पहले बालों से ज्ञान, शील और चरित्र का काफी गहरा व्युतक्रमानुपाती सम्बन्ध माना जाता था. यानि सर के बाल जितने लम्बे होंगे ज्ञान प्राप्ति उतनी ही कम होगी और कुचरित्र स्वाभाविक गुण बन जायेगा. लिहाजा घर और स्कूल दोनों में ही बालों की खेती की ख़ास निगरानी की जाती थी. लड़कों को सैलून ले जाकर नाई को सिर्फ यह आदेश दिया जाता था कि इसके बाल छोटे-छोटे कर दो. बाल कटाना सबसे बड़ी फिजूलखर्ची जो मानी जाती थी. यहाँ बाल की एक-एक सूत लम्बाई के लिए प्रचंड संघर्ष देखने को मिला करता था. बच्चे इसके आदी हो जाते थे मगर किशोर नहीं. अपनी अधिकतम तय सीमा की लम्बाई तक बढ़ जाने पर भी इन्हें बायीं भौंह के कोने की सीध से कंघी मिलाकर दाहिनी तरफ पलटना होता था — इस इकलौते हेयरस्टाइल को ही सामाजिक मान्यता प्राप्त थी. स्कूल अपने ख़राब परीक्षाफल की गाज छात्रों के बालों पर ही गिराया करते थे. गोया बाल दिमाग की खाद पर ही पनपा करते हों.
किशोरावस्था की दहलीज पर कदम रखते ही बाल लड़कों की स्कूल और घर से जंग का बायस बन जाते. लड़के मुंडन के पंद्रह दिनों बाद उग आये लम्बाई के बाल नहीं रखना चाहते थे. ना ही उन्हें चम्पू स्टाइल में काढ़कर लाटी का चेला टाइप दिखना पसंद था. जाहिर है उनको अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, कपिल देव जैसे बाल रखने होते थे. आखिर कौन अपने आदर्श की तरह दिखने की चाह नहीं रखता. भला कौन स्टाइलिश नहीं दिखना चाहता.
जो भी आज अपनी उम्र का शतक या अर्धशतक लगाने के करीब हैं वह भली भांति जानते हैं कि पहले हल्द्वानी में ब्रांडेड सैलून तो दूर सैलून ही नहीं के बराबर हुआ करते थे. वही लोग प्यारेलाल को भी अच्छी तरह जानते हैं. नाम मात्र के सैलूनों के कस्बे में प्यारेलाल एक चलता फिरता सैलून थे. एक फर्स्टएड नुमा बक्से में आईना, कंघी, कैंची, उस्तरा, शेविंग क्रीम, पाउडर, फिटकरी और धार लगाने के लिए चमड़े का पट्टा लिए प्यारेलाल सिर्फ कस्बे में ही नहीं घूमा करते थे. नैनीताल, भवाली, ज्योलीकोट, गेठिया, दोगांव, भुजियाघाट, भवाली, गौलापार यानि हल्द्वानी शहर और उसके सीमावर्ती गाँव प्यारेलाल की कर्मभूमि हुआ करते थे.
मूल रूप से अयोध्या के रहने वाले प्यारेलाल के पिता रोजगार की गरज से हल्द्वानी आये और बस गए. प्यारेलाल ने भी कम उम्र में ही औजार थामकर अपना पुश्तैनी कारोबार शुरू कर दिया. प्यारेलाल ने हल्द्वानी को जवान होकर रचते-बसते देखा और हल्द्वानी ने प्यारेलाल को. अपने काम की एवज में जो भी मिले वह उसे स्वीकार कर लिया करते थे. अनाज, सब्जी या पैसा. कोई तय रेट भी नहीं था, इत्मीनान से खानदान भर के बाल कटवाओ, शेविंग करवाओ और थोड़ा मान मुनौव्वल कर जो जी चाहे दे दो. उधार खाता भी चला करता था.
केश नियंत्रक अभिभावकों के लिये प्यारेलाल वरदान की तरह थे. घर पर ही पठ्ठों के बाल कुतरवाने का मौक़ा मिल जाता था और प्यारे बच्चों के बाल कुतरने के बारे में उनकी भावनाओं को बेहतर समझते भी थे. हल्द्वानी और आसपास के गाँव देहातों में शायद ही कोई हो जो प्यारेलाल को न जानता हो. सात दशक से भी ज्यादा तक नियमित मोबाइल सैलून चलाने वाले वह अकेले शख्स हुआ करते थे. दो साल पहले अपने अंतिम दिनों में मोबाइल सैलून चलते हुए वह डोलमार में गिर पड़े. इस वक़्त भी वह पूरी तरह सक्रिय और तंदरुस्त थे. वह नर्वस नाइनटीज का शिकार हुए. इस तरह हल्द्वानी कस्बे का एक आईना नहीं रहा.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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नमन प्यारेलाल के लिये।
उन सुनहरे दिनों की याद दिला दी आपने।।
केश-कर्तन के पेशे को समर्पित व्यक्तित्व को नमन् ..
आपकी कलम में दम है।
प्यारेलाल जी का नाम सुनकर बचपन याद आ गया।
🤣🤣🤣🤣🤣🤣👍👍👍👌👌