ऐसे डरपोक सिनेमा संसार में जहां नायक का नाम तक ऐसा रखा जाता हो, जिस पर विवाद की गुंजाइश न हो, जिससे बहुसंख्यक वर्ग ही रिलेट करता हो, इतनी मुखर पॉलिटिकल फिल्म बनाना जो धर्म को जेरे बहस लाती हो, बेहद साहस का काम है. बनारस जैसे शहर को हिंदू, मुस्लिम और आंतकवाद के राजनीतिक संदर्भों की कहानी का घटना स्थल बनाना इसलिए भी अर्थपूर्ण है कि देश के प्रधानमंत्री वहां से सांसद चुनकर गए हैं. हां जी, मैं आपसे हाल ही आई फिल्म ‘मुल्क’ की बात कर रहा हूं.
‘मुल्क’ जिस तरह से अपनी बात कहती है, वह अदायगी बेहद निर्भय है, निर्देशक ने सीधे सीधे खतरा मोल लिया है. रिषी कपूर के रूप में मुराद मोहम्मद का किरदार आम भारतीय मुसलमान के गर्व, खुशियां, तकलीफें, रंजोगम और डर का कोलाज है, उस किरदार की महीन बुनावट फिल्म को उस मकाम तब ले जाती है बतौर लेखक अनुभव सिन्हा ने जिसे सोचकर इस फिल्म को कंसीव किया होगा.
अनुभव सिन्हा ने टीवी सीरियल्स और टीसीरिज के म्यूजिक विडियोज से अपने करिअर की शुरूआत की थी, फिर युवा दिलों के लिए ‘तुम बिन’ जैसा रोमांटिक सिनेमा, फिर कई मास एंटरटेनर जैसे ‘दस’ या ‘साई-फाई’ ‘रा-वन’, वे अब राजनीतिक सिनेमा लेकर आए हैं, एक आर्टिस्ट के तौर पर इसे लगातार खुद को चुनौती देने वाला दुस्साहसी अभियान कहा जा सकता है. मुझे लगता है कि गुलाब गैंग बनाते हुए ही वे सिनेमा निर्माण के अपने कंसर्न के अलग वितान पर आ गए थे, यह निश्चित रूप से सुखद, सफल और सार्थक प्रस्थान बिंदु था.
मुश्ताक अहमद युसुफी नाम के एक आदमी का जन्म आजादी से पहले राजस्थान के टोंक शहर में हुआ, बंटवारे के वक्त उनका परिवार पाकिस्तान चला गया, उर्दू अदब में उनकी बहुत इज्जत है, वे व्यंग्य लेखक के तौर पर बेहद मशहूर हुए हैं. उनका हाल ही इंतकाल हो गया था. धर्म के विरोधाभासों का करुणा और व्यंग्य के साथ उनके लेखन में जो बेबाक बयान मिलता है, उसकी याद मुल्क देखते हुए बराबर आती रहती है. आपको फुरसत हो तो युसुफी साहब की किताबों में से ‘आबेगुम’ जो हिंदी में ‘खोया पानी’ के नाम से आई है, और ‘मेरे मुंह में खाक’ जरूर पढिएगा.
आजादी, बंटवारा, 1992 फिल्म में जिस तरह से आते हैं, कहानी का हिस्सा बनकर, झकझोरते हुए दर्शक की चेतना में स्थापित हो जाते हैं. आशुतोष राणा कई दिन बाद इस तरह के मजबूत किरदार में आए हैं, वरना लग रहा था कि एक अच्छा एक्टर जाया हो रहा है. उनकी आमद सुखद है, बेहद संतोषजनक है. उग्र और तेजतर्रार वकील के तौर पर उन्होने बहुसंख्यक समुदाय के मानस को जिंदा कर दिया है.
एक अंग्रेज आईसीएस अफसर थे डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर (1840-1900 ईस्वी), उन्होने 1876 में एक किताब लिखी थी – ‘द इंडियन मुसलमान्स’. हालांकि एक आउटसाइडर का नजरिया इस किताब में था, जिसे बाद के राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने क्वींस पर्सपेक्टिव कहा है, पर वह किताब कई मायनों में खास है, 1857 के बाद भारतीय मुस्लिम तबके की सोच के विकास को परखने की कोशिश करती है, इस विषय पर मुझे इस किताब को पढने के बाद कोई और लेखन पसंद नहीं आया, पर अनुभव सिन्हा की यह फिल्म मेरे लिए उस शून्य को भरती है. अनुभव सिन्हा की इस कलात्मक वैचारिक उड़ान में उनकी अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की परवरिश का असर भी मान सकते हैं, जिसकी स्थापना हंटर की किताब और नजरिए के प्रतिक्रियास्वरूप सर सैयद अहमद खान ने की थी. बताते चलें कि सर सैयद ने हंटर की किताब की प्रतिक्रिया में एक किताब लिखी थी –’रिव्यू ऑन हन्टर्स इंडियन मुसलमान्स’.
सेवा में, सविनय निवेदन है कि मुल्क धर्म और राजनीति की लैथल ब्लेंडिंग से पैदा होने वाले सवालों के जवाब ही नहीं देती, इसकी तारीफ और ताकत यह है कि यह नए सवाल खड़े करती है, सवाल खड़ा करने का नजरिया देती है, किसी राजनीतिक थिंकर ने कहा था कि डेमोक्रेसी तब कमजोर होने लगती है जब लोग सवाल करने का शऊर भूलने लगते हैं. मुल्क के कई पाठ हो सकते हैं, यह मेरा निहायत निजी पाठ है, और निजी सुख भी. मुझे ‘मुल्क’ कभी एक सतरंगी पेटिंग नजर आई तो कभी एक प्यारी किताब लगी, कहीं, एक दीवाने सूफी का दुनिया के नाम प्रेमपत्र लगी.
मेरी राय है कि आप मुल्क देख कर आइए, यह अपने समय से आंख मिलाती हुई फ़िल्म है, जो आपके रौंगटे भी खड़े करती है, सहलाती भी है. अगर आप का जेहन अभी मर नहीं गया है तो आपको वह सब सुनाती है, जिसे सुनने के लिए आपसे कान छीन लिए गए हैं. वो दिखाती है जिसको देखने का अभ्यास आपकी आंखों से छूट गया है. फ़िल्म भारत के संविधान की प्रस्तावना के शुरूआती फ्रेज ‘वी द पीपल ऑफ इंडिया’ के ‘वी’ शब्द का तात्विक आख्यान है जो हर भारतीय के लिए ज़रूरी है, हालांकि ये ज़रूरी शब्द उसके लिए नाकाफी है. इसे ज़रूरी से ज़्यादा समझिए!
-दुष्यन्त
फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट, पुणे के छात्र रहे दुष्यन्त फ्रीलांसर हैं.
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