मोहिनी, यह तुम्हारी घात नहीं है
-नवीन जोशी
तुमसे विनती है कि तुम, जो इसे पढ़ोगे, यही सोचना कि मैं उसकी ‘घात’ (शिकायत) नहीं कह रहा हूँ.
अब तक सम्भाल कर रखी गई मेरी डायरी में उसका कहा लिखा है- “घर घात झन कये, बण मेरो मैत.” उसने कहा था, घर में मेरी चुगली मत करना, जंगल तो मेरा मायका है.
यह बात उसने बरसों पहले मुझसे लखनऊ में कही थी, जिसे वह अपना जंगल मानने लगी थी. ‘मायका’ उसका पहाड़ था. यह सब लिखते हुए मुझे उसकी चुगली करने जैसा अपराध बोध हो रहा है. हालांकि अब वह जीवित नहीं है. उसे कभी पता नहीं चलेगा कि मैंने उसकी घात कही.
लेकिन क्या यह उसकी घात है भी? वह तो बिल्कुल निर्दोष थी. उसने निर्मल हृदय से किसी से प्यार किया था. उसके साथ अपनी खूबसूरत दुनिया बसाने के सपने देखे थे. प्यार करना और सपने देखना कोई अपराध नहीं होता. उन्ही सपनों को सच करने के लिए उसने एक उड़ान भरी थी, पहाड़ के एक गांव से दूर जाने के लिए. उन लोगों से बहुत दूर हो जाने के लिए जो उसकी मुहब्बत की राह में अड़ंगा डाल रहे थे, जो उसे अपने सपनों की दुनिया बसाने नहीं दे रहे थे.
वह अपने प्यार के साथ, उस लड़के का हाथ थाम कर उड़ती चली आयी. उनकी उड़ान यहां लखनऊ आकर थमी मगर उसके सपने जिंदगी की ऊबड़-खाबड़ धरती पर आकर बहुत जल्दी टूट गये. चकनाचूर हो गये. तब उसे लगा कि शायद बड़ी गलती हो गयी. वह मनुष्यों के बीहड़ जंगल में थी. जंगल के क्रूर नियमों में फंसी हुई. तब उसे अपना पहाड़ बहुत याद आया था लेकिन वापसी सम्भव न थी. शायद तभी उसने मुझसे कहा था कि मेरी चुगली मत करना.
इसलिए यह चुगली उसकी नहीं. तुम जो इसे पढ़ रहे हो यही समझना कि यह चुगली है तो हमारी-तुम्हारी है.इस समाज की है.
***
बहुत पुरानी बात है. लखनऊ में हम कैण्ट रोड पर नहर दफ्तर (सिंचाई विभाग) के पीछे कैनाल कॉलोनी में रहते थे जहां सिंचाई अभियंताओं की बड़ी-बड़ी कोठियां थीं. कोठियों और दफ्तर के बीच बारह-बारह सर्वेण्ट क्वार्टरों के दो अहाते थे. इन चौबीस में से बीस कोठरियों में पहाड़ी रहते थे जो दफ्तर और इंजीनियरों की कोठियों में काम करते थे. उनके साथ पढ़ाई करने उनके बेटे या नौकरी की तलाश में आने वाले रिश्तेदार भी रहा करते थे. घरों या होटलों-ढाबों में काम करने वाले ईमानदार पहाड़ी छोकरे यहां आसानी से मिल जाया करते थे. इसी कारण यह मुहल्ला पहाड़ियों के मुहल्ले के रूप में ख्यात था.
मैं सातवीं या आठवीं में पढ़ता था. 1967 या 68 का साल. एक सुबह हम स्कूल के लिए घर से निकल रहे थे कि तभी एक रिक्शे वाला एक युवक-युवती को हमारे अहाते में उतार रहा था. सामान के नाम पर उनके पास दरी में लिपटी एक गठरी थी.
-‘आपके पहाड़ से आये हैं ये. किसी को जानते नहीं हैं यहां.’ उनकी गठरी नीचे रखते हुए रिक्शे वाला कह रहा था. वह उन्हें वहीं उतार कर चलता बना.
