समाज

अषाढ़ी कौतिक मेले की दुकानदारी मतलब मुनाफे में घाटा

रक्षाबंधन या अषाढ़ी कौतिक का मेला. रिमझिम बारिश के बीच घर से निकलते तो मन मे उमंग और उत्साह रहता था. साथ ही कमाई की ललक भी. उम्मीद रहती थी कि पांच ककड़ी भी बिक जाएं तो स्कूल की फीस तो हो ही जाएगी. निकल पड़ते घर से लोहाघाट. उस बरस गांव के चाचा साथ में थे. उन्होंने कहा- ककड़ी की बिक्री के अलावा सौ रुपये जलेबी- मिठाई की दुकान में बेचने या जलेबी बनाने में सहयोग के अलग, तो जाहिर है मन की खुशी सातवें आसमान पर थी.
(Memoir by Kishore Joshi)

ईजा भी खुश, चलो कुछ तो कमाकर ही लाएगा. फीस की टेंशन तो दूर होगी ही. क्या पता चाय-गुड़ का भी इंतजाम हो जाय.  दोपहर बाद लोहाघाट से सामान खरीदकर निकल पड़े चोमेल. रात होने को थी कि कस्बे के एक खाली मकान में पहुंच गए. खाली पेट में एक ही उमंग सवार थी कि कब दुकान लगे, कब बिक्री शुरू हो. बिना ओढ़ने- बिछौने के बरामदे में गहरी नींद आई. तड़के निकल पड़े, दुकान लगाने. चचा- भतीजे की जोड़ी के साथ गांव व पड़ोस के गांव के लोगों की भी जोड़ियां थी, जो दुकान लगाने निकली थी. अधिकांश की दुकान जलेबी-मिठाई की ही थीं.

तड़के ही मां भगवती मंदिर. मेलास्थल से करीब एक किमी दूर गया, पानी का कनस्तर लेने. पूरा कंधा भीग गया, पर मन में कमाई का भूत सवार. जैसे-तैसे कनस्तर के कोने से कंधे के दर्द को सहन करते हुए पानी पहुंचा ही दिया ठिया पर. अब चचा के साथ मिठाई बनाने का काम शुरू हुआ. तसले में चीनी डाली, ऊपर से कनस्तर का पानी मिला दिया.  इसके बाद उस पर खाने वाले रंग का लेप चढ़ाया, बन गई मिठाई. भाव 40 रुपये किलो.

अब बारी जलेबी की थी. खमीर लोहाघाट से ही ले गए थे, ताकि मैदा जल्दी लग जाय,  जो जल्दी लग भी गया. बिगड़ा मौसम डरा रहा था, मगर धूप के बीच रिमझिम बारिश में ककड़ी कब बिक गई, पता ही नहीं चला. मैदा लगने,  बक्खर तैयार होने के बाद  बांज की लकड़ियों की भट्टी में चढ़ा दी तेल की चासनी. चचा अनुभवी थे, तो जलेबी टाइट निकलने लगी, जो मैदा सही लगने की निशानी होती थी. जलेबी उतारने को बगल में तसला रख दिया. आगे मैं बन गया बिक्री वाला लाला. गल्ला-इंचार्ज.  अभी मेले में भीड़भाड़ नहीं थी. भीड़, डोला आने के साथ होती थी और वही लगाई पूंजी की वापसी के साथ कमाई का मौका होता था. बिक्री वाले का तेजतर्रार होना जरूरी होता था. अभी दोपहर का समय था, तो मैंने जलेबी बनाने की इच्छा जताई. चचा ने खुशी-खुशी हां कह दिया.
(Memoir by Kishore Joshi)

इसी बीच रिमझिम बारिश शुरू हो गई तो मैंने दुकान की प्लास्टिक को सही कर दिया, ताकि पानी तेल, जलेबी में न पड़े. जलेबी में पानी गिरना, मतलब सारी मेहनत पर पानी फिरना. प्लास्टिक की चहारदीवारी के बीच जलेबी बनाने लगा तो प्लास्टिक पिघलने लगा. आग का खतरा तो नहीं था मगर प्लास्टिक पिघलकर मोम जैसा हो गया. करारी जलेबी बनाकर तसले में निकालता जा रहा था. एकाएक तसले में जलेबी का ढेर कम देखकर मैं चौंक गया. लाजिमी भी था, मैंने आगे सजाने को जलेबी चचा को दी नहीं थी. तभी मुझे प्लास्टिक के बीच एक हाथ झांकता नजर आया, जो जलेबी उठा रहा था. दुकान से बाहर जाकर देखा तो तीन नवयुवक दुकान से सटी पहाड़ी में एक हाथ से घास पकड़कर, दूसरे हाथ से मजे में जलेबी खा रहे थे. उन्होंने जलेबी के लिए दुकान के पिघले प्लास्टिक को हाथ से फाड़कर जुगाड़ बनाया. मैंने उन्हें फटकारा तो वे भाग गए. करीब दो किलो जलेबी तो चट कर ही गए होंगे. चचा बहुत गुस्से में थे. उनके साथ ही मेरी लापरवाही पर भी कि तू लाटा है. उन्हें क्यों नहीं देख पाया.

माता भगवती की कृपा रही कि सामान अधिकांश बिक ही गया था. ग्राहकों की भीड़ से पहले मैंने बगल में गांव के बुबू को  मिठाई काटने के लिए चाकू दिया तो चचा भड़क गए. बाद में पता चला कि मेले के दुकान में किसी को जरूरत की चीज नहीं देते, भले ही सगा क्यों न हो. मंशा रहती थी कि मेरी बिक्री हो जाय, भले ही दूसरे की ना हो. मेले की समाप्ति के बाद हम अपने व पड़ोस के गांव के करीब दस-बारह दुकानदारों के साथ पैदल ही घर को निकल पड़े. जो लोग मेले में जानी दुश्मन की तरह बोलचाल कर रहे थे, रास्तेभर कमाई की समीक्षा में जुट गए. कोई घाटा तो कोई फायदा गिनाता रहा.

घर जाकर पता चला कि जिसने घाटा बताया वह फायदे में था, और जिसने मुनाफा बताया , उसे घाटा हुआ था. मेले की दुकानदारी की यही रीत है. मेले की दुकान का सामान उधार ही लिया जाता था जो अगले दिन लोहाघाट जाकर चुकाया जाता था. हम भी पूंजी देने गए. मैं इंतजार में था कि ककड़ी के साथ सौ अतिरिक्त मेहनत के मिलेंगे मगर चचा ने सौ ही दिए. ककड़ी का हिसाब उसी में समझ लिया गया. तब से मैंने मेले की दुकान से तौबा कर ली. कभी अन्दाजा नहीं था कि यह मुनाफे में घाटे का धंधा है. पर मोटा-मोटी एक बात समझ में आई कि यदि सामान एक हजार का हो, तो बिक्री दो हजार की होती है. यही मेले के दुकानदारों की दूरदराज व शहर से बाहर जाकर दुकान लगाने जाने की असली  वजह भी है.
(Memoir by Kishore Joshi)

किशोर जोशी

किशोर जोशी दैनिक जागरण में ब्यूरो प्रभारी हैं. पहाड़ की परंपरा, लोकसंस्कृति, लोकजीवन को जीने और ग्रामीण प्रतिभाओं को उभारने का शौक रखते हैं. पलायन जैसी समस्या के समाधान के प्रयास को गति देने की चाह रखते हैं. मूल निवासी लोहाघाट, जिला चम्पावत. काली कुमाऊं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago