(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)
जैसा कि मैं आपको बता ही चुका हूं कि पिथौरागढ़ में पिता की बेरोजगारी के चलते मां को ही परिवार चलाने की जुगत करनी पड़ती थी. उसने हमारी मौसी से एक काले रंग की गाय खरीद ली थी ताकि घर की दूध की जरूरत पूरी हो और थोड़ा बहुत पैसा भी कमाया जा सके.
उन दिनों गाय चार सौ रुपये में मिली थी. मां गाय की भरपूर सेवा करती. उसके लिए सिन्ने के पत्तों यानी बिच्छू घास का दलिया बनता.
सिन्ने के पेड़ से तो हर पहाड़ी परिचित ही होता है. नहीं होता तो उसे परिचित करवा दिया जाता है जैसे बड़े भाई ने पहली बार मेरा परिचय करवाया था. मुझे वह परिचय नहीं भूलता. एक सुबह जबकि धूप खिली हुई थी और मैं कहीं खेलने निकलने ही वाला था बड़ा भाई धूप में बोरा बिछा बैठ कोई किताब पढ़ रहा था. मुझे जाता देख वह उठ गया और उसने मुझे अपने पास बुलाया.
सामान्यत: उसे मुझसे कोई सरोकार नहीं रहता था और में उसके बहुत कम काम आता था. इसलिए उसने बुलाया तो मैं उत्सुकतावश उसके पास गया. वह उठकर एक झाड़ी के पास खड़ा हो गया. मैं पास पहुंचा तो उसने उसके पत्ते की ओर इशारा करते हुए कहा- जरा इसे छूकर दिखा.
किसी झाड़ी के पत्ते को छूना कौन-सी बड़ी बात है. मुझे यह बहुत हल्का काम लगा और मैंने बिना सोचे पत्ते को हथेली में दबा दिया. पर अगले ही क्षण जैसे मेरी पूरी हथेली में कई सुइयां चुभने लगी हों. दर्द के मारे मैं बिलबिला उठा. इधर मैं दर्द में बिलबिला रहा था और उधर भाई पेट पकड़कर हंस रहा था.
सिन्ने के पत्तों से मेरा ऐसा एक और बार साबका हुआ था, पर वह किस्सा बाद में. अभी मैं आपको अपनी सहपाठी मिनी नायर से जुड़ा एक किस्सा बताना चाहूंगा.
जैसा कि नाम से ही अंदाज लगाया जा सकता है मिनी नायर कद में भी थोड़ी छोटी लड़की थी, जो चौथी कक्षा में मेरे ही साथ पढ़ती थी. उसके पिताजी एमईएस में ही नौकरी करते थे. उनका परिवार, सिंगल्स क्वॉर्टर्स, जो कि एमईएस कॉलोनी के लगभग एक छोर पर बने हुए थे, में रहता था.
मिनी और मैं अक्सर सुबह स्कूल जाते वक्त मिल जाते थे. उन दिनों स्कूल नजदीक ही था और साथ में पैदल चलने को बमुश्किल तीन सौ मीटर की दूरी ही मिल पाती थी. लेकिन जल्दी ही स्कूल एक नई इमारत में शिफ्ट हो गया. अब मिनी और मैं ज्यादा दूरी तक साथ-साथ चलते. इस तरह साथ-साथ चलते हुए हम अच्छे दोस्त भी बन गए.
उस उम्र में कक्षा का हर बच्चा ही दोस्त होता है, पर मिनी के प्रति मैं अपने मन में थोड़े नाजुक जज्बात महसूस करने लगा था. ऐसे ही जज्बात की गिरफ्त में आकर शायद मैं अपने पहनावे से उसे इंप्रेस करने की भी कोशिश करता.
हमारे स्कूल की यूनिफॉर्म के रूप में हम नीले रंग की पैंट और सफेद कमीज पहनते थे. सर्दियों में कमीज के ऊपर नीली स्वेटर और ज्यादा ठंड होने पर स्वेटर के ऊपर ब्लेजर या कोट पहना जा सकता था. उन दिनों मेरे पास न जाने कहां से एक काले रंग का कॉटरॉय का कोट आ गया था, जिसे पहनकर मैं खुद को किसी नवाब से कम नहीं समझता था.
उस उम्र में भी दबंग दिखने भर के लिए मैं उस कोट की आस्तीन थोड़ी चढ़ाकर रखता था. एक बार साथ चलते हुए मिनी ने उस कोट की कुछ तो तारीफ कर दी. फिर क्या था, जब तक उसके रेशे-रेशे अलग नहीं हुए मैंने तब तक वह कोट पहना. जब तक मिनी नायर साथ पढ़ती थी, तब तक उसके लिए और उसके चले जाने के बाद उसे याद करने के लिए.
उसे याद करने के लिए मेरी स्मृति में बहुत ज्यादा किस्से नहीं, पर एक घटना है, जो कभी नहीं भूली- एक बार अनजाने उसके घर जाने की घटना. मेरा उसके घर जाने का कोई औचित्य न था. पर ईश्वर ने जब उसे मेरी स्मृति में रखने का फैसला कर ही लिया था, तो कोई क्या कर सकता था.
क्योंकि मां काली गाय की सेवा के लिए बहुत मेहनत करती थी, मैं हमेशा मां की मदद करने के उपाय सोचता रहता. मुझे नए-नए काम करने में मजा भी आता था.
एक दिन जब मां काली गाय के लिए आसपास कहीं से हरी घास काटने का मन बना रही थी, मैंने मां से कहा कि आज मैं घास काटने जाऊंगा. उन दिनों ठुलीगाड़ के दोनों ओर सरकारी जमीन पर बरसात के बाद उगी घास को कोई भी काट सकता था.