लड़का दुबला-पतला लेकिन लम्बा था. लड़की पर नजर पड़ते ही हम कंधे पर बस्ता टांगे ठिठके खड़े रह गये थे. वह छवि आज तक मन में ताजी है, जस की तस.
ठेठ पहाड़ी लिबास. सफेद गोटदार काला घाघरा, छींट के छापे वाली कुर्ती. बीच सिर से होते हुए ऊन के धागे से बंधे कनफूल (कर्णफूल),नाक में फुल्ली, गले में सोने की टीप, हाथों में चांदी की पहुंचियां और पैरों में चांदी के मोटे छल्ले. भरी देह, गोरा ललाड्. मुखड़ा, मांग में सिंदूर और माथे में लाल टिकुली. मुझे आज भी सब साफ-साफ दिखाई देता है.
तब तक और डेरों से भी लोग निकल आये थे. सब हैरान कि कौन हैं ये? कहां से आये हैं? किसके साथ आये हैं? ब्याह कर रखा है? भाग कर तो नहीं आये?
तभी सयानों की नजर हम पर पड़ी- ‘क्यों रे? यहां तमाशा क्या देख रहे हो? स्कूल नहीं जाना?’ हम सचमुच भूल गये थे कि हमारे कंधे पर बस्ता है. फौरन चलते बने.
दोपहर बाद स्कूल से लौटे तो पता चला कि वे हमारे एक पड़ोसी जोशी जी के यहां रह रहे हैं. जोशी जी अकेले रहते थे. दरअसल वहां सभी अकेले रहते थे. माने, उनके परिवार पहाड़ के गांवों में रहते थे. इन डेरों में लोग अकेले या अपने ही जैसे ‘अकेले’ लोगों के साथ रहते थे. हमने उसे जोशी जी के क्वार्टर में बाहर-भीतर आते-जाते देखा. अहाते में एक किनारे सार्वजनिक नल, शौचालय, वगैरह था. वह और उसका ‘वह’ बाल्टी लेकर पानी भरने, कपड़े धोने, आदि कामों के लिए आ-जा रहे थे. हम कौतुक और जिज्ञासा से उसे देखते. इस बीच उसका पहाड़ी लिबास, जेवर आदि उतर गये थे. वह साड़ी पहने हुए थी.
धीरे-धीरे हमें पता चला कि उन्होंने गांव से भाग कर एक मंदिर में शादी की और भाग आये. शादी के कपड़े और जेवर लड़का लाया था. घर से मां या किसी के चुरा लाया होगा. हमारे मुहल्ले में एक-दो ही परिवार थे जिनमें महिलाएं भी थीं. उन्ही से उसकी बातचीत होती. हम तक छन-छन कर ऐसी खबरें पहुंचतीं.
गोपाल यानी उसके साथ का लड़का, यानी उसका आदमी नहर दफ्तर की निर्माणाधीन इमारत में ईंटा-गारा ढोने की मजदूरी करने लगा. सुबह चला जाता और शाम को लौटता. गोपाल को हमने बोलते नहीं सुना. वह चुपचाप आता-जाता.
लोग उसे मोहिनी कहने लगे. यही नाम बताया होगा उसने. अक्सर जोशी जी का उसे पुकारना सुनाई देता. वह जोशी जी का खाना बनाती, घर के सारे काम करती और फुर्सत में अहाते के नीम तले बैठती. कभी अकेले में बैठी चुपचाप रोती. पल्ले से आंसू पोछते दिखती.
जाड़ों के दिन थे. जाड़ों में वहां कोई-कोई अपनी घरवाली को गांव से बुला लाते. इलाज कराने या शहर दिखाने. उन दिनों पहाड़ में काम–धंधा काफी कम हो जाता था, इसलिए. दो-चार परिवार भी आ जाते तो लखनऊ के हमारे मुहल्ले में चहल-पहल हो जाती. औरतें धूप में बैठ कर बातें करतीं, बिनाई करतीं. हम बच्चे भी अक्सर उनके साथ बैठते. मोहिनी भी आती.
