पहाड़ और मेरा जीवन –29
हमारे परिवार के जम्मू से ठूलीगाड़ आने की वजह पिताजी थे, जिन्होंने फौज में अफसर बनने के सात असफल प्रयासों के बाद अपना मानसिक संतुलन खो दिया था. पिथौरागढ़ में जब मां काली नामक गाय का दूध बेचकर और पिताजी की फौज से मिलने वाली पेंशन के बूते पर बच्चों की परवरिश कर रही थी, पिताजी ने कुछ समय बाजार में एक रेडियो की दुकान पर काम किया. फौज में पिताजी कोर ऑफ सिगनल्स में थे, जिनका मुख्य काम फौजियों को कम्युनिकेशन की सुविधा प्रदान करना होता है. पिताजी ने भले ही सिर्फ दसवीं पास की थी, पर फौज में रहते हुए उन्होंने बहुत पढ़ाई की.
मुझे बखूब याद है कि मैंने बी.एससी थर्ड इयर की परीक्षाओं के दौरान फिजिक्स का एग्जाम देते हुए पिताजी के ही रेडियो पर तैयार किए गए नोट्स से पढ़ाई की थी. पिताजी ने मगर कुछ ही महीनों में बाजार की दुकान वाली नौकरी छोड़ दी. अब तक लोग जानने लगे थे कि वे रेडियो ठीक कर देते हैं. धीरे-धीरे घर पर ही काम आने लगा. पिताजी को मैं सुबह से लेकर रात तक रेडियो पर काम करते हुए ही देखता. मुझे आज भी उनका अक्स याद है. अक्सर उन्होंने फौज से मिलने वाला सफेद रंग का तौलिया लपेटा हुआ होता और ऊपर बांह वाली बनियान पहनी होती. उनके हाथ में एक होल्डर रहता था, जिसकी गर्म नोक पर वह सिल्वर की तार गलाकर रेडियो के भीतरी पुर्जों में टांके लगाते थे. पिताजी रेडियो के काम में इतने मशगूल रहते कि घर के दूसरे कामों में उनका कोई योगदान न रहता. इसलिए मां उनपर यदा-कदा चिल्लाती रहती थी. चिल्लाने की एक वजह यह भी थी कि पिताजी भले ही दूसरों के रेडियो ठीक करते थे, पर इससे घर को चलाने में उनकी ओर से खास पैसा नहीं मिलता था. वे इतने शरीफ थे कि अपनी जेब से ही पैसा लगाकर रेडियो ठीक करते और पैसे मांगते भी नहीं.
खैर, जल्दी ही उन्हें सीआईएसएफ में नौकरी मिल गई. वे घर पर थे, तब भी मुझे घर के कामों में मां का हाथ बंटाना पड़ता था, उनके जाने के बाद तो मेरे पास बचने का कोई रास्ता न था. मैं छोटा था, पर अपने बड़े भाई से ज्यादा मर्दों वाले काम करता था. बड़ा भाई बचपन से ही बहुत नजाकत वाला इंसान रहा और वह आज भी वैसा ही है.
घर के कामों में एक काम ऐसा था जो शुरू में मुझे बहुत मुश्किल लगा- चक्की से गेहूं पिसाने का काम. मां फौजी किट बैग में दस-पंद्रह किलो गेहूं डाल देती. उसे मैं करीब डेढ़ किलरेमीटर दूर भड़कटिया की एक चक्की पर ले जाता. मुझे लगता है कि बचपन से मुझमें अहं बहुत कूट-कूटकर भरा था. जिस तरह बिष्ट सर द्वारा मेरी धुनाई कर सिर पर तीन-तीन गुमड़े निकाले जाने के बावजूद मैंने उफ तक नहीं की, लगभग वैसे ही मैं पंद्रह किलो का बोझ एक बार सिर पर उठा लेता, तो उसे मुकाम पर जाकर ही नीचे उतारता. इस चक्कर में मुझे कई बार सिर फटने का खतरनाक एहसास भी हुआ, लेकिन बोझ मैंने फिर भी नहीं उतारा. दिक्कत यह थी कि मेरा कद थोड़ा नाटा था. एक बार बोझ को उतारने के बाद उसे वापस सिर पर रखना भारी काम था. और मेरा ईगो ऐसा कि मैं किसी की मदद लेने को तैयार नहीं.
