पहाड़ और मेरा जीवन – 34
(पिछली कड़ी: वो 26 रनों की यादगार पारी और लटक-लटक कर नाटे कद से छरहरा व लंबा बन जाना)
राजस्थान में हमारे घर के आसपास तोते बहुत थे. मुझे बचपन से ही जानवरों के बच्चे बहुत प्रिय लगते थे. वे होते ही इतने सुंदर हैं. उन पर अगर किसी का दिल न आया, तो वो दिल नहीं. तोते भी मुझे बहुत अच्छे लगते थे. मेरी गुलेल से एक तोते के मर जाने की घटना के बाद मैं गहरे अपराधबोध से भरा हुआ था. ऐसे में मैं तोतों के प्रति और आकृष्ट रहने लगा. मैं हर वक्त तोतों के बारे में ही सोचता रहता. एक दिन यूं ही सोचते-सोचते मन में विचार आया कि क्यों न मैं एक तोता पाल लूं. मैंने ऐसी भूमिका बांधी कि मां मुझे मना नहीं कर पाई. लेकिन उसने मुझे इस काम के लिए पैसे देने से मना कर दिया. लेकिन मुझे पैसों की जरूरत नहीं पड़ी. ऐसे संयोग घटे कि दो दिन के अंदर मेरे पास पिंजरा भी आ गया और तोता भी. इसमें मेरे दोस्त फहीम अख्तर ने अहम भूमिका निभाई. फहीम आज भी मुझसे जुड़ा हुआ है. हम दोनों में एकदूसरे के प्रति दोस्ती का भाव बहुत गहरा था. (My Childhood by Sundar Chand Thakur)
जब उसे मालूम चला कि मैं तोता पालना चाहता हूं और तोते का बच्चा ढूंढते हुए नीम के एक खोखल में हाथ डालकर तोता समझ सांप की पूंछ खींचने जैसा जोखिम उठा चुका हूं, तो वह जाने कहां से एक पिंजरे में एक लगभग नवजात तोते का बच्चा ले आया. वह कुछ ही दिनों का रहा होगा क्योंकि अभी उसके पंख भी पूरी तरह आए नहीं थे. जैसा कि उन दिनों प्रचलन था मैंने इस तोते के बच्चे का नाम रखा मिट्ठू. मिट्ठू का घर में आना क्या था, मेरा अब टाइम पास करने का ढंग ही बदल गया. मैं स्कूल से आते ही मिट्ठू को अपनी छाती पर बिठा लेता. मैं सोता तो चादर के भीतर मिट्ठू भी मेरे साथ होता. ऐसा कुछ नहीं था, जो मैं उसे खिलाए बगैर खाता. मेरे इतने प्यार से इतनी देखभाल का नतीजा था कि कुछ ही दिनों में उसके पंख निकल आए और तीन-चार हफ्तों में ही वह हरे पंखों और लाल चोंच वाले सुंदर मिट्ठू में तब्दील हो गया. अब तो मेरी जान ही उसमें बसने लगी थी क्योंकि वह अपनी चोंच से मेरे साथ खेलने भी लगा था.
कुछ ही दिनों में मिट्ठू घर में सबका चहेता बन गया. यहां तक कि मेरे पिताजी भी कभी-कभी पिंजरे में अपनी नाक लगा उसकी चोंच का स्पर्श पाने की कोशिश करते. मुझे उनका हमारी ही तरह मिट्ठू के प्रति अपना प्यार दिखाते हुए उसका नाम ले-लेकर उससे संवाद की कोशिश करते देखना बहुत ही अनूठा दृश्य लगता था. जैसा कि तोतों को आमतौर पर पसंद होती हैं, मैं मिट्ठू को भी हरी मिर्च और चने की दाल भिगोकर देता था. उसके पिंजरे में एक पानी का छोटा-सा कटोरा हमेशा ही रहता. मेरे लाड़-प्यार ने मिट्ठू को थोड़ा बिगाड़ भी दिया क्योंकि वह कई बार मुझसे ही खाना खाता था. (My Childhood by Sundar Chand Thakur)
मैं उसे पिंजरे से निकालकर अपनी हथेली में दाने रखकर खिलाता. लेकिन जब वह बड़ा होने लगा, तो मैंने उसे पिंजरे से निकालना बंद कर दिया. मुझे डर था कि वह उड़ न जाए. वह मेरे जीवन का ऐसा अभिन्न हिस्सा बन चुका था कि मैं उसके बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकता था. लेकिन दूसरी ओर मुझे उसे कैद करके रखना भी अच्छा नहीं लगता था. वह प्यार भी कैसा प्यार जो अपने प्रेमी को कैद करके रखे. मैं खुद उसे उड़ते देखना चाहता था. मैं जानता था कि वह जब आकाश में दूसरे तोतों की तरह ट्वां-ट्वां करता उड़ेगा, तभी मेरे दिल में असली खुशी उतरेगी. मैं ऐसा सोचता पर अगले ही क्षण डर जाता. कहीं वह हमेशा के लिए उड़ गया तो?
