अगर तुम इस जिंदगी को भरपूर जीना चाहते हो, तो जब भी तुम्हारे सामने दो में से किसी एक राह को चुनने का मौका आए, तो हमेशा ज्यादा जोखिम भरे रास्ते को चुनना. क्योंकि वही तुम्हें उस ऊंचाई तक लेकर जाएगा, जहां से तुम्हें ये दुनिया नीचे बिछी हुई दिखाई देगी. अगर आसान वाला विकल्प चुना, तो गोल-गोल ही घूमते रहोगे. ये दुनिया तुम पर हमेशा हावी बनी रहेगी और बिना जिए ही जिंदगी रेत की तरह तुम्हारी मुट्ठी से फिसलती निकल जाएगी.
(Mind Fit 45 Column)
ज्यादातर लोग जीवन में सुरक्षा की चिंता करते हैं. यह जानते हुए भी कि जीवन की बुनियादी प्रकृति ऐसी है कि किसी को भी सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती. इतिहास के पन्नों पर जाने ऐसी कितनी दास्तानें भरी हुई हैं, जिन्हें पढ़कर हमें मालूम चलता है कि जो कभी ऊंचे महलों में रहा करते थे, उनकी शानोशौकत भी वक्त आने पर नेस्तोनाबूद हो गई. उन्होंने बहुत कोशिश की. वे भविष्य की जानिब दूरबीनें लगाकर देखते रहे कि कहीं से किसी मुसीबत का अंधड़ तो नहीं उड़ता आ रहा. उन्होंने किलों के बाहर ऊंची प्राचीरें बनवा लीं. पर वे बचे कहां. हिटलर ने अपने छिपने के लिए ऐसा बंकर बनवाया था कि बड़ी से बड़ी सेना का हमला भी उसका बाल बांका नहीं कर सकता था. मगर जब वक्त आया, तो वह खुद ही सायनायड कैप्सूल खाकर अपने ही हाथ मरा.
आज दुनिया जैसी है, उसे वहां तक पहुंचाने में ऐसे बहादुरों की ज्यादा बड़ी भूमिका रही, जिन्होंने आसान और सुरक्षित रास्तों को छोड़कर मुश्किल और खतरे भरे रास्तों को चुना. सोचो अगर कोलंबस अनजान और रहस्यभरे समुद्र में नहीं उतरता, तो दुनिया जाने कब तक अमेरिका जैसे देश को न खोज पाती. कल्पना करें, जब इंसान ने विज्ञान को ज्यादा समझा नहीं था और प्राकृतिक शक्तियों का उस पर गहरा आतंक था, कैसे हमारे पूर्वजों ने जंगलों और समुद्रों के पार की भीषण यात्राएं कीं. नई खोजों, आविष्कारों और ज्ञान की नई राहों की खातिर उन्होंने कैसे-कैसे खतरे मोल लिए. सोचो, अगर वे सब भी खतरों को छोड़ अपने लिए सुरक्षित जीवन का विकल्प चुनते और सारी जिंदगी अपने गांव की सरहदों में रहकर ही काट देते, तो क्या आज दुनिया ऐसी बन पाती?
(Mind Fit 45 Column)
अक्सर यह देखने में आता है कि माता-पिता अपने बच्चों को सुरक्षित जीवन की ओर धकेलने की कोशिश करते हैं. बच्चे छठी-सातवीं में होते हैं, तभी से उनके करियर को सुरक्षित बनाने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है. वे दिनभर स्कूल में पढ़ने के बाद शाम को खेलने की बजाय दो-दो, तीन-तीन घंटे कोचिंग कक्षाओं में सिर पकड़कर बैठे रहते हैं. एक के बच्चों को ऐसा करते देख, दूसरों के माता-पिता इस डर से कि कहीं हमारे बच्चे पीछे न रह जाएं, उन्हें भी खेल के मैदानों से खदेड़कर कोचिंग कक्षाओं के दड़बों में धकेल देते हैं.
किसी से अगर पूछो कि वे अपने बच्चों को खेल की दुनिया में क्यों नहीं किस्मत आजमाने देते, तो सबका तपाक से एक-सा जवाब मिलता है – नहीं! नहीं! खेल में बहुत जोखिम है. अगर कुछ कर नहीं पाया तो? जरा सोचिए अगर ऐसा ही हर माता-पिता सोचते, तो भारत को सचिन तेंडुलकर, साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा और पी.वी. संधू जैसे खिलाड़ी कहां से मिलते, जिन्होंने अपने कारनामों से न जाने कितने बच्चों को प्रेरित किया है.
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सवाल सिर्फ खिलाड़ी बनने या प्रचलन से थोड़ा हटकर करियर चुनने का नहीं, सवाल हर कदम पर सुरक्षा की तलाश करने वाली मानसिकता को बदलने का है, क्योंकि हर नए पल के साथ बदलने वाले जीवन में स्थायी सुरक्षा की मांग ही नाजायज है. हर जिंदा शै को हर पल खतरों से जूझना होता है. यह जो जोखिम भरा सफर है, यह जो संघर्ष है, यही तो असली जीवन है. दुनिया आज अगर जीवित है, तो इसी दम पर है कि उसने खतरों को गले लगाया. याद रखें कि मुर्दा चीजें ही सबसे ज्यादा सुरक्षित होती हैं. अगर गहरा और प्रगाढ़ जीवन जीना है, तो हमें पहचाने रास्तों को छोड़कर अनजाने रास्तों पर निकलना होगा. अमेरिका के सुप्रसिद्ध कवि रॉबर्ट फ्रॉस्ट ने लिखा भी है – जंगल में दो रास्ते जाते थे. मैंने उसे चुना जिस पर कम लोग गए, और उसी से सारा फर्क पड़ा.
आप भी सुरक्षित रास्तों के इंतजार में न बैठे रहें. बेपरवाह होकर मुश्किल राहों पर निकल पड़ें. जिंदगी को नीरस न बनने दें, उसका जीभर कर भरपूर स्वाद लें. समुद्रों का विस्तार, जंगलों का सन्नाटा, पर्वतों की सिहरती चोटियां, मरुस्थलों का निपट सुनसान- ये सब तुम्हारी ही बाट जोहते खड़े हैं, देखो तो सही!
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-सुंदर चंद ठाकुर
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे. सुन्दर ने कोई साल भर तक काफल ट्री के लिए अपने बचपन के एक्सक्लूसिव संस्मरण लिखे थे जिन्हें पाठकों की बहुत सराहना मिली थी.
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