पहाड़ और मेरा जीवन – 22
(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)
मेरी कक्षा में सेना के अफसरों के कई बच्चे पढ़ते थे. उन बच्चों के साथ कई किस्से हैं जो मुझे कभी भूलते नहीं. संजू वडके पांचवीं से सातवीं तक मेरा सहपाठी था. मैं अपनी कक्षा में मेधावी छात्रों में गिना जाने लगा था, पर मैं खुरापाती भी बहुत था. हालांकि छठी में मुझे क्लास का मोनिटर बना दिया गया था, जिसकी वजह से मुझे हमेशा शराफत का आवरण ओढ़े रहना पड़ता था. संजू सेना के मेजर का बेटा था और अफसरों वाली कॉलोनी में रहता था. उसने अपनी दोस्ती के जरिए मुझे बहुत से सुख दिए. मैंने अगर जीवन में पहली बार अंदर से जाकर अफसरों का घर देखा, तो वह संजू की वजह से था क्योंकि वही एक दिन मुझे अपने घर ले गया था. एक बार उसने मुझे एक बड़े बॉक्सिंग टूर्नामेंट में अपने साथ यानी अफसरों वाली जगह पर सोफे में बैठाकर फाइट दिखाई थी. पिथौरागढ़ में सेना की कई बटालियनें रहती थीं और उनके बीच बॉक्सिंग, फुटबॉल आदि के टूर्नामेंट होते रहते थे, जिन्हें देखने को मैं मरा रहता था. संजु मेरी उस भूख को शांत करने में मदद करता. पिथौरागढ़ में उन दिनों सिर्फ दो ही सिनेमाहॉल थे. एक शहर में था, जहां फिल्म देखने के पैसे लगते थे और एक फौजियों का जहां मैं मुफ्त में फिल्में देखता था, हालांकि यह बहुत जोखिम भरा काम होता था.
हुआ यह कि एक बार संजु के माता-पिता जब उसके साथ फिल्म देखने नहीं जा पा रहे थे, उसने मुझे साथ चलने का निमंत्रण दिया. भड़कटिया गांव से थोड़ा आगे जाकर ऊपर की ओर एक सड़क जाती है, जहां सेना के एक बैरक को फिल्म दिखाने के लिए हॉल जैसा बना दिया गया था. अंदर बीच में अफसरों के परिवारों के लिए खास सीटें लगी हुई थीं जबकि दोनों ओर जवानों और सूबेदारों के परिवार बैठते थे. मैंने संजु के साथ अफसरों वाली सीट पर बैठकर बहुत टशन से फिल्म देखी. मैं बता ही चुका हूं आप लोगों को कि मैं फिल्मों का कितना दीवाना था. भाई के पत्थर खाकर भी दिल्ली में टीवी पर फिल्में देखने जाया करता था. जम्मू में रहते हुए भी एक बार एक प्राइवेट हॉल में मां और हमारे पड़ोस में रहने वाली आंटी के साथ मैंने एक फिल्म देखी थी, जिसका नाम था परवरिश. अमिताभ बच्चन और शशि कपूर हीरो थे, जबकि नीतू सिंह और शबाना आजमी हीरोइनें.
आज भी मुझे इस फिल्म के दृश्य याद हैं और यह वाकया भी कि लौटते हुए जब हम बस में चढ़ रहे थे तो मां ने एक पैर पायदान पर रखा ही था कि बस चल पड़ी. कुछ दूरी तक वह घिसटती गई. लोगों ने चिल्लाकर बस रुकवाई. मैं जब याद करता हूं उस घटना को तो पाता हूं कि मां के यूं घिसटने को लेकर मैं बहुत भयभीत नहीं हुआ क्योंकि घटना के वक्त भी मेरा सारा ध्यान फिल्म में था. मैं उसके दृश्यों को दिमाग में जी रहा था. संजु वडके के साथ पिथौरागढ़ कैंट के उस फौजी हॉल में मैंने कौन-सी फिल्म देखी, यह याद नहीं, लेकिन बाद में मैं संजु वडके के बिना भी वहां फिल्में देखने जाने लगा था. यह जोखिम का काम था लेकिन वे बचपन के दिन थे. जोखिम से ही जिंदगी में रवानी बनती थी. उस फौजी हॉल में अकेले मुफ्त में फिल्म देखने के लिए मुझे बहुत जुगत भिड़ाने पड़ती थी. सबसे पहली चुनौती ही बहुत बड़ी हुआ करती थी- अच्छे कपड़े पहनने की. अगर आपने कपड़े अच्छे पहने हैं, तो हॉल के गेट पर जो सीएमपी यानी मिलिट्री पुलिस का सिपाही खड़ा रहता है, वह आपको अफसर का बच्चा समझ अंदर जाने देता है. मेरे पास सामान्य कपड़े तक नहीं थे, तो अच्छे कपड़ों की क्या बात करें. मैं रात में ही कोई धुली हुई नेकर करीने से फोल्ड करके अपने तकिए के नीचे रख लेता, ताकि सुबह तक उसकी सलवटें कम हो जाएं क्योंकि प्रेस करवाने का ऐश्वर्य तब मेरे नसीब में न था. नेकर से ज्यादा बड़ी मुसीबत कमीज थी क्योंकि नेकर को तकिए के नीचे दबा फिर भी उसकी सलवटें कम हो जातीं लेकिन कमीज का क्या वह तो बुरी तरह कुचमुचाई हुई होती थी. अक्सर मैं कुचमुचाई हुई कमीज के ऊपर स्वेटर पहन लेता था, ताकि कमीज दिखे न. लेकिन असली चुनौती हॉल में पहुंचने के बाद शुरू होती थी.
