पहाड़ और मेरा जीवन – 19
ठुलीगाड़ के पास जो जौं की ताल है, जो इन दिनों चौबीस पहर सन्नाटे में डूबी रहती है, वहां कभी बेहिसाब चहलपहल रहा करती थी. मैं पहले बता चुका हूं कि कैसे उस ताल में मैंने ठीक से तैरना सीखा. जौं की ताल के मेरे पास कई किस्से हैं. एक किस्सा तो ऐसा है जिसकी स्मृति मेरे शरीर पर दर्ज है. होता यह था कि मुझे फुर्सत के पल मिलते ही मैं जौं की ताल पहुंच जाता. एक बार जब मैं अकेला वहां पहुंचा, तो वहां पहले से ही टंपरेरी को बैठे देखा.
जी हां टंपरेरी उसका नाम ही था. असली नाम क्या था पता नहीं पर मैं और दूसरे दोस्त उसे टंपरेरी ही पुकारते थे. उन दिनों हैलीपैड के नीचे स्थित आर्मी की कैंटीन वाले कॉम्प्लेक्स के दाहिनी ओर करीब सौ मीटर की दूरी पर लकड़ी का एक बहुत बड़ा घर हुआ करता था, जो आज भी है, जिसमें केंद्रीय विद्यालय में मेरे से एक क्लास सीनियर अशरफ भी रहता था. क्योंकि टंपरेरी भी इसी घर में रहता था तो मुझे तब लगता था कि अशरफ और टंपरेरी दोनों भाई हैं, लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते गए दोनों में इतना फर्क बढ़ता गया कि बाद में उनका भाई लगना बंद हो गया. अशरफ उम्र के साथ हम सभी में सबसे ज्यादा तंदुरुस्त और स्मार्ट बनकर निखरा, जबकि टंपरेरी थोड़ा पतला-दुबला और कमजोर ही रहा.
अशरफ के व्यक्तित्व को लेकर मैं बहुत औचक रहता था. वह स्कूल के सालाना खेलों में कई दौड़ों में इनाम पाता. बाद में मैंने सुना कि वह फौज में चला गया और फिर कई सालों बाद जब मैं खुद फौज में था किसी ने उसके देहांत की भी खबर दी. पता नहीं वह सही थी कि गलत. मुझे बताया गया कि उसे दिल की कोई बीमारी हो गई थी. टंपरेरी रहता तो अशरफ वाले घर में ही था, पर वह क्या करता था, कहां पढ़ता था, मुझे इसकी कोई जानकारी न थी. यह था कि वह क्रिकेट से लेकर कबड्डी तक हर खेल खेलने के लिए हमारे बीच उपलब्ध रहता और चूंकि हमारे पास खेलने के लिए हमेशा खिलाड़ियों की कमी रहती थी, इसलिए अक्सर टंपरेरी हमारे साथ ही खेल रहा होता था.
मुझे याद आता है कि एक बार उससे किसी बात पर मेरा झगड़ा हो गया. उन दिनों लड़ाई का मतलब होता था कि किसी तरह दूसरे की गर्दन अपने दाहिने हाथ के फंदे में फंसा लो और उसके बाद फंदे को कसते रहो. उस दिन टंपरेरी की गर्दन मेंरे हाथ के फंदे में फंस गई. मैंने बहुत देर तक उस गर्दन पर फंदा कसने का और ऐसा करते हुए टंपरेरी के गालों के लाल होने व उसके मुंह से निकल रही बकरे जैसी आवाज का मजा लिया. अंत में जब मैंने उसकी गर्दन फंदे से मुक्त की, तो वह फुंफकारता हुआ जमीन पर झुका और अगले ही क्षण उसके हाथ में एक बड़ी-सी ईंट थी. उसने एक क्षण खोए बिना वह ईंट मेरी ओर तान कर फेंक दी. पर उस रोज जाने मुझ पर कौन-सा देवता सवार था.
