तुम्हें अपने कमरे से जाने की ज़रूरत नहीं है. अपनी मेज के पास बैठे रहो और सुनो. बल्कि सुनो भी मत, बस इंतज़ार करो, ख़ामोश रहो, स्थिर और अकेले. तुम्हारे सामने ये दुनिया ख़ुदबख़ुद अपना नक़ाब उतारने की पेशकश करेगी, उसके पास कोई और चारा नहीं है, वो मतवाली होकर तुम्हारे क़दमों पर लोटने लगेगी. – फ़्रांत्स काफ़्का (Memories of my Rooms Shivprasad Joshi)
ज़िंदगी के कमरे से होकर गुजरती दुनिया (कमरे पर कुछ नोट्स)
मेरा कोई कमरा नहीं था. ऐसे भी कह सकते हैं कि हम सबका एक ही कमरा था. दो कमरे बने तो वे भी सबके कमरे थे. उन कमरों में अलबत्ता हमारे अपने अपने कोने ज़रूर थे. कभी वे भी नहीं रहते थे. कभी घुलमिल जाते थे और कभी कोने बदल जाते थे. एक कमरा ज़रूर मिला छोटी सी गुमटी सा- पलंग और मेज कुर्सी. वो 12वीं और बीएससी की बात थी. चार साल उस कमरे में पढ़कर सो कर गुज़ारे, लेकिन वो कमरा इसलिए अलग से नहीं था क्योंकि आवाजाही का गलियारा भी था. दिन भर लोगों का चलना रहता. बचपन से लेकर बालिग होने तक कोने बनते और बदलते रहे.(Memories of my Rooms Shivprasad Joshi)
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कमरे उन किताबों की तरह होते हैं जिन्हें आप पढ़कर बंद कर आए और भूल गए, फिर अचानक कोई अवसर अजनबी की तरह आता है और कुछ याद दिलाने की कोशिश करता है. स्मृति दबे पांव उठती है और उन कमरों की ओर लौटने लगती है. जैसे किताब के पन्ने फड़फड़ाए. मेरे पास बहुत से ऐसे कमरों की याद एक कीमती संग्रह की तरह रखी है.(Memories of my Rooms Shivprasad Joshi)
बचपन से आज तक. जाख, मरोड़ा, टिहरी, घनसाली, दोणी, पाख, अखोड़ी, मुणैती, नैनीताल, अल्मोड़ा, हल्द्वानी, मुक्तेश्वर, दिल्ली, ग़ाज़ियाबाद, नोएडा, रांची, गिरीडीह, मुजफ्फरपुर, बंगलौर, पांडिचेरी, मद्रास, चंडीगढ़, जयपुर, बॉन, फ्राइबुर्ग. कितने सारे लोगों के पास कितने सारे कमरों की याद रहती होगी. एक जीवन कहां कहां ले जाता है और एक जीवन कितने सारे कमरों से होकर गुजरता है. या ये जीवन ही एक कमरे की तरह व्यतीत होता है. क्या मृत्यु भी एक कमरे की तरह हमारे पहुंचने का इंतज़ार करती है.
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मेरे गांव जाख की गुमटी उन कमरों में से एक थी जहां भूतप्रेत, देवी-देवता और हम बच्चे रहते थे. एक दिया दूर कहीं टिमटिमाता रहता था और वो इतना काला पड़ चुका था जैसे रात के अंधकार के निर्वात में कोई लौ झूलती हुई सी बहुत मद्धम इधर से उधर हिल रही है. कौन उसे हिला रहा है. हम ऑक्सीजन नहीं जानते थे, रात भूतों का भूगोल था. हमें उसी में सांस लेनी थी. सुबह मुक्ति के दरवाजे की तरह खुलती और बिना एक पल गंवाए हम उसमें कूद जाते.
ननिहाल मरोड़ा में कमरे हमारी बदमाशियों और खुराफ़ातों के अड्डे थे. जेठी मां के जर्जर होते मकान का कमरा बरबस ही याद आता है. जिसकी नीली पुताई कोनों से और सीलिंग से उखड़ती थी और हम पर गिरती थी. कुछ पपड़ियां हमने दीवारों के भीतर न जाने किन रहस्यों को देखने के लिए उखाड़ डाली थीं. उस कमरे पर हमारे बचपन के नाखून भी खिंचे हुए हैं. और वो इतने साल बाद भी, जसकातस टिका हुआ है. जैसे उसकी दरारों ने और उसकी जर्जरता ने ही उसे अपने कमरों के साथ संभाला हुआ है. क्या हमारे बचपन के हाथों की छाप उन दीवारों को गिरने से रोके रखे हुए होगी.
