तीस के दशक में कभी रानीखेत तहसील के एक छोटे से गाँव करगेत से निकले पाँच भाइयों ने जब जीवन में अपने लिए कुछ सपनों के साथ शहर का रूख किया तो कानपुर का यही घर उनका ठिकाना बना जिसे उन्होंने बड़ी मेहनत और प्यार से बनवाया था.
दो -तीन भाई और उनके बच्चे हमेशा यहीं रहे और बाक़ी नौकरी के सिलसिले में इधर-उधर पर घर का मतलब था यही – बीच में बड़े से दालान वाला घर जिसके चारों ओर कमरे थे. यहाँ भाइयों का जमघट होता और उनके ठहाके गूँजते; सुबह चार बजे ताऊजी की खड़ाऊँ की आवाज़ बच्चों का अलार्म होती और झक सफ़ेद सूती धोती पहने दादी सर्दियों में धूप सेंकती.
घर के बाक़ी भाई -बहन जो वहाँ रहे उनका तो स्वाभाविक जुड़ाव इस घर से होना ही था लेकिन मेरे साथ ये घर एक साये की तरह लिपटा रहा है तो इसके गुदगुदाते क़िस्सों की बदौलत. एक मैं ही थी जो अपनी याददाश्त में कुल जमा तीन बार वहाँ जा पायी. माँ के पास घर के क़िस्सों का ख़ज़ाना था और भाई-बहनों के पास साझे घर के अपने लुका-छिपी भरे अफ़साने.
बड़े ताऊजी के कड़े नियम-क़ायदों के चलते घर में फ़िल्मों का नाम लेना भी गुनाह था,तब भी एक बार उन्हीं अनुशासन प्रिय ताऊजी की बेटी और हम सबकी बड़ी दी जो उस समय मेडिकल कॉलेज में थी एक दिन चुपचाप हमारी माँ को लेकर कोई फ़िल्म देख आयी और किसी को इसकी भनक तक ना लगी. ये दूसरी बात है कि चाची- भतीजी के ऐसे अगले दुस्साहस पर घर के ही एक भेदिए ने राज़ खोल दिया और चोरी पकड़ी गयी.
दादी खान – पान का परहेज करती थी. उनके खाना खा चुकने तक कोई रसोई के दरवाज़े के आसपास भी नहीं फटक सकता था और ये सुनिश्चित करने के लिए वो बाक़ायदा कुर्सी डाले रसोई के दरवाज़े पर जमी रहतीं. मैंने दादी को केवल फ़ोटो में देखा जिसमें उनके बस गर्दन तक बाल होते और मैं अक्सर सोचती ‘वाह. दादी तो बड़ी माडर्न थी, उस ज़माने में कटे बाल !’ ऐसा सोचकर ही मुझमें एक ठसक सी आ जाती. मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन मैंने अपनी किसी सहेली को दीवार पर टँगी दादी की फ़ोटो दिखाकर कहा, “ देख मेरी दादी के कटे बाल थे.” अब अपने इस बचकानेपन पर हँसी आती है.
बड़े भाई -बहन जो कॉलेज पहुँच गए थे उनके अलावा छोटे बच्चों का भी एक पूरा दल था जिसे ताऊजी तक़रीबन रोज़ ही अपने साथ पास के स्वरूपनगर पार्क में घुमाने ले जाते. और रास्ते में क्या होता – रास्ते भर उन्हें इंग्लिश ग्रामर पढ़ाई जाती, टेन्सेज़ रटवाए जाते, ट्रान्सलेशन करवाए जाते जबकि ताऊजी ख़ुद उस वक़्त बी एन एस डी कॉलेज में संस्कृत पढ़ाया करते थे.
यही काम पिताजी मेरे साथ नैनीताल में किया करते थे. सातवीं या आठवीं क्लास में पढ़ रही मैं एक तरफ़ स्कूल जाने को तैयार हो रही होती. कभी जूते के फ़ीते बाँधती तो कभी बाल बनाती और पिताजी कहते,” जब मैं स्टेशन पहुँचा तब तक गाड़ी जा चुकी थी.” ट्रांसलेट करो. आख़िर थे तो ताऊजी के भाई ही.
तो ऐसे ही सरस्वती पूजक भाइयों के परिवार की दिशा और दशा इसी घर ने तय की.
कितने ही बच्चों के जनम पर इसी घर में मंगल -गान हुआ और ज़्यादातर के ब्याह पर आम की बंदनवार भी यहीं सजी.
कितनी ही खट्टी -मीठी यादों, सुख-दुख, जीवन -मरण को अपनी दीवारों के भीतर दुबकाए ये नीड़ ठीक चिड़िया के घरोंदे की तरह ख़ाली होता चला गया. पंछी अपने नए सपनों की और ऊँची उड़ाने भरते गए और एक दिन बड़े भारी मन से अपनी -अपनी यादों की गठरी बांधे इसे किसी और के हवाले कर दिया गया.
डोर इतनी आसानी से कहाँ टूटा करती है. बेटा किसी काम से कानपुर गया तो मेरे विशेष आग्रह पर अपने दोस्त को लेकर इस घर को देखने गया. वो शायद बाहर से ही वापस लौट आता लेकिन इत्तफ़ाक़न मौजूदा मकान-मालकिन मिल गयीं. बेटे ने परिचय दिया तो उन्होंने न केवल भीतर बुलाकर चाय पिलाई बल्कि अपने नाना – नानियों का पूरा घर अच्छी तरह से देख लेने का प्रस्ताव भी दे डाला. बड़े शहरों में इस तरह का भाव कम ही पाया जाता है. संकोची बेटा ऐसा नहीं कर पाया लेकिन मेरे ख़ुद के पच्चीस बरस से भी अधिक समय पहले देखे इस घर की कुछ यादें ज़रूर ताज़ा कर लाया.
ज़िंदगी की गाड़ी समय के पहिए पर सवार पीछे मुड़ना नहीं जानती और मन है कि किसी कंजूस की तरह सब कुछ समेट कर रखना चाहता है.
स्मिता कर्नाटक. हरिद्वार में रहने वाली स्मिता कर्नाटक की पढ़ाई-लिखाई उत्तराखंड के अनेक स्थानों पर हुई. उन्होंने 1989 में नैनीताल के डीएसबी कैम्पस से अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. किया. पढ़ने-लिखने में विशेष दिलचस्पी रखने वाली स्मिता की कहीं भी प्रकाशित होने वाली यह पहली रचना है. उन्हें बधाई!
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