आमा के हाथ का ज़ायक़ेदार खाना

गॉंव में कच्चा घर, गौशाला में बंधे गाय, बैल और भैंसे, लकड़ी का चूल्हा और इन सबसे घिरा गॉंव का जीवन अब शहरों की तरफ पलायित होने के बाद बहुत याद आता है. वैसे तो गॉंव की यादों के कई-कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं लेकिन कुछ यादें दिलोदिमाग़ में हमेशा के लिए घर कर जाती हैं. उन तमाम यादों में सबसे सुंदर याद आमा-बूबू (दादी-दादा) के क़िस्से कहानियों की होती है. इन क़िस्से कहानियों से भी ज़्यादा कुछ याद आता है तो वह है आमा के हाथ का बना हुआ खाना. Memoir by Kamlesh Joshi

आमा ने अपनी पूरी ज़िंदगी लकड़ी के उस चूल्हे में फूँक मार-मार कर आग जलाने और उस आग में बने ज़ायक़ेदार पकवानों को हमारे पेट तक पहुँचाने में गुज़ार दी जो गैस-सिलेंडर आने के बाद भी आमा की पहली पसंद बना रहा. बाजार के मसालों में क्या ही स्वाद होगा जो आमा के सिलबट्टे में पिसे घरेलू मसालों में होता था. मसाले घर में पिस रहे होते और ख़ुशबू पड़ोसियों के घर तक जा रही होती थी.

आमा ने कभी बेलन का इस्तेमाल रोटी बनाने के लिए नहीं किया. उन बूढ़े हाथों में वो हुनर था कि आमा हाथ में आटे की लोई लेती और दोनों हाथों से थापकर ही सुंदर सी गोल रोटी बना देती. आग में सिकी मोटी सी रोटी में लगी हल्की सी राख को हटाने के बाद जब घी लगाकर आमा थाली में परोसकर देती तो मुँह में ऐसा स्वाद घुलता जिसे बयॉं कर पाना आज भी मुमकिन नहीं है.

आमा का सिलबट्टे में पिसा हुआ साधारण नून (नमक) भी इतना ज़ायक़ेदार होता था कि कई बार रोटी खाने के लिए सब्ज़ी या दाल की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती थी. आमा रसोई की मुखिया होने के नाते बच्चों की भूख से भलीभाँति परिचित थी इसीलिए हमेशा खाना ज़्यादा ही बनाती थी क्योंकि उसे पता होता था कि सूरज ढलते-ढलते इन बच्चों के पेट में चूहे दौड़ने लगेंगे. Memoir by Kamlesh Joshi

जब तक आमा इस लौकिक संसार में रही तब तक शायद ही कोई दिन रहा हो कि किसी को कप या कॉंच के गिलास में चाय परोसी गई हो. घर के सदस्यों से लेकर घर आए मेहमान तक को स्टील के गिलास में ही चाय परोसी जाती थी. चीनी वाली चाय से आमा का लगाव बहुत कम था इसलिए अधिकतर गुड़ या मिश्री की कटकी वाली चाय ही बनाती थी. आज भी जब एक हाथ में चाय का गिलास और दूसरे हाथ में कटकी के लिए गुड़ या मिश्री होती है तो आमा से जुड़ी तमाम यादें दिलोदिमाग़ में उभरने लगती हैं. आमा का मिज़ाज थोड़ा सख़्त जरूर था लेकिन वो कहते हैं न कि घर को एकजुट रखने के लिए बड़े बुजुर्गों का कुछ हद तक सख़्त होना भी ज़रूरी है शायद इसलिए भी आमा के मिज़ाज में सख़्ती रहती थी.

आमा के हाथ का बना खाना सैकड़ों संजीव और कुनाल कपूरों को फेल करने वाला होता था. उसके हाथों में शायद कोई जादू था जो साधारण सी लस्सी में चीनी मिलाकर भी देती थी तो बरेली के दीनानाथ की मलाईदार लस्सी भी उसके आगे कहीं नहीं ठहरती थी. बहुत सी साधारण सब