कपड़े मैं कैसे भी पहन लेता लेकिन शक्ल का क्या कर सकता था. अक्सर तो मेरी नाक बह रही होती थी. अगर वह बह नहीं होती थी, तो सूखी हुई दिख रही होती थी. कक्षा छह तक मुझे मां नहलाया करती थी. मुझे सबसे ज्यादा परेशानी तब होती जब वह आखिर में मुंह साफ करती थी क्योंकि ऐसा करते हुए वह सूखी हुई नाक को भी अच्छी तरह साफ करने के यत्न में वहां इतनी जोर से रगड़ती थी कि मैं दर्द से कराहने लगता. जिन लोगों को बचपन में नाक बहने का अनुभव है, वे संभवत: इस तथ्य को बेहतर समझ पाएंगे कि होंठों और नाक के बीच के उस क्षेत्र में जहां दो धाराओं के सूख जाने बाद बचे हुए अवशेष का नामोनिशां मिटा देने की मंशा से जब हम खुद अपने हाथ से भी सफेद रंग के उन जिद्दी कणों को साफ करने की कोशिश करते थे, कितने दर्द में बिलबिलाते थे.
हॉल के बाहर पहुंचकर मुझे कुछ देर इंतजार करना पड़ता कि किसी अफसर का परिवार आए तो उनके साथ निकल लूं अंदर. अमूमन मैं एक ही बच्चे वाले परिवार की ताड़ में रहता ताकि सीएमपी के सिपाही को लगे कि मैं परिवार की दूसरी संतान हूं. जैसे ही अफसर साहब, उनकी पत्नी और बच्चा गाड़ी से उतरकर हॉल के गेट की ओर कदम बढ़ाते, मैं उनके पीछे कुछ दूरी बनाकर चलने लगता और गेट के पास पहुंचकर उनसे थोड़ा सट जाता. अब सीएमपी की हालत यह होती कि उसे अगर मेरी शक्ल पर नाक के अवशेष दिख भी जाते रहे होंगे, तो भी वह इतना बड़ा जोखिम नहीं ले सकता था कि अफसर और उसकी पत्नी से पूछे कि क्या मैं उनकी ही औलाद था. वह मुझे जाने देता. अंदर पहुंच मैं धीरे से एक ओर कट लेता. लेकिन फिल्म शुरू होने के पहले तक मेरी नजर मुसलसल सीएमपी के सिपाहियों पर बनी रहती क्योंकि वे कई बार अंदर भी चैकिंग करने आते थे. जब भी वे अंदर चैकिंग करने आते मैं इधर से उधर और उधर से इधर होकर खुद को उनकी नजर में आने से बचाता. एक बार फिल्म शुरू हो जाती, तो मेरा पकड़े जाने का डर भी चला जाता क्योंकि अंदर अंधेरा हो जाता था और वहां अफसर भी फिल्म देख रहे होते थे, इसलिए भी कोई सीएमपी वाला बीच में अंदर आ कोई विघ्न पैदा करने की हिमाकत नहीं कर सकता था.
मैंने फौज के उस हॉल में कई फिल्में देखीं. फिल्में देखने के बाद मेरा मन करता था कि किसी तरह घर पहुंचकर सो जाऊं क्योंकि सोने के बाद मैं खुद को हीरो के अवतार में देखने का सुख भोग सकता था. मैंने वहां कितनी फिल्में देखीं याद नहीं पर यह जरूर है कि सीएमपी की पकड़ में कभी नहीं आया.
(जारी)
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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