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कॉर्बेट की कालाढूंगी, कुमाऊँ का कमिश्नर और सुल्ताना डाकू

गोविन्द राम काला की दुर्लभ पुस्तक ‘मेमोयर्स ऑफ़ द राज’ बीसवीं शताब्दी के शुरुआती सालों के पहाड़ों के सामाजिक जीवन, भारत के स्वतंत्रता संग्राम और अंग्रेजों की कार्यशैली का जरुरी महत्वपूर्ण दस्तावेज है.

हमने इस किताब से आपको एक अंश पहले अनूदित कर पढ़वाया है – अल्मोड़ा में सरला बहन का मुकदमा और डिप्टी कलक्टर का बयान. आज पढ़िए एक और अंश जो 1919 के आसपास का है जब गोविन्द राम काला कालाढूंगी में तहसीलदार के पद पर तैनात थे.

जिम कॉर्बेट का नगर कालाढूंगी पहाड़ों की तलहटी पर स्थित है. उस समय यहाँ स्थाई रूप से बहुत थोड़ी जनसंख्या निवास किया करती थी. दुर्गा पूजा के बाद पहाड़ों के लोग गर्मी और काम के लिए यहाँ आ जाया करते थे और होली के बाद लौट जाते थे. बरसातों के मौसम में आबादी बहुत कम रह जाती थी. पहाड़ के लोग गर्मी और मलेरिया बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. यह वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइजेशन और डीडीटी के बहुत पहले की बातें हैं.

पांच सौ की संख्या भी सरदर्द करने को काफी हुआ करती थी. जहाँ तक मुझे याद पड़ता है नगर में कुल दस या बारह पक्के मकान थे. सारी पुलिस एक हैड कांस्टेबल तक सीमित थी. असहयोग आन्दोलन अपने चरम पर था. ‘भारत माता की जय’ और ‘अंग्रेज मुर्दाबाद’ के नारों से आसमान अटा रहता. सारा माहौल अंग्रेज विरोधी बन चुका था.

विरोध स्वरूप लोगों ने इलाके का दौरा कर रहे अफसरों को ईंधन, घास और दूध की आपूर्ति करने पर रोक लगा दी. कालाढूंगी में न तो कोई कोर्ट-कचहरी थी न कोई स्कूल जिनका बहिष्कार किया जा सकता. हालांकि वहां किसी तरह का अंदोलन तो नहीं था अलबत्ता शोर खूब होता था. मैंने पाया कि बिलकुल सादे अपढ़ ग्रामीण भी राज के विरुद्ध थे. मुझे इस असंतोष का स्वाद चखने को मिला जब मुझे बोर्ड ऑफ़ रेवेन्यू के एक सदस्य मिस्टर डार्लिंग के दौरे के लिए व्यवस्थाएं करनी पडीं. उनके कैम्प के लिए हमेशा की तरह दिए जाने वाले पांच रुपयों के बदले मुझे जलाने की लकड़ी और घास के लिए पच्चीस रुपये खर्च करने पड़े. इतना ही खर्च अगले कैम्प यानी कोटाबाग में भी हुआ. मैंने दस रुपये का बिल बनाकर भेजा जिसे पास कर दिया गया. मुझे लगा कि अगर मैंने अधिक पैसा माँगा तो मुझे दुरुपयोग का दोषी पाया जाएगा. इस बात पर कोई भी याकें अन्हीन नहीं करता कि मैंने पचास रूपये खर्च किये थे. कुछ दिनों के बाद डिप्टी कमिश्नर मिस्टर ममफोर्ड निरीक्षण पर कालाढूँगी आये और उन्होंने मुझसे मिस्टर डार्लिंग के दौरे की बाबत पूछा. मैंने बताया कि वे शिकार तो कुछ नहीं कर सके अलबत्ता वे अपनी सेवा से बहुत संतुष्ट थे.