मरोड़ा में एक कमरा जो सबसे ख़ास था उसकी दीवार पर हज़ार वर्षों का ब्यौरा देता हुआ एक विशेष पंचांग-कैलन्डर टंगा था जिसे अपने ज़माने के मशहूर ज्योतिषी और विद्वान पंडित अंबादत्त डबराल ने बनाया था, हिंदी कवि मंगलेश डबराल के दादाजी. एक दीवार पर लेनिन का पोर्ट्रेट था. एक कोने पर लकड़ी की लाल रंग की अल्मारी थी. उसे खोलते हुए एक नयी दुनिया में दाखिल हुआ जा सकता था. “द क्रॉनिकल्स ऑफ़ नार्निया” की दूसरी किताब “द लॉयन, द विच ऐंड द वार्डरोब” की तरह या “एलिस इन वंडरलैंड” की तरह या किसी और करामात की तरह वहां किताबें थीं.
प्रेमचंद, रेणु, राहुल सांकृत्यायन, तोलस्तोय, गांधी, गोर्की, भगतसिंह. हिंदी के पुराने क्लासिक. कहानी, उपन्यास और सारिका और दिनमान और पहल के अंक और रूसी उपन्यास. और भी बहुत सारी पत्रिकाएं, पम्फलेट, पर्चे. उस अल्मारी की करामात थी कि जितना टटोलो कुछ न कुछ मिलता ही रहता था. मार्क्स और लेनिन से पहला परिचय वहीं हुआ. हमारे बचपन और हमारी डर भरी रातों में भूतप्रेतों और बाघ की जगह अब नये लोग और नये किस्से दाखिल हो रहे थे. कमरा हमारे भीतर एक नयी खिड़की खोलने उतर गया था. वो मेरे बड़े मामा का कमरा है.
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मुक्तेश्वर के पास हमने रवीन्द्रनाथ टैगोर का ऊंची पहाड़ी पर बना दो कमरे का मकान देखा. मकान था अब खंडहर है. उसकी गिरी हुई दीवारें देखी और अलावघर के अवशेष भी. एक कमरा नहीं भी होता तो स्मृति उसकी रेखाएं उकेर देती हैं. कल्पना का कमरा आकार लेता है और फिर हम खंडहर में नहीं कमरे में ही कुछ देर जैसे एक कोने में बैठे हुए गुरू रवींद्र को देख रहे हैं अपनी बीमार बहन के पलंग के पास कुर्सी में बैठे हुए- क्या सुना रहे हैं वे- क्या कोई गीत.
फ़्रीडरिश नीत्शे ने अपने गूढ़ मनोवैज्ञानिक संदर्भों में जो बात कही थी उसे थोड़ा बदलकर कहें कि देर तक एक कमरे को देखते रहो तो वो भी वापस आपकी ओर घूरने लगता है. वह जैसे आपकी ही किसी खोयी हुई चीज़ का पता जानता है. और आपसे मुखातिब है लेकिन अफ़सोस आप ये संकेत नहीं पहचानते.(Memories of my Rooms Shivprasad Joshi)
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एक कमरा एक अदृश्य झोले की तरह आपके साथ रहता है. कंधे पर नहीं, स्मृति में. वही हमें उन कमरों तक जाने का रास्ता बताता है जिन्हें हम भूल गए हैं या जो हमारे पीछे पीछे हमारे साथ चले आ रहे हैं. और वो बनता हुआ कमरा खुलता है, अभी भी बन रहा है. बल्लियां लगी हैं, लेंटर डाला गया है, ईंटों की दीवार है पनीली और फ़र्श पक्का नहीं, अभी मिट्टी और रोड़ियां पड़ी हैं. किसी तरह जमाई हुई कुर्सी और टेबिल और तार खींचकर बल्ली पर लटकाया गया एक बल्ब है. बल्ली उस जगह काली सी पड़ गई है और उसके कालेपन पर पीला पुता हुआ है. ये एक बहुत अजीब रंग है. कीट-पतंगे उड़ रहे हैं और मेज पर किताबें हैं राजनीति शास्त्र की एमए की परीक्षा सर पर है. और ऊपर के कमरे में बैठे पिताजी से कोई पड़ोसी कहकर निकला है कि ठीक हुआ, एक झंझट ख़त्म हुआ.
एक मस्जिद ढहा दी गयी है और बल्ब एक पीला सा गुंबद है और मैं झटके से कुर्सी हटाकर खड़ा हो गया हूं. निर्माणाधीन कमरे में मेरा वजूद पलस्तर की तरह झड़ने लगा और एक नया मनुष्य उस कमरे से मेरी आंखों के सामने निकला. मुझे डर जाना चाहिए था लेकिन मैं उसे पहचानता था. कमरा मेरे समय का दर्शन बना. मुझे मेरी दार्शनिकता मिली जिसे आगे और लहुलूहान होना था.
