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सुर्ख गालों पर तपिश लिए भरे बाजार जब मैंने अर्चना वर्मा को जीवन भर के लिए कहा गुडबाय

पहाड़ और मेरा जीवन – 31

अपनी सहपाठी अर्चना वर्मा के बारे में मैंने पहले भी जिक्र किया था और आज तो पूरी कथा ही उस पर लिख रहा हूं. इसके बाद मेरे पास उसके बारे में लिखने को कुछ और न रह जाएगा बशर्ते कि कहीं से वह मेरे लिखे इन शब्दों को पढ़कर जान ले कि बचपन की उस पवित्र उम्र में मेरे मन में उसके लिए कितनी कोमल भावनाएं थीं और ऐसा जानकर उसका दिल दर्द से भर न आए और वह मुझे खोज निकाले. जाहिर है ऐसा हुआ, तो उस अनुभव को आप लोगों के साथ मुझे साझा करना ही होगा. फिलहाल, मैं आपको वजह बताना चाहता हूं कि क्यों मेरे मन में उसके प्रति इतनी कोमल भावनाएं जागृत हुईं.

जो पाठक मेरे जीवन की इस कथा को शुरू से पढ़ रहे हैं, उन्हें याद होगा कि अर्चना वर्मा का पहला जिक्र तब आया था, जब मैं जम्मू में केंद्रीय विद्यालय में पढ़ रहा था. वहां मैं क्योंकि हमेशा ही नाले से मछलियां मारने में मशगूल रहता था और पिताजी को देखकर उनकी डांट खाने से बचने के लिए ही किताब खोलकर बैठता था, क्लास टेस्ट में मुझे हमेशा डबल अंडा ही मिलता था. सैद्धांतिक और तकनीकी रूप से तो एक ही अंडा यानी जीरो मिलना चाहिए लेकिन लगता है कि टीचर मेरे प्रदर्शन पर अपनी झुंझलाहट को नियंत्रित नहीं रख पाते हुए एक की जगह दो अंडे दे देता. अंडे ही तो थे.

जम्मू में ही एक बार एक टेस्ट में मेरे अच्छे नंबर आ गए. मुझे याद है उस टेस्ट में मैंने बगल में बैठी लड़की की कॉपी से नकल की थी. वह लड़की कोई और नहीं अर्चना वर्मा ही थी. हालांकि उस टेस्ट के नंबर स्वीकार नहीं किए गए. टीचर ने उलटा मेरी पिटाई कर दी. इतने टेस्टों में मुसलसल डबल जीरो लाने वाला किसी एक टेस्ट में अचानक दस में से पांच नंबर भी ले आए, तो जांच करने वाले को हैरानी होनी तय थी. चूंकि उस टेस्ट में अर्चना वर्मा ने मुझे अपनी कॉपी से नकल करने दी, इसलिए तभी से उसके प्रति मेरे मन में एक नाजुक कोना मुकर्रर हो गया. और संयोग देखो कि मैं परिवार के साथ जम्मू से पिथौरागढ़ गया, तो दो साल बाद अर्चना वर्मा भी वहीं पहुंच गई और फिर से वह मेरी सहपाठी बन गई. यहां तक तो ठीक था क्योंकि मैं उस उम्र में किसी के अपनी कॉपी से मुझे नकल करने देने के अहसान को ज्यादा दिनों तक तो याद रखने वाला नहीं था क्योंकि बचपन में नई जगह पर नए दोस्त बन जाते हैं, नए दिन की ताजा घटनाओं में पुराने दिन की घटनाएं गुम हो जाती हैं.

मैं पिथौरागढ़ जाकर जम्मू को वैसे भी भूल ही चुका था. मैं मिनी नायर के साथ स्कूल जाने, ठुलीगाड़ में नहाने, एमईएस कॉलोनी में खेलने और मां के हाथ के भोजन के साथ काली गाय के शुद्ध दूध की बनी दही, छांछ पीने के अप्रतिम सुख को भोगते हुए भला जम्मू को क्यों याद रखने वाला था. अर्चना वर्मा को मैंने कई दिनों तक तो पहचाना भी नहीं. लेकिन जब हमारी बात हुई और मुझे मालूम चला कि वह जम्मू से आई है, तो मुझे उसकी कॉपी से नकल वाली घटना याद आ गई. मुझे वह अच्छी लगने लगी. उसके चेहरे पर एक अजीब किस्म की सौम्यता थी, जो उसे दूसरों से अलग करती थी. जहां तक मुझे याद है, वह पांचवीं कक्षा के दिनों से ही आंखों का चश्मा पहनने लगी थी. कई दिनों तक अर्चना वर्मा के प्रति मेरा बर्ताव और भावनाएं बहुत सामान्य रहीं, जैसी कि किसी भी सहपाठी के प्रति होती हैं, लेकिन एक फिल्मी गाने ने कुछ ऐसा जादू किया कि रातोंरात सबकुछ बदल गया.