उन्ही दिनों मुझे पता नहीं कैसे कुमाऊंनी गीतों के संकलन का शौक लग गया था. गर्मियों की छुट्टी में गांव जाने पर एक कॉपी मेरे साथ रहती. सबसे पूछ कर उसमें झोड़े, चांचरी, भजन, जोड़, वगैरह लिखता. बताने वाले का नाम भी गीत के आगे कोष्ठक में दर्ज कर देता. लखनऊ में पहाड़ से आई उन महिलाओं से भी में गीत पूछ-पूछ कर लिखता.
जाड़ों की ऐसी ही एक दोपहर मैंने मोहिनी से भी कहा- कोई पहाड़ी गीत बताओ. वह ना-नुकर करती रही. मैं लगातार जोर देता रहा. उसे डायरी दिखा कर कहता- देखो, इतने गीत जमा हो गये हैं. तुम भी बताओ. तब उसने एक जोड़ बताया था-
‘मडुआ को रोट, सुकानी को रैत
घर घात झन कये, बण मेरो मैत.’
फिर एकाएक ही वह सुबकने लगी थी. साथ बैठी औरतों ने मुझे डांट दिया- भाग यहां से, क्यों रुला रहा है उसे.
तब मैं नहीं समझ सका था कि वह क्यों रोयी. जो जोड़ उसने मुझे लिखवाया, उसके रोने से उसका क्या सम्बंध था. समझ बाद में आयी. पहाड़ में कहते हैं न कि उम्र और अक्ल में भेंट नहीं होती.
बाद में धीरे-धीरे जाना, उसके रोने का सम्बंध उसके प्रेमी की बीमारी से था. उसके रोने का सम्बंध दोपहर में दफ्तर से जोशी जी के डेरे पर आने और दरवाजा बंद कर लेने से था. उसके रोने का कारण उसकी मजबूरियां थीं.
बाद में ही जाना, गोपाल को टी बी की बीमारी थी. वह खांसता और खून की उलटी करता. दिन भर की हाड़-तोड़ मेहनत से उसकी हालत और बिगड़ती गयी. वह घर में या अहाते के नीम के नीचे पड़ा रहने लगा. उसे कोई इलाज नहीं मिला. मोहिनी उसे सहारा देती, उसे खिलाने की कोशिश करती. बैठी-बैठी रोती. उसे सहारा देने वाला कोई नहीं था. पहाड़ से आयीं चंद महिलाएं महीने-डेढ़ महीने बाद अपने-अपने गांव लौट गयीं थीं. जोशी जी को मुफ्त की नौकरानी मिल गयी थी और एक स्त्री-देह भी.
उम्र के पीछे-पीछे आयी अक्ल ने ही बाद में मुझे समझाया कि मोहिनी ने जो जोड़ मुझे लिखवाया था, वह उसके भीतर की अकथ पीड़ा ही थी. स्थितियों ने उसकी मुहब्बत का बेरहमी से कत्ल कर दिया था. उसके सपने आदमियों के इस जंगल में खो गये थे. उसने इस जंगल से हार मान ली थी. शायद अपराध बोध होने लगा था उसे. अब वापस कहां जा सकती थी. बस, इतना चाहती थी कि उसकी चुगली उसके ‘घर’ न पहुंचे.
‘घर घात झन कये, बण मेरो मैत.’ किसी से न कहना मेरा किस्सा. अब इस जंगल ही मैं मुझे रहना है.
***
एक दिन पता चला, गोपाल मर गया. फिर पता चला, मुहल्ले के सयानों ने जोशी जी की लानत-मलामत की, कि क्या लौड्योली कर रहे हो, बाल-बच्चों वाले हो, गांव में परिवार है तुम्हारा, वगैरह. एक दिन पता चला, मोहिनी हमारी कॉलोनी से चली गयी.
किशोरावस्था से आगे बढ़ते दिन थे. हम मोहिनी को भूल गये. कभी-कभार कुमाऊंनी गीतों के संकलन वाली कॉपी खोलता तो उस जोड़ के आगे लिखा नाम मोहिनी की याद दिलाता.
हमारे स्कूल का रास्ता पुराने किले नामक मुहल्ले से जाता था. उसके ठीक पीछे रेल की पटरी थी जो हमारे रास्ते से दिखायी देती थी. एक दिन स्कूल से लौटते समय रेल पटरी पर भीड़ दिखी. आदमी, औरतें, बच्चे, पुलिस भी. उत्सुकतावश हम भी जा पहुंचे. एक महिला को पकड़े खड़े लोग पुलिस से शिकायत कर रहे थे- ‘बच्चे को पटरी पर छोड़कर भागी जी रही थी ये…’
कोई शक नहीं हुआ मुझे. वह मोहिनी ही थी. रूप-रंगत काफी उजड़ गयी थी लेकिन उस मोहिनी को कैसे भूल सकता था मैं! धक्क रह गया, डर जैसा गया और लगभग दौड़ता हुआ घर आ गया था.
‘घर घात झन कये, बण मेरो मैत.’ किसी से क्या कहता. किससे कहता. इस जंगल में और गहरे खो गयी थी मोहिनी.
***
इण्टर में पहुंचने तक मेरा शहर में इधर-उधर काफी आना-जाना होने लगा था एक रोज हुसैनगंज की एक गली में मुझे वह दिख गयी.
‘शाग ले लो, शाग’ आवाज की पहाड़ी लटक से चौंककर मैंने उसकी तरफ देखा. वह मोहिनी थी, हालांकि अब कतई मोहिनी नहीं लग रही थी.
एक हाथ से सिर पर रखी टोकरी सम्भाले. दूसरे हाथ से कमर पर बच्ची को टिकाये. टोकरी में कुछ सब्जियां दिख रही थीं. रूखे बाल चेहरे पर बिखरे थे. कोई साल-डेढ़ साल की मरियल-सी बच्ची टुकुर-टुकुर ताकती हुई.
मैं रुक कर उसे देखने लगा था. वह भी ठिठकी थी. फिर गली में आगे निकल गयी. क्या उसने मुझे पहचाना था? या सब्जी का सम्भावित ग्राहक समझ मुझे देख रही थी? मैं मुड़ कर उसे जाते देखता रहा. धोती का पल्लू लापरवाही से झूल रहा था.
उसके बाद गली-मुहल्लों में घूम-घूम कर सब्जी बेचते हुए वह मुझे अक्सर दिख जाती. कई पहाड़ी परिवारों से उसका अपनापा-सा हो गया था. कभी कोई सब्जी नहीं बिक पाती तो वह ऐसे ही किसी घर की देहरी पर बैठ जाती. बची सब्जी को दरवाजे के भीतर रखते हुए वह कहती- ‘आठै आन दी दिया हो, यो मुयै रत्तै बटी दूधै तैं टणटणै रै.’
उसे अठन्नी मिल जाती और बच्ची के लिए थोड़ा दूध भी. मां बन पड़ने की जिस शर्म को वह कभी रेल पटरी पर फेंकने गयी थी, उसे अब कलेजे से लगा लिया था.
मैं अक्सर सोचता, क्या उसे कैनाल कॉलोनी के दिन याद होंगे जब मैं उससे पहाड़ी गीत बताने की जिद करता था? क्या वह मुझे पहचानती होगी? मैं उससे कभी पूछ नहीं पाया और उसने कभी जिक्र नहीं किया. देखा-देखी होती थी लेकिन बात नहीं.
मैं कॉलेज से निकल कर विश्वविद्यालय पहुंचा और 1977 से पत्रकारिता में आ गया. इन वर्षों में मोहिनी की दुर्गति होती रही. वह काफी मोटी और थुल-थुल हो गयी थी. कभी का गोरा-गुलाबी मुखड़ा जमाने की लपटों से काला पड़ कर मुर्झा गया था. झुर्रियों ने उसे असमय बूढ़ा बना दिया था. घूम-घूम कर सब्जी बेचना छोड़ दिया था. अब वह हुसैनगंज के दीप होटल वाले मोड़ पर सड़क किनारे बैठी दिखायी देती. टाट के एक टुकड़े पर थोड़े आलू, कद्दू. प्याज, टमाटर वगैरह रखकर बेचती. साथ में उसकी लड़की भी होती जो बेहाली में भी बड़ी होती जा रही थी.
