Featured

नैनीताल अब कभी नहीं सुन सकेगा मोहनदा के सुर-ताल

नैनीताल में रहने वाला शायद ही कोई ऐसा वांशिदा हो जो मोहनिया या मोहन या मोहन दा को न जानता हो. माल रोड में अपनी लाठी के सहारे रास्ते की टोह लेता हुआ धीरे-धीरे आगे बढ़ता मोहन कहीं-न-कहीं नजर आ ही जाता था. उसका नाम पुकार लेने भर में वो ऊ ऊ ऊ की आवाज देने लगता था और थोड़ी जान पहचान हो तो मोहन अपने मजाकिया अंदाज और अलग ही आवाज में ‘टैम्पो हाय है’ भी कह देता.

मैं अपने बचपन से मोहन को देखते आयी हूँ. मेरे से आगे वाली पीढ़ियों के लोग भी वर्षों से मोहन को शहर में देखते रहे हैं. कभी-कभी लगता है जैसे जितने साल पुराना नैनीताल हो गया है उतने ही साल मोहन को भी हो गये होंगे क्योंकि नैनीताल में रहने वाले ऐसे कोई भी लोग मुझे आज तक नहीं मिले जिसने मोहन को अपने बचपन से न देखा हो.

आंखों से न देख सकने वाले मोहन दा को भगवान ने हुनर भरपूर दिया. सुबह शाम नैना देवी मंदिर में आरती के समय मोहन अपने छोटे से नगाड़े की आवाज से पूरे मंदिर को चहका देता था. जितना शानदार वो नगाड़ा बजाता था उतनी ही शानदार बांसुरी भी बजाता था.

बीड़ी पीने का शौकीन मोहन मल्लीताल मंदिर के आगे या नगरपालिका की बिल्डिंग के आगे धूप सेकने के लिये बैठा मोहन कितने ही बार बांसुरी बजाता हुआ भी दिखायी दे जाता था. वो तो उम्र ने थोड़ा लाचार कर दिया इसलिये पिछले कुछ सालों से उसने नगाड़ा बजाना और बांसुरी बजाना छोड़ सा दिया था पर तल्लीताल से मल्लीताल जाना नहीं छोड़ा.

मैंने हमेशा से मोहन को एक फटी पुरानी सी काली जैकेट सर पे एक टोपी और पैरों में खाकी रंग की थोड़ी टाइट सी पायजामा और पैरों में काले रंग के रबर के बने सस्ते से जूते पहने ही देखा. हालांकि कभी-कभी वो डैनिम की ब्लू जीन्स में भी दिखायी दे जाता जो कि मैल से काली हो जाती थी.

मोहन को कभी किसी ने बातें करते नहीं सुना. बस कभी सुना तो ‘टैम्पो हाय है’, ‘ओके टाटा’ या फिर उसका तकिया कलाम ‘ऊ ऊ’ करते ही सुना. लड़ाई करना तो वो शायद जानता भी नहीं होगा. उसकी आंखें नहीं थी, परिवार भी नहीं था, सुख सुविधायें भी नहीं थी पर इन सबके बावजूद मोहन ने न तो कभी किसी चीज के लिये शिकायत और न ही कभी पैसों के लिये हाथ फैलाया.

आंखों में धूंधलका लिये ऊ ऊ की आवाज करता हुआ मोहन अपनी लाठी खटखटाते हुए मालरोड में गाड़ियों की भीड़ से जूझता हुआ भी मल्लीताल पहुँच ही जाता था. आंखें नहीं थी तो क्या. दिमाग के अंदर उसने सब नक्शे बना के रखे थे जिससे वो बिना किसी मदद के भी अपनी मंजिल तक पहुंच ही जाता.

मोहन के रहने का इंतजाम भी शहर के कुछ लोगों ने ही किया हुआ था. जो उसे रात को ठहरने की जगह दे देते थे और खाना भी खिला दिया करते थे. ये शहर के लोगों का उसके लिये प्यार ही था कि कभी किसी ने उसकी मजबूरी का फायदा नहीं उठाया और न ही कभी किसी न उसे सताया.

कुछ दिन पहले ही उसने अपनी छोटी सी कोठरी में अंतिम सांस ली. ये शहर के लोगों का उसके लिये प्यार और इज्जत ही था कि सबने पैसे इकट्ठा करके उसके अंतिम संस्कार को उसकी इच्छा के अनुसार रानीबाग में किया.

बेशक ही मोहन के इस तरह चुपचाप चले जाने से नैनीताल की एक शख्सियत कम हुई है.

वाट्सएप में काफल ट्री की पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

विनीता यशस्वी

विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

3 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

3 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

4 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

5 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

5 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago