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ग्रेजुएट ब्वारियों की चाहत बनाम पहाड़ से पलायन : उत्तराखण्ड स्थापना सप्ताह पर विशेष

उन्नीस साल के युवा उत्तराखण्ड को एक लाइलाज रोग लग गया है – पलायन का. इस रोग की गम्भीरता ऐसी है कि इसने यहाँ की अन्य बीमारियों (समस्याओं) को नजरअन्दाज कर दिया है. होता भी यही है. जब छोटी बीमारियों का समय रहते उपचार नहीं किया जाता तो वह गम्भीर बीमारी बनकर उभरती ही है. उत्तराखण्ड में  पर्यटन उद्योग,  फिल्म उद्योग की उत्तराखण्ड में संभावनाऐं तथा ऊर्जा प्रदेश की मुहिम जैसे विकास के मुद्दे को नेपथ्य में घसीटकर,  पलायन मुख्य मुद्दा बन चुका है. इस बीमारी से निबटने के लिए सरकार द्वारा पलायन आयोग गठन कर दिया गया और आम जनता से भी पलायन के कारणों के सुझाव मांगे गये. ज्यादातर लोगों ने  वही रटे रटाये जवाब मिले – बुनियादी सुविधाओं का अभाव. मसलन – बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और जंगली जानवरों का आतंक. (Migration Problem Uttarakhand Bhuvan Chandra Pant)

बेशक बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में उत्तराखण्ड अभी भी पिछड़ा ही है.  समाज में कान्वेन्ट शिक्षा से स्टेट्स सिम्बल का जो चलन बन पड़ा है, उसमें उत्तराखण्ड भी पीछे नहीं है. दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों में इस प्रकार के अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के अभाव के कारण परिवार सहित लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. नहीं, आज की आवश्यकता के अनुरूप व्यावसायिक पाठ्यक्रम वाले संस्थान हैं जहाँ युवाओं को अपनी पसन्द का पाठ्यक्रम चयन करने की सहूलियत हो. ब्लाक स्तर पर पोलिटैक्नीक व  आईटीआई जैसे औद्योगिक आस्थान सरकारी स्तर पर संचालित जरूर हो रहे हैं  लेकिन सारे युवा अपना भविष्य केवल इन्हीं में नहीं खोजते. परिणाम -परिवार सहित दूसरे शहरों को पलायन. (Migration Problem Uttarakhand Bhuvan Chandra Pant)

सरकारी स्कूलों की हालत ये है कि जहाँ भवन हैं छात्र नही, छात्र हैं शिक्षक दूरस्थ विद्यालयों में जाने को तैयार नहीं और जहाँ छात्र भी  हैं और शिक्षक भी वहां विद्यालय के पास भवन नहीं है अथवा जर्जर हालत में दुर्घटनाओं को आमंत्रण देता. कहीं कहीं तो एक-दो छात्रों के पीछे वेतन व ढांचागत सुविधाओं में सरकार का भारी भरकम बजट खर्च हो रहा है और कहीं 150-200 बच्चों पर एक-दो शिक्षक, जिस किसी तरह विद्यालय चलाने को मजबूर हैं. इसके लिए जिम्मेदार  कौन -सरकारों की उदासीनता है या व्यवस्था की लापरवाही ?

बात स्वास्थ्य सुविधाओं की करें तो उत्तराखण्ड के कुछ दूरस्थ गांव ऐसे भी हैं,  जो झाड़-फॅूक या घरेलू उपचार पर ही निर्भर हैं. आज भी पहाड़ के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ मरीज को चारपाई पर ढोकर मीलों पैदल चलकर स्वास्थ्य सुविधाऐं उपलब्ध हो पाती है, बशर्ते कि उस स्वास्थ्य केन्द्र पर चिकित्सक तैनात हो. कई प्रसूताओं के रास्ते में ही दम तोड़ने की घटनाऐं गाहे-बगाहे सुनने को मिलती रहती हैं. हुक्मरान चिकित्सकों को दूरस्थ चिकित्सालयों में भेजने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देते रहे हैं लेकिन प्रलोभनों के बावजूद  चिकित्सालयों को चिकित्सक नहीं मिल पा रहे हैं. आखिर ये चिकित्सक भी तो अपने बच्चों की अच्छी शिक्षा का अधिकार रखते हैं ना. कभी सरकार का ध्यान यदि इस ओर गया और सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेजी माध्यम लागू कर दिया तो क्या पता सूरतेहाल बदल जायें. (Migration Problem Uttarakhand Bhuvan Chandra Pant)

अगर आंकड़ों पर बात की जाय तो अविभाजित उत्तर प्रदेश के बनिस्पत स्कूल, कालेज तथा संस्थानों की संख्या में इजाफा अवश्य हुआ है. स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर स्वास्थ्य केन्द्रों में सख्यात्मक वृद्धि भी हुई है और 108 सेवा के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार भी, इससे कोई इन्कार नही कर सकता. लेकिन हकीकत में 19 सालों में भी स्थिति जस की तस ही नजर आती है.

एक बात और कही जाती है पलायन के पीछे – जंगली जानवरों का आतंक. इसमें सन्देह नहीं कि बन्दर तथा सूअरों के आतंक से आज जो लोग पहाड़ में टिके रह गये हैं, उनके खेत भी बंजर नजर आते हैं. जंगली जानवरों के द्वारा किये जाने वाले नुकसान से अपने घर के सामने वाले बाड़े में  सब्जी उगाना तक छोड़ दिया है. बाघ आदि के गांवों में दखल पर ग्रामीण तर्क देते हैं कि जब से पहाड़ो में कंजड़ आने लगे,  जंगली जानवरों का आतंक बढ़ गया.