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दिल्ली जब गया तो मुझे घर परिवार भोजन सब मिला. ये मेरी ख़ुशनसीबी थी. किताबें संगीत अख़बार बिछावन सब कुछ. मैं किताबों और टेपरिकॉर्डर वाले कमरे में सोता था, साकेत के पुष्पविहार में चौथी मंजिल पर वो अपार्टमेंट था. और मेरे साथ बिस्तर लगा रहता था दादी का (मंगलेश जी की मां). किताबें आल्मारी में रहती थीं और किस्से दादी की ज़बान पर रहते थे. हमने कितनी रातें कितनी बातें की, रात में नहीं तो दिन में, शाम को. दादी के पास जादुई सामर्थ्य थी, मैं अनुवाद करने बैठता या कुछ लेख लिखने या कुछ पढ़ने तो दादी पहुंच जाती- हमारा यख एक औखाणु बोलदन, सुणा…..( हमारे यहां एक कहावत ये कही जाती है, सुनो…) वो तू में नहीं तुम के संबोधन से मुझसे गढ़वाली में बात करती थी. वो मुझे गौर से देखती रहती थी. आज भी लगता है कि उनकी निगाहों की छाप मेरी देह और मनमस्तिष्क पर अंकित है.
शायद इस प्रेम की एक वजह ये भी रही थी कि मैं अपनी दादी को कभी नहीं देख पाया था. बस सुना ही था कि घास काटने गयी थी, बाघ ने हाथ खा लिया दूसरे हाथ से लड़ी और बचकर लहुलूहान घर आ गयी, इलाज चला लेकिन फिर ज़्यादा दिन जीवित नहीं रह पायी.
और दिल्ली का एक वो कमरा, आईआईएमसी और साकेत के बीच स्थित उस कमरे में मेरा आनाजाना ऐसे था जैसे अपने साथ ले जाता हूं और साथ लेकर लौटता हूं. कमरा एक गठरी की तरह था. उसमें मनुष्य श्रम की गंध थी. और स्त्रियों की तरह अच्छाई का वास था. मैं एक कमरे से निकलता और दूसरे कमरे में पहुंच जाता.(Memories of my Rooms Shivprasad Joshi)
कमरे दिल्ली में अलग अलग जगहों पर थे जैसे मेरी कामना ने उनकी दीवारें को एकदूसरे से चिपका दिया था और दरवाजा खोल दिया था. वह दूरी कदम की तरह थी. जैसे ब्रह्मांड का कोई वैकल्पिक समय, कोई अचिन्हित दिक्-काल. आकाशगंगाएं खुल रही थीं, फैल रही थीं और विलीन हो रही थीं. एकमात्र स्पर्श प्रेम का ही था जो कुछ पल के लिए इस आवेग को स्थिर कर देता था. प्रेम की अपनी गतिकी थी. कमरा जैसे नदी किनारे अटकी हुई नाव जैसा था.
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वही तो था, ठीक वही जो वह राइन नदी के किनारे था, लकड़ी की सीढ़ियों के ऊपर बना, पेड़ों की ऊंचाई के पास, उसकी खिड़कियों पर जैसे पेड़, बादल, चिड़िया, नदी और लोग बने हुए थे. एक खिलखिलाहट जिसमें नमी है और उदासी है. बहुत पास से आपको छूकर गुज़र जाती हुई. हर चीज़ इतनी शांत हो गई थी मानो जो खिड़की पर अंकित है वो हड़बड़ा न जाए. पेड़ अपनी जगह भला कहां हड़बड़ाता है, बादल कहां हड़बड़ाते हैं, नदी तो जैसे कहीं न जाती हुई बह रही है और चिड़ियां अपनी उड़ान में हैं और लोग और बच्चे आ जा रहे हैं, कुछ पैदल हैं कुछ साईकिलों में, अपनी ख़ामोशियों में, बर्फ़ उन पर ऐसे गिर रही है जैसे उनके चलने को अपनी ख़ामोशी से भरती हुई.
कमरा एक भराव है- आकांक्षा और मौन का, उम्मीद और निराशा का, प्रेम और इंतज़ार का. नदी पर एक नाव की तरह मेरा कमरा रखा हुआ है और ये नदी मेरे घर जा रही है. मैं कई हजार किलोमीटर दूर, विदेश में हूं और अपने घर जा रहा हूं. कमरा जितना अंदर बुलाता है उतना ही बाहर को उलीचता रहता है जैसे मैं नहीं सैलाब हो.(Memories of my Rooms Shivprasad Joshi)
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खुले मैदानों में लड़ाइयां हुईं इतिहास लिखे गए और बनाए गए. बंद कमरों में भी लड़ाइयां हुई और इतिहास लिखे गये और बनाए गए. बंद कमरों में साज़िशें हुईं, भूगोल बदले गए, ज़हर भरे गए और तलवारें चमकाई गईं, बंदूकों में गोलियां भरी गईं और दिमाग में हिंसा. बंद कमरों में कितनी नाइंसाफियां हुईं- मैं एक एक कमरे से होकर गुज़रा और जानने की कोशिश की. कौन इन कमरों में ज़हर गिराता है. कौन दीवारों में कान लगाता है और कान भरता है. कौन अपने विषैले दांत चुभोता है और गुर्राहटें फेंकता है कौन नकलीपन और प्रपंच के पर्चे फेंकता है और कमरों को यातनाघरों में बदल देता है या जहरीली गैस के चैंबरो में.