बाद में तो एमईएस ने इस घास की भी नीलामी शुरू कर दी थी. मुझे घास काटने का अनुभव नहीं था, पर मैंने इससे पहले भी इस काम में मां की मदद की थी. मां ने मना किया पर मेरी जिद के आगे उसकी न चली. उसे दूसरे भी बहुत से काम करने थे.
मैंने ऊपर वाले घर से मेरी ही कक्षा में पढ़ रही रेनू को आवाज लगाई और बताया कि मैं घास काटने जा रहा हूं. मैं जानता था कि वह ‘अरे सुंदर, रुक मैं भी आती हूं’ कहेगी और मेरे पीछे चली आएगी. वह आ भी गई.
हम ठूलीगाड़ के साथ-साथ आगे बढ़ना शुरू हुए. जहां बड़ी-बड़ी हरी घास दिखती वहां हम रुक जाते. मैं मां और काली गाय दोनों के आगे एकदम मुलायम हरी घास डालकर उन्हें हैरान कर देना चाहता था. हरी घास खोजते-खोजते कब हम एमईएस के सिंगल्स क्वार्टस के सामने की ढलान पर पहुंच गए, पता ही नहीं चला.
मैं थोड़ा सुस्ताने के लिए ढलान लांघकर समतल तक पहुंचा तो मैंने पाया कि मैं ठीक मिनी नायर के घर के प्रांगण के आगे पहुंच गया हूं. वह वहीं कुर्सी पर बैठी हुई कुछ खा रही थी. उसे पहचानते ही मैंने सबसे पहले अपनी पीठ पर बांधा हुआ डोका नीचे कर दिया ताकि वह देख न सके.
रेनू आदतन मेरे पीछे-पीछे आ रही थी. मैंने उसकी ओर इशारा किया कि वापस चलते हैं, पर तब तक देर हो चुकी थी. मैंने मिनी की आवाज सुनी – अरे सुंदर! अब उस ढलान में अगर मैं पीठ पर बंधा डोका उतार देता, तो उसके लुढ़कने का भी खतरा था. वह लुढ़क कर सीधे गाड़ के पानी में गिरता. मेरे पास उसे पीठ पर बांधे ही ऊपर जाने के सिवाय कोई चारा न था.
इतने में मिनी की मां भी बाहर आ गई. वह भी मुझे पहचानती थी. मिनी मुझे देखते ही दौड़कर मेरी ओर आई और मुझे उस तरह पीठ पर डोका बांध हाथ में आंसी (दराती) लिए देख हंसने लगी. अब कुछ नहीं किया जा सकता था. मैं शरम और लिहाज को छोड़ अब ऊपर समतल में आ गया. पीछे-पीछे रेनू भी आ गई.
मिनी की मां ने हमें अपने घर के अंदर बुलाया. हमने अपने डोके पीठ से उतारकर बाहर प्रांगण में रख दिए थे. चूंकि हम तब गांव के घरों जैसे पत्थर के घर में रहते थे, हमें एमईएस का हर घर बड़े साहब के घरों जैसा लगता था. इसलिए रेनू और मैं दोनों मिनी के घर में भी लगभग सावधान की मुद्रा में पीठ को सीधा रखकर सकुचाहट से भरे बैठे हुए थे.
मिनी की मां ने हमें बहुत प्यार से इडली सांभर खिलाया. नारियल की चटनी भी थी साथ में. मैं लगभग हर वक्त भूख से भरा रहता था. लिहाजा मुझे वह इडली-सांभर बहुत स्वादिष्ट लगा. मिनी इस बात को लेकर बहुत खुश था कि मैं इस तरह उसके घर इडली खा रहा था. वह मुझे खाते देखती रही. इडली खाकर हम जल्दी ही वहां से चले गए.
लौटते हुए रेनू ने मुझे टोका कि मैं बहुत सारी इडली खा गया था. वह नहीं जानती थी कि इडली खाने से ज्यादा अच्छा मुझे यह लग रहा था कि मिनी मुझे यूं खाता देख खुश हो रही थी. खा मैं रहा था और सुकून मिनी के चेहरे पर था.
एक तरह से मिनी के घर में यूं इडली खाना मनोवैज्ञानिक रूप से मेरे जीवन की एक बहुत अहम घटना होने वाली थी क्योंकि उसने मुझमें यह आत्मविश्वास भरा कि गांव वाले पत्थर के घर में रहने वाले गरीब परिवार का होने के बावजूद एमईएस के बड़े लोगों के घरों में रहने वाली मिनी की नजर में मैं इतना अहम था कि उसकी मां ने हमें घर के भीतर बैठाकर इतने प्यार से इतनी सारी इडली खिलाई.
हो सकता है कि इस घटना ने मेरा खुद पर जो भरोसा जगाया, बाद में बड़ा होने पर इलाहाबाद में सेना में अफसर बनने के लिए एसएसबी का इंटरव्यू देते वक्त उसी आत्मविश्वास का कोई अंश ही रहा हो, जिसे इंटरव्यू करने वालों ने देख लिया हो और यही मेरे पचपन उम्मीदवारों में से दो सफल प्रत्याशियों के रूप में चुन लिए जाने का आधार बना हो.
मामला मनोवैज्ञानिक है. कुछ तो था मिनी नायर के वजूद में ऐसा जिसने मुझे उसे आज तक भूलने नहीं दिया है.
वो कॉर्क की बॉल, पत्थर के विकेट, वो लकड़ी का बैट और वह छक्का
(जारी)
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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