफ्ते.
वाट्सएप में पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…