पहले बाघ आदि हिंसक जानवरों को लोमड़ी आदि जानवरों का शिकार जंगल में ही मिल जाया करता था, इस कारण वे अपनी हद में रहते थे. लेकिन कंजड़ों द्वारा लोमड़ी आदि का शिकार कर खाने से इन हिंसक जानवरों का भोजन छिन गया है, जिससे वे बस्तियों में शिकार तलाशने लगे है. लेकिन जहाँ तक सूअरों व बन्दरों के आतंक का सवाल है, यह पलायन के साथ परस्पर जुड़ा है. यदि गांव के गांव वीरान हो जायेंगे और गिने-चुने लोग ही गांव में रहेंगे तो इन जंगल गांवों में जंगली जानवर ही तो रहेंगे.

आज से 25-30 साल पीछे चले जाएं तो पहाड़ के युवकों का एक बड़ा हिस्सा फौज में भर्ती होता था. फौज में परिवारों को रखने की सुविधाऐं सीमित होने से उनके बच्चे अपने गांव में ही रहते. गांव में रहना उनकी मजबूरी भी थी और जरूरत भी. फौजी जब रिटायरमेंट के बाद घर लौटता, तब तक उसके बच्चे शिक्षा पूरी कर चुके होते,  इस कारण अब उन्हें शहर की ओर भागने की जरूरत नही होती थी. दूसरे पेशों में मास्टरी, बाबूगिरी,  चपरासी अथवा पुलिस में भर्ती तक ही  रोजगार की संभावनाऐं तलाशी जाती,  जो अपने गांव के इर्द-गिर्द ही हासिल हो जाती थी. गांव भी आबाद रहते थे और नौकरी भी. लेकिन पिछले 20-25 साल से जब व्यावसायिक कोर्सों की ओर युवा वर्ग का रूझान हुआ और इस क्षेत्र में रोजगार की संभावनाऐं भी बढ़ी तो मैदानी क्षेत्रों की ओर प्रवाह बढ़ता चला गया. क्योंकि उनके द्वारा जो कोर्स किया गया,  पहाड़ों में उनसे रोजगार पाने की संभावना न के बराबर है. इस स्थिति में  मैदानी क्षेत्रों में जो जहाँ रोजगार पर लगा,  वहीं का होकर रह गया.

इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि जब जंगली जानवरों के आतंक से खेती बंजर पड़ी और राशन, सब्जी, दूध आदि सारी चीजें बाजार से खरीद कर ही लानी हैं तो ऐसे गांवों में जहाँ न बेहतर स्वास्थ्य सुविधाऐं हैं न यातायात के साधन हैं और न अच्छे स्कूल भला गांव में रहना का औचित्य ही क्या रह जाता है?

पलायन के कारणों के पारिवारिक पक्ष पर नजर डालें तो तस्वीरें कुछ और ही बयां करती है. एक ओर तो संयुक्त परिवार प्रथा के विघटन तो पलायन के लिए उत्तरदायी हैं और दूसरी जो पलायन के पीछे मुझे एक मुख्य वजह लगती है, वह है – ग्रेजुएट ब्वारी (बहुऐं) लाने के ’स्टेट्स सिम्बल’ की सोच. आप गांव भी आबाद रखना चाहते हैं और ग्रेजुएट बहुऐं भी चाहते है,  दोनों फायदे नहीं ले सकते.

यह तो निर्विवाद है कि महिला शक्ति पहाड़ की कृषि व पशुपालन व्यवस्था की रीढ़ है. पहले तो ग्रेजुएट बहुऐं गांव के खेती-बाड़ी के काम के बजाय नौकरी को ही तरजीह देगी और  दुर्भाग्यवश यदि नौकरी नहीं मिल पायी तो स्कूल-कालेजों के जिस वातावरण से वह आयी है, वह गाय के गोबर को छूने पर छी-छी और मिट्टी पर हाथ सानने से परहेज ही करेगी. मेरे कहने का यह आशय कदापि नहीं है कि आप ग्रेजुएट बहुऐं न लायें या बालिकाओं को उच्च शिक्षा न दें.

कसूर उनका नही,   दोष हमारी शिक्षा व्यवस्था का है, जिसने हमारी मानसिकता को इस तरह विकृत कर दिया है कि शारीरिक श्रम अनपढ़ों की हिस्से कर दिया जाता है,  जब कि हकीकत ये है कि यदि पढ़े लिखे लोग खेत-खलिहानों की ओर अपना रूझान करें, तो उनकी सोच से उन्नत खेती व उन्नत पशुपालन के द्वार खुल सकते हैं. लेकिन संकुचित मानसिकता के चलते न तो कोई माँ-बाप अपने बेटी को गांव में देना चाहेगा और नहीं कोई बेटी पढ़-लिख कर गांव में रहना पसन्द करेगी. विपरीत इसके हर युवा व उसके माँ-बाप ग्रेजुएट ब्वारी (बहू) की ही तलाश करेंगे. परिणामस्वरूप गावों से पलायन ही तो होगा. कतिपय अपवादों को छोड़कर ऐसी ग्रेजुएट ब्वारियों (बहुओं) से हम उत्तराखण्ड के गांवों से पलायन की उम्मीद न करें, एकदम नामुमकिन सा है.

– भुवन चन्द्र पन्त

लेखक की यह रचना भी पढ़ें: ऐसे बना था नीमकरौली महाराज का कैंची धाम मंदिर

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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं

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  • बेहद चिंताजनक विषय।
    परन्तु राज्य सरकार इस पर कोई विचार ही नही कर रही, खास कर युवाओं के लिए उपर्युक्त सेवा रोज़गार संबंधी योजना को लेकर।

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