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साबरमती में मोहनदास और कस्तूरबा का कमरा देखा. दर्शकों और आगुंतकों की छटाएं और हैरानियां देखीं. पुराने अहमदाबाद के जले हुए एक कमरे को देखने मैं नहीं गया. अपने कमरे में लौट आया जो एक होटल में था. वहां से मैने तरक्की और इत्मीनान देखा, हिंसा और नफ़रत भी अट्टालिकाओं के समांतर ऊंची उठ चुकी थी और बहुत नुकीली हो चुकी थी. कमरे में हम सिर्फ़ आंतरिक ज्यामिति, कोने, कोण आदि नहीं देखते, हम कमरे का भीतर ही नहीं देखते, दरअसल अपने अंदर भी झांक सकते हैं. जैसे साबरमती के कमरे दरअसल आईने हैं. लेकिन उनमें हम खुद को कहां देख पाते हैं.(Memories of my Rooms Shivprasad Joshi)
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कमरे में रखी चीज़ें भी जैसे समय के साथ अपना जीवंत वजूद धारण करती हुई आपकी रूममेट बनती जाती हैं. अल्मारी, किताबें, संगीत, कम्प्यूटर, जूते, मफ़लर, चाभी, लाइटर, दस्ताने, टोपी, कोट, मेज पर रखे कप, प्लेटें, गिलास, वाइन की बोतल और यहां तक कि वो प्रेशर कुकर भी जो गाहेबगाहे अपनी सीटी से कभी चौंकाता तो कभी पास बुलाता रहता है. कमरे में अकेले बैठकर जो शब्द आप लिखते हैं वे भी आपके साथी हैं.
विदेश में अकेले रहते हुए सबसे मूल्यवान अगर कुछ है तो वो है आपका कमरा. उससे आप बिछुड़ना नहीं चाहते और बार बार वहीं लौटना चाहते हैं और बार बार ये भी चाहते हैं कि कब यहां से निकलकर अपने घरपरिवार के पास पहुंच जाएं. कमरा बुलाता भी है और जाने की कसक भी बनाता रहता है. बाज़दफ़ा वह हमारी चेतना और हमारा विवेक बन जाता है.
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हमारे कवि मुक्तिबोध ने अंतःकरण के आयतन का उल्लेख किया था. क्या अंतःकरण भी एक कमरे की तरह है देह के भीतर. एक कमरा हो या बहुत से कमरे या जीवन में आए सभी कमरे- उनमें ऐसे निवास करूं जैसे अपने अंतःकरण में. मेरी सबसे बड़ी सामर्थ्य क्या होगी. शायद यही कि अपनी अच्छाई को हरगिज़ न गंवाऊं. और जैसा कि प्रिय कवि असद ज़ैदी कहते हैं आज के इस बदहवास समय का सबसे बड़ा इम्तहान, सबसे बड़ी क्रांति और सबसे बड़ी सामर्थ्य तो यही है कि आप अपनी ज़मीन पर मजबूती से खड़े रहें, ख़ुद पर भरोसा रखें और फिसल न जाएं.
आत्मा का कमरा साफ़ रखना चाहिए और उसे धूल और शोर से बचाना चाहिए. उसे विवेक की ऊष्मा और संघर्ष के ताप की जरूरत है. जैसे उसे बारिशों की और पतझड़ों की और सर्दियों की नाज़ुक धूप की भी ज़रूरत है. उस कमरे को अपने मौसम ही नहीं अपने लोग भी चाहिए.(Memories of my Rooms Shivprasad Joshi)
–शिवप्रसाद जोशी
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शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और जाने-माने अन्तराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों जैसे बी.बी.सी और जर्मन रेडियो में लम्बे समय तक कार्य कर चुके हैं. वर्तमान में शिवप्रसाद देहरादून और जयपुर में रहते हैं. संपर्क: joshishiv9@gmail.com
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Bahut samay bad ek sunder aur atmiya rachna se sakshyatkar hua . Badalte kamron aur badalte manudhya ka wastvik vivechan.!!!!!!