मैं बेहिसाब फुर्ती के साथ एक ओर हो गया और ईंट बिना अपना लक्ष्य संधान किए जमीन पर जा गिरी. इससे पहले कि टंपरेरी दूसरा कोई पत्थर उठाकर मेरी ओर तानता मैं मौके की नजाकत देखते हुए तुरंत भाग लिया. पीछे से मुझे टंपरेरी की लाटी आवाज सुनाई पड़ी – छाले कहां भाग लिया. ब..छो.. छोलूंगा नहीं..घल से बाहल खीचकर मालूंगा कुत्ते के पिल्ले को…वह जाने कब तक मुझपर शब्दों के तीर चलाता रहा. मैं जल्दी ही उसकी आवाज की जद से भी बाहर चला गया. हालांकि जल्दी ही हम दुबारा मिले. पर टंपरेरी मुझे कुछ न बोला. हम फिर से पुराने जैसे दोस्त हो गए.
उस रोज जबकि मैं अकेला जौ की ताल में उतरा हुआ था, टंपरेरी वहीं बैठा धूप सेक रहा था. पता नहीं कब उसने एक सिगरेट सुलगा ली. उसने सिगरेट जला मुझे आवाज लगाई. मैं पास गया तो बोला, अबे छुंदर, आंख से धुआं निकालकर दिखाऊं क्या. आंख से कैसे धुआं निकल सकता है. मैंने सोचा और जिज्ञासा में उसके करीब चला गया. उसने मुझे और करीब आकर ध्यान से आंख में देखने को कहा.
मैंने अपनी नजर को उसकी आंखों पर फोकस कर दिया कि कहीं जरा-सा धुआं निकले और मुझे दिखाई न पड़े क्योंकि मेरे हिसाब से धुआं तो जरा-सा ही निकलना था. इधर मेरा ध्यान उसकी आंखों पर संकेद्रित था कि धुआं अब निकला कि तब निकला उधर उसने कब जलती हुई सिगरेट मेरे हाथ से सटा दी मुझे पता ही नहीं चला. जैसे ही मुझे हाथ में जलन हुई मैं बिलबिलाता हुआ उछला. इधर मैं उछला और उधर टंपरेरी अपनी जनाना आवाज में जोर की हंसा. इस तरह शिकार को उछलते देखने के लिए ही तो सारा ड्रामा किया था उसने. मैं उससे उम्र और कद में छोटा था, शायद इसलिए भी वह मेरे साथ यह मजाक कर गया, नहीं तो इसमें मार खाने के पूरे चांस थे क्योंकि त्वचा के जलने से तुरंत ही उस पर बड़ा-सा फफोला निकल आया था.
पर क्योंकि टंपरेरी अभावों के बीच बहुत सख्त किस्म का जीवन जीने का आदी था, संभवत: उसके लिए हाथ की त्वचा पर बित्ते भर का फफोला हो जाना बड़ी बात न रही हो. ऐसा ही कोई मनोविज्ञान रहा होगा, जिसने उससे ऐसी करतूत करवाई. वह फफोला तो फूटकर गायब हो गया, पर टंपरेरी के इस कारनामे की याद मैं अपने हाथ पर आज भी लिए घूम रहा हूं.
उस जौ की ताल के पास समय बिताने के लिए हमने क्या नहीं किया. कासनी गांव के लड़के वहां सामने-सामने ही केकड़े पकड़कर उन्हें आग में पोल कर (पका कर) खा जाते थे. लड़के वहां सिगरेट-बीड़ी भी पीते थे. पर मेरे में तब बचपन की बहुत मासूमियत भरी हुई थी. बिगड़ने में मुझे अभी बहुत समय लगना था. हालांकि एक बार जरूर मैंने भी संगति के असर में आकर नवीं-दसवीं में कभी गांव में अपने ताऊजी के बेटे के सान्निध्य में बीड़ी फूंकी, पर केकड़े आग में पोल कर तो कभी नहीं खाए. टंपरेरी से कभी मुलाकात होगी या नहीं, उसके बारे में लिखते हुए मुझे याद आ रहा है कि मेरे हाथ पर जलती सिगरेट लगाने के बाद मुझे उछलता देख वह कितना खुश हुआ था. उसकी हंसी में जीवन और दोस्ती का इतना ताप था कि मैंने भी उस पर गुस्सा न किया और आज भी उसके दिए निशान को देख यह सब लिखते हुए मुझे गुस्सा नहीं हंसी ही आ रही है.
जब मां के प्रति नाइंसाफी का बदला लेने के लिए मैंने दूध में पानी मिलाया
(जारी)
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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