कई दिनों तक मेरे भीतर उसे आजाद छोड़ने पर मिलने वाली खुशी और उसके उड़ जाने के डर को लेकर द्वंद्व चलता रहा. पर अंतत: एक दिन मैं साहस करके पिंजरे को लेकर अपनी छत पर गया. सर्दियों की नर्म धूप खिली हुई थी. मैंने मिट्ठू को पिंजरे से बाहर निकाला और अपने हाथ पर बैठा लिया. बाहर आकर वह बहुत उत्तेजित हो ट्वां-ट्वां करने लगा. लेकिन वह मेरे हाथ पर बैठा रहा. पता नहीं मिट्ठू को उड़ना आता भी है या नहीं, मैं संशय में था. कुछ ही देर में मैं उसे उड़ने को प्रोत्साहित कर रहा था. मेरे प्रोत्साहन पर उसने पंख फड़फड़ाकर एक छोटी-सी उड़ान भरी और छत के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच गया. मैंने उसके करीब पहुंच उसे फिर हाथों में उठा लिया. मैं अब भी उसे उड़ने को प्रोत्साहित कर रहा था.
उसने एक बार फिर पंख फड़फड़ाए और इस बार आसमान में थोड़ा और ऊपर जाकर वापस मेरे पास लौट आया. मेरी खुशी का कोई ठिकाना न था. इससे अच्छी बात क्या हो सकती थी कि मिट्ठू उड़े और उड़कर वापस मेरे ही पास लौट आए. ऐसा तो सिर्फ कहानियों में होता था. लेकिन मेरी खुशी जल्दी ही गहरे दुख में तब्दील होने वाली थी. मिट्ठू ने जो छोटी-सी उड़ान भरी थी, वह खुद पर भरोसा करने के लिए की थी कि वह उड़ सकता है. एक बार जब अपने परों पर उसे यकीन हो गया, तो उसने ऐसी उड़ान भरी कि मेरे देखते-देखते करीब पचास मीटर दूर विशालकाय नीम के पेड़ की सबसे ऊपरी फुनगी पर जा बैठा. मैं छत से उतरकर पेड़ की ओर ये भागा, वो भागा. मेरे हाथों से जैसे तोता नहीं मेरी जान निकल गई हो. मैं मिट्ठू-मिट्ठू चिल्लाते हुए बेतहाशा दौड़ रहा था. पेड़ के नीचे पहुंच भी मैं मिट्ठू-मिट्ठू चिल्लाता रहा.
मैंने तोते की लाश को तो दफ्न कर दिया, पर उसे मारने का अपराध बोध जिंदा रहा
और उस वक्त मेरी खुशी का ठिकाना न रहा जब मेरे मिट्ठू-मिट्ठू के जवाब में मिट्ठू ने ऊपर से ट्वां-ट्वां किया. मैं हजारों तोतों के बीच भी उसकी आवाज पहचान सकता था. वह बहुत देर तक मेरी आवाज के जवाब में ट्वां-ट्वां करता रहा. अब शाम घिरने लगी थी. मुझे डर यह था कि कहीं रात हो गई और मिट्ठू न लौटा तो बाहर कैसे रहेगा. मैंने सुना था कि जंगली तोते पालतू तोतों को अपने साथ नहीं रहने देते. मेरा डर सही साबित हुआ. मिट्ठू ने लगता था कि उस नीम के पेड़ से कहीं और उड़ान भर ली थी क्योंकि अब मुझे उसकी ट्वां-ट्वां नहीं सुनाई पड़ रही थी. मैं रात घिरने तक आसपास के इलाके में मिट्ठू-मिट्ठू चीखता हुआ भटकता रहा.