मेरा घर-दफ्तर आना-जाना उसी रास्ते होता. रोज ही वह दिखायी देती. रिक्शेवालों, खोंचे-ठेले वालों का अड्डा था वहां. वे सब उससे खिचरोली करते- ‘ओए, पहाड़न, तेरे कद्दू क्या भाव हैं?’
-‘आ, ले जा. तेरी अम्मा के कद्दू रखे हैं!’ वह धड़ल्ले से जवाब देती. साथ में मां-बहन की गालियां भी उनकी तरफ उछालती. जमाने ने उसे जैसा बना दिया था, वह वैसी बन गयी थी.
किसी दिन वह वहीं टाट पर निढाल पड़ी दिखती. कभी धूप में रोड डिवाइडर पर पसरी होती. बीमार रहने लगी होगी. अपने कपड़ों की सुध-बुध भी उसे न रहती. सब्जी की वह ‘दुकान’ बेटी सम्भालती. मां क्रमश: बीमार और कमजोर होती गयी. बेटी बड़ी और जवान.
सन 1982 में हमने कैनाल-कॉलोनी वाला डेरा छोड़ दिया. हुसैनगंज से काफी दूर इंदिरा नगर जाकर रहने लगे. उस तरफ जाना कम हो गया. जब कभी ‘कुमाऊं परिषद’ जाना होता तो मोहिनी की तरफ भी जरूर झांक लेता.
हाँ, यह बताना जरूरी है कि जिस सड़क किनारे मोहिनी और उसकी बेटी का नर्क खुला पड़ा था, उसी सड़क पर चन्द कदम दूर लखनऊ के पहाड़ियों की सबसे पुरानी सांस्कृतिक संस्था ‘कुमाऊं परिषद’ का कार्यालय था. उस समय लखनऊ में पहाड़ियों (तब उत्तराखण्डी शब्द चलन में नहीं था) की आबादी दो लाख तक आंकी जाती थी और पर्वतीय ‘संस्कृति की संरक्षक’ एक दर्जन से ज्यादा संस्थाएं सक्रिय थीं. ‘मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम’ की लीला के मंचन से लेकर कुमाऊंनी-गढ़वाली भाषा-बोली, साहित्य-संस्कृति का संरक्षण-संवर्धन करने वाली संस्थाएं. लोक संस्कृति-भाषा-बोली, आदि का तो पता नहीं लेकिन मोहिनी की कुकुरगत्त सबके सामने होती रही.
सन 1983 में ‘पहाड़’ के पहले अंक में मैंने यह किस्सा लिखा था. तब मोहिनी जिंदा थी, हालांकि बीमार रहा करती थी. ‘कहां-कहां से उठता है धुंआ’ शीर्षक से छपे उस किस्से का समापन करते हुए मैंने लिखा था- ‘तुम, जिसने यह पढ़ा, मोहिनी का दुख मत करना. तुम मोहिनी की बेटी के बारे में सोचना. तुम उन बातों और स्थितियों के बारे में सोचना जिनके कारण यह सब हुआ और आगे भी होगा. इसलिए सोचना कि मोहिनी और उसकी बेटी पर ही यह सिलसिला खत्म नहीं होता.’
उसके कई-कई बरस बाद इस किस्से को दोबारा लिखते हुए मुझे सिर्फ इतना और बताना है कि मोहिनी उसके बाद बहुत दिन जिंदा नहीं रही. ‘कुमाऊं’ परिषद के कार्यालय में ही एक दिन सुना था कि ‘वह सब्जी वाली पहाड़ी औरत मर गयी.’
सड़क के नुक्कड़ पर मोहिनी की जगह उस दिन खाली थी. न उसकी बेटी वहां दिखी, न उसका टाट. जवान हो रही वह बच्ची मुझे फिर कभी नहीं दिखायी दी.
तुम, जिसने यह पढ़ा, गवाह रहना कि मैंने मोहिनी की घात नहीं कही. जो मैंने कही, वह हमारी शिकायत है. मेरी, तुम्हारी, हम सबकी चुगली.
नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.
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