मुझे याद है कि एक बार जाने वह किट बैग सिर पर कैसे रखा हुआ था कि कनपट्टी पर कोई नस बहुत जोर से चसकने लगी. जब कभी मैं ऐसी घोर तकलीफ में घिरता तो सीधे भगवान का इम्तहान ले लेता. मैंने दर्द के बावजूद बैग को सिर से नीचे नहीं उतारा, बल्कि भगवान से मुखातिब होकर कहा कि अगर तू है तो अगले दस कदम में दर्द दूर हो जाना चाहिए. फिर मैं दस कदम गिनता और दसवें कदम पर भगवान का शुक्रिया अदा करता. दर्द भले ही कम नहीं होता, पर दस कदम तक सह लेने के बाद मुझमें उसे सहने की सामर्थ्य जरूर आ जाती.
लेकिन जैसे-जैसे मुझे सिर पर बोझ रखकर चलने का अनुभव और अभ्यास होता गया, वैसे-वैसे मेरी मुश्किलें भी कम होती गईं. ठुलीगाड़ से भड़कटिया जाते हुए एक जगह ऐसी आती है, जहां से अगर आप एक नाले के रास्ते से शॉर्टकट मारें, तो कम से कम तीन सौ मीटर का चलना बचा लेते हैं. लेकिन इस शॉर्टकट के लिए आपको जोखिम उठाना होता था क्योंकि नाल को पार करने के लिए कोई पुल नहीं था बल्कि उस पर एक बिजली का पोल और एक पेड़ का तना डाल दिया गया था. सिर पर बिना बोझ के तो फिर भी बिजली के पोल से संतुलन बनाकर आप नाला पार कर सकते थे, लेकिन बोझ लेकर संतुलन बनाना जोखिम का काम था. पर बचपन में मुझे जोखिम लेने में ही ज्यादा मजा आता था. बचपन में ओशो ने भी बहुत जोखिम लिए. बाद में वे एक अलग किस्म के आध्यात्मिक गुरू बने. यही देखकर सोचता हूं कि कहीं वैसे ही बीज तो मुझ में भी नहीं पड़े हुए. मैं जाते हुए और आते हुए भी बिजली के पोल पर संतुलन बनाते हुए आता.
मैं एक बार भी खुद को इस जोखिम का आनंद लेने से वंचित रखने का दुस्साहस नहीं कर पाया. अलबत्ता, उस डेढ़ किलोमीटर के सफर में मैं उसी पंद्रह-बीस मीटर की दूरी का इंतजार करता था क्योंकि वहीं पहुंच मेरे शरीर की एड्रनेलिन ग्रंथि खुलती थी. शुरू में मैं बहुत धीरे-धीरे नीचे बहते नाले पर नजर रखे हुए खंभे पर चलता था, पर बाद-बाद में मैं अपने लिए चुनौती और जोखिम बढ़ाता गया. मैं लगभग दौड़ते हुए उसे लांघता था. कई बार मैं बीच में जाकर खड़ा हो जाता और जब तक कोई दूसरा व्यक्ति उसी खंभे पर चलता हुआ आ नहीं जाता, मैं वहीं खड़ा रहता.
आज जब मुड़कर खुद को सिर पर पंद्रह किलो गेहूं लेकर उस खंभे पर संतुलन बनाकर चलते देखता हूं, तो उसका मनोविज्ञान मुझे समझ आता है. ऐसा नहीं था कि बोझ उठाने से मुझे तकलीफ नहीं होती थी, दर्द नहीं होता था. होता था. और मुझे वह बहुत बोझिल काम भी लगता था. लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था. मैं दर्द को बयां कर दर्द से बच नहीं सकता था. गेहूं पिसवाने जाना मुझे अपने परिवार के लिए इतना अनिवार्य लगता था कि उसके सामने बोझ उठाने से हुई तकलीफ अर्थहीन थी. मैं ज्यादा से ज्यादा इस तकलीफ से अपना ध्यान हटाने की कोशिश कर सकता था. मेरे खयाल से वह खंभे पर संतुलन बनाने का खेल तीन सौ मीटर की दूरी कम चलकर समय बचाने की मंशा से नहीं बल्कि एक चुनौती लेकर कुछ देर के लिए अपनी तकलीफ भूल जाने की मंशा से खेला जाता था. थोड़ा दारुण वाकया है, मनोवैज्ञानिक स्तर पर. पर ऐसा मुझे आज लग रहा है. जब खंभे पर चलता था, तो खंभे पर ही चल रहा होता था, पूरे ध्यान और उतने ही मजे से भरा हुआ.
पिछली कड़ी – बिना गलती के पड़ी जब मार, सिर पर निकले तीन-तीन ‘गुमड़े’
अगली कड़ी: और मां ने सिन्ने यानी बिच्छू घास से लाल कर दी मेरी टांगे
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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