देर रात मेरी मां जबरन मुझे घर ले गई. घर में अवसाद से भरा हुआ सन्नाटा था. मां मुझे दिलासा देती रही कि बेटा यहीं कहीं होगा, कल मिल जाएगा. जाएगा कहां. पर दुख के मारे मेरे लिए हलक से खाना भीतर उतारना मुश्किल पड़ रहा था. मैं रात को मिट्ठू के दुख में सुबकते ही हुए ही नींद के आगोश में गया.
सुबह उठते ही सबसे पहले मैं कटोरे में भीगे चने लेकर छत की ओर भागा और मिट्ठू-मिट्ठू चिल्लाने लगा. मैं उत्साह में था क्योंकि मुझे लग रहा था कि रात भर खाने को कुछ न मिलने से मिट्ठू भूखा होगा और घर की ओर लौट आया होगा. पर मुझे कहीं उसकी आवाज नहीं सुनाई पड़ी. मैं घंटे भर तक बहुत आस के साथ उसका नाम पुकारता रहा, पर वह नहीं आया. तब मैं एक बार फिर आसपास के पेड़ों के नीचे जाकर उसका नाम लेने लगा. दोपहर तक उसका कोई पता नहीं चला. मेरी उम्मीद अब पस्त हो रही थी. दोपहर का भोजन करने के बाद एक बार फिर मैं छत पर चला गया.
अब तक आसपास के परिवारों में सबको मालूम चल चुका था कि सुंदर का मिट्ठू उड़ गया है. राजस्थान में दोपहर बहुत सूनी हुआ करती थीं क्योंकि तपती धूप में कोई बाहर नहीं निकलता था. मेरे लिए भी छत पर नंगे पैर खड़े होना भारी पड़ रहा था. पर मेरे लिए मिट्ठू के बिना जी पाना नामुमकिन था. मेरी आवाज क्षीण पड़ रही थी. लेकिन अचानक मेरी आवाज के जवाब में मुझे मिट्ठू की परिचित ट्वां-ट्वां सुनाई पड़ी. मैं अब खुली हथेली में मिट्ठू की पसंदीदा हरी मिर्च और भीगे हुए चने की दाल लिए और जोर से उसका नाम पुकारने लगा. जवाब में वह भी तेजी से ट्वां-ट्वां कर रहा था. उसकी आवाज में भी उत्साह उतर आया था. मैं आवाज की दिशा में नजर गड़ाए हुए था. आवाज नीम के पेड़ की ऊंची फुनगी से ही आ रही थी. और आखिरकार उसने फुनगी छोड़ मेरी ओर उड़ान भरी क्योंकि वह जैसे ही पेड़ से बाहर कूदा मैंने उसे देख लिया.
वह हजारों में एक जो था. अगले ही क्षण वह मेरे आगे बढ़े हुए हाथ पर आ बैठा और चने की दाल खाने लगा. उसके खाने का ढंग देखकर ही पता चल रहा था कि उसे भूख लगी थी. मैंने तुरंत उसे पकड़कर सबसे पहले पिंजरे के हवाले किया. मैं लगातार उससे सवाल क रहा था. तू मुझे छोड़कर क्यों गया मिट्ठू? बहुत गलत काम किया तूने. कोई ऐसे छोड़कर जाता है क्या? मेरी आवाज में शिकायत थी पर मन में बहुत इत्मीनान था. खुशी मेरी आंखों से छलकते हुए मेरे वजूद को सींच रही थी.
वो दिनभर किराए की साइकिल चलाना और बतौर कप्तान वो फुटबॉल मैच में मेरा अविश्वसनीय गोल
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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