मिस्टर ममफोर्ड ने तब मुझे ऐसे ही बताया कि पिछले साल अपने शीतकालीन दौरे के समय उन्हें बैलपडाव में अपने घोड़े के लिए न तो घास मिल सकी थी न चूल्हे के लिए ईंधन. उन्हें अपने चपरासी को जंगल में लकड़ी काटने और साईस को घास काटने भेजना पडा था. मुझे कहना पडा कि चीज़ें कमोबेश अब भी वैसी ही थीं और यह भी कि मुझे गलत समझे जाने के भय से खुद अपनी जेब से पैसा खर्च करना पड़ा था. उन्हें दुःख और गुस्सा दोनों का अनुभव हुआ – गुस्सा इसलिए कि मैंने पूरा बिल जमा नहीं किया था और दुःख इसलिए कि मैं ऐसा नहीं कर सका था. उन्होंने मुझे बताया कि मिस्टर डार्लिंग महीने की चार हज़ार रुपये की तनख्वाह पाते थे और आसानी से चालीस रुपये का खर्च उठा सकते थे. यह अजीब था लेकिन उन्होंने मेरी मदद करने का रास्ता खोज ही निकाला. जब मैं नैनीताल में नायब तहसीलदार था, मैंने युद्ध-संबंधी कुछ कार्य किया था और श्री जयलाल साह ने मेरे नाम की सिफारिश ईनाम के लिए की थी. मुझे अच्छा काम करने के लिए पचास रुपये का ईनाम दिया गया.

मिस्टर ममफोर्ड सभी को एक सा न्याय देने के हामी थे चाहे वह किसी भी जाति से हो. वे फूट डालो और राज करो की नीति में यकीन नहीं रखते थे और असहयोग आन्दोलन को दबाने के लिए भी उनके कोई अति उत्साह नहीं था. वे कमिश्नर विंडहैम को पॉजिटिव रूप से नापसंद करते थे. उन्होंने एक बार मुझे बताया था कि मिस्टर विंडहैम राज़िलपरवर थे शरीफ़परवर नहीं. वे जब भी साथ साथ दौरे पर होते मिसेज ममफोर्ड मुझसे कहती थीं कि उनका टेंट मिस्टर विंडहैम के टेंट से पर्याप्त दूरी पर लगवाया जाय. इसका कारण वे यह बताती थीं कि मिस्टर विंडहैम से बहुत बदबू आती थी. क्या ऐसा इसलिए था कि मिस्टर विंडहैम एक आउटडोर किस्म के व्यक्ति थे? ऐसा विचार केवल मिसेज ममफोर्ड का ही नहीं था. यह बात तो निश्चित थी कि वे महिलाओं के बीच विशेष लोकप्रिय नहीं थे. मिस्टर विंडहैम अविवाहित थे. वे कभे कभार ही अच्छे कपडे पहनते थे और अपनी साजसज्जा को लेकर कतई लापरवाह थे.

जब मिस्टर ममफोर्ड कमिश्नर बनकर नैनीताल से बनारस गए तो मैं उन्हें विदा करने काठगोदाम रेलवे स्टेशन गया. मिस्टर विंडहैम भी वहां थे. मैंने देखा कि मिस्टर ममफोर्ड ने मिस्टर विंडहैम से दो या तीन मिनट हल्की-फुल्की बातचीत की जबकि मुझे उनके पूरे बारह मिनट मिले. ट्रेन के रवाना होने से पहले मिस्टर ममफोर्ड ने मुझसे कहा कि मुझे मिस्टर विंडहैम के रहते किसी तरह के प्रमोशन की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. यह बात सच साबित हुई. मैं जब भी उनसे प्रमोशन के लिए अपना नाम भेजने की सिफारिश करता उनका एक ही उत्तर होता – “एक ब्राह्मण के लडके के लिए तहसीलदार बन चुकना खासी अच्छी बात है!”

उत्तर प्रदेश असेम्बली के चुनाव के सिलसिले में पंडित गोबिंद बल्लभ पन्त कालाढूंगी आये. हम काशीपुर के जमाने से दोस्त थे और वे मेरे साथ दो दिन रहे. मैंने उनकी हरसंभव मदद की. वे असेम्बली के लिए चुन लिए गए.

एक रात डाकू सुल्ताना भांतू ने हमें बहुत डराया. शहर में अफवाह फैल गयी थी कि सुल्ताना का गिरोह शाम को हमला करने वाला है. पुलिस चौकी का हेड कांस्टेबल मेरे पास आया कि मैं सुरक्षा पार्टी का बंदोबस्त करूं. हमने आसपास के गांवों से बीस-तीस बंदूकों की व्यवस्था की और रात भर पहरा दिया. सुल्ताना कभी भी सरकारी कर्मचारियों को परेशान नहीं करता था न ही सरकारी खजाने को हाथ लगाता था, वरना वह चाहता तो तराई भाबर के सभी सरकारी खजाने लूट सकता था क्योंकि उनकी पहरेदारी बहुत दयनीय तरीके से होती थी. उस रात डाकू नहीं आये!

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