घटना उन दिनों की है जब मैं छठी में रहा हूंगा. छठी में तो था, पर मेरी उम्र कक्षा के अन्य बच्चों से दो साल ज्यादा थी. यानी मैं तेरह साल का रहा हूंगा. आजकल तेरह की उम्र में बच्चे सातवीं कक्षा में होते हैं. आप कक्षा के नजरिए से नहीं उम्र के नजरिए से चीजों को परखें. मैं उन दिनों बहुत फिल्में देखने लगा था. इस बारे में लिख ही चुका हूं कि कैसे मैं फौजी हॉल में अफसरों की पत्नियों के पीछे-पीछे उनके आंचल से सटकर अंदर घुस जाता था और मुफ्त में फिल्में देखता था. घर पहुंचकर मुझे जल्दी सोने की पड़ी रहती थी क्योंकि मैं नींद में फिल्म के दृश्यों से पुन: गुजरता था, हीरो की जगह खुद को प्रतिस्थापित करते हुए, खासकर उन दृश्यों में तो जरूर जिनमें मेरी पसंदीदा हीरोइन भी शामिल होती थी. यानी मैं उस उम्र से गुजर रहा था, जिसमें एक रुमानी दुनिया अपने किवाड़ खोलने की तैयारी करना शुरू कर रही होती है. उन दिनों बाकी केंद्रीय विद्यालयों की तरह ही हमारे स्कूल में भी यह चलन था कि हम खाली पीरियड में क्लास में अंताक्षरी खेलते थे.

अंताक्षरी में ज्यादातर तो लड़कों और लड़कियों के बीच प्रतिस्पर्धा होती थी, लेकिन कई बार मिलीजुली टीमें भी बनाई जाती थीं. ऐसी ही किसी अंताक्षरी में मैंने किसी गाने के बोल गाए और मेरे जवाब में लड़कियों की ओर से अर्चना वर्मा ने गाना गाया. उस गाने के बोल ऐसे थे कि मेरा ध्यान बरबस खींच ले गए. मैंने देखा कि अगले कई दिनों तक वह गाना मेरी जुबान पर चढ़ा रहा क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे अर्चना वर्मा ने अंताक्षरी के बहाने अप्रत्यक्ष रूप से मुझे अपने दिल की बात कही है. अब जरा उस गाने के बोल सुनें – हम तुमसे मिले, फिर जुदा हो गए, देखो फिर मिल गए, अब होंगे जुदा, फिर मिलें न मिलें, क्यों न ऐसा करें, मिल जाएं अभी, हम सदा के लिए. मैंने इन पंक्तियों के भावों को अपने और अर्चना के जीवन पर पूरी तरह से लागू होते देखा क्योंकि हम जम्मू में मिले थे और जुदा हो गए थे. जुदा होकर मैं पिथौरागढ़ आ गया था. पर दो साल बाद वह भी आ गई यानी हम जुदा होकर फिर मिल गए अब यहां से हम फिर जुदा हो सकते थे इसलिए अर्चना वर्मा गाने के जरिए मुझसे इल्तिजा कर रही थी कि हमें अब यहीं हमेशा के लिए मिल जाना चाहिए. मैंने न जाने कितनी बार इन पंक्तियों को मन ही मन दुहराया होगा और हर बार इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि लड़की है, दिल की बात सीधे-सीधे कह नहीं सकती तो उसने गाने का सहारा लिया. जाहिर है कि यह उन दिनों मुझ पर चढ़े फिल्मों का हीरो बनने के नशे के चलते था कि मैं ऐसा एकतरफा संबंध स्थापित कर रहा था. इस गाने के अलावा मैंने अर्चना वर्मा के अपने प्रति बर्ताव में कोई फर्क नहीं देखा, हालांकि मैंने उसके व्यवहार को बहुत ही बारीकी से जांचते हुए कोशिश जरूर भरपूर की थी कि कुछ ऐसा मिले जिससे मेरे मन का यह भ्रम भरोसा बन जाए कि उसके दिल में मेरे लिए खास जज्बात हैं. लेकिन कुछ नहीं मिला तो नहीं मिला. और उसके एक साल बाद मुझे शहर छोड़कर राजस्थान जाना पड़ा.

राजस्थान से मैं आठवीं पास करने के बाद फिर पिथौरागढ़ लौट आया. मगर मुझे केंद्रीय विद्यालय में दाखिला नहीं मिला. यह भी अपने में बहुत रोचक किस्सा है, जिसे मैं जरूर लिखूंगा. केंद्रीय विद्यालय में दाखिला नहीं मिला, तो मैं राजकीय इंटर कॉलेज यानी जीआईसी चला गया. वहां पढ़ते हुए मेरे नए दोस्त बने. हालांकि अब भी मैं कभी-कभी ठुलीगाड़ जाया करता था, लेकिन केंद्रीय विद्यालय अब पराया हो चुका था. पर शायद अर्चना वर्मा का खयाल दिमाग में कहीं न कहीं अब भी छिपा हुआ था क्योंकि एक रोज शाम को बाजार में सिलथाम से गुजरते हुए अचानक मेरी नजर अर्चना वर्मा पर पड़ी. वह अपनी मां के साथ घूम रही थी. जैसे ही उस पर नजर पड़ी दिल जोरों से धड़कने लगा. दिल ने एक आवाज लगाई, जा उससे एक बार मिल तो ले. फिर मिले न मिले कभी. जैसे ही मिलने का खयाल आया, दिल और जोर से धड़कने लगा और उसके बाद जैसे कुछ भी मेरे अख्तियार में नहीं रहा. मेरे पैर किसी सम्मोहन में उसकी ओर बढ़े. मैंने क्या बातें की मुझे याद नहीं पर यह याद है कि उसके करीब पहुंचने तक मेरा मुंह लाल हो चुका था. उस घबराहट भरी मन:स्थिति में मैं उसकी मां को नमस्कार कहना भी भूल गया और सीधे अर्चना से मुखातिब हुआ. उसने मुझे पहचान लिया. बातचीत शुरू करने से पहले मां को बताया कि मैं उसका स्कूल का सहपाठी हूं.

मेरी कनपट्टियों तक दिल के धड़कनों की धमक सुनाई पड़ रही थी. मैंने अर्चना से क्या बात की यह तो याद नहीं लेकिन यह जरूर याद है कि उसके बाद मैं बहुत देर तक इस सोच में डूबा रहा कि मुझे अर्चना से क्या-क्या बातें करनी चाहिए थीं. मैं ऐसा कहता, तो वह यह कहती, मैं वैसा कहता, तो वह ऐसा कहती. सिलथाम के चौराहे पर एक या दो मिनट की बातचीत के बाद वह अपनी मां के साथ ही रई गाड़ की ओर जा रही सड़क पर चल दी. मैंने कुछ दूर निकलने के बाद पीछे मुड़कर देखा. मुझे दूर मां-बेटी सूर्यास्त के बरक्स ढलान पर चलते नजर आए. मेरे मन में आया कि देखूं अर्चना वर्मा भी मेरी तरह पीछे मुड़कर देखती है या नहीं. मैं रुक गया. अब वे दोनों सड़क के उस छोर पर थे, जहां से वह मुड़कर गुम हो जाती थी. मैं अब भी शायद खुद को भ्रम में बनाए रखना चाहता था कि अर्चना वर्मा के मन में मेरे लिए कुछ खास था. शायद इसीलिए उन दोनों के सड़क के मोड़ से ओझल हो जाने से पहले ही मैंने मन ही मन उसे गुडबाय किया और पीछे मुड़कर चल दिया. अर्चना वर्मा ने ओझल होने से पहले मुड़कर मेरी ओर देखा या नहीं, मैंने पलटकर नहीं देखा.

पिछली कड़ी – और मां ने सिन्ने यानी बिच्छू घास से लाल कर दी मेरी टांगे

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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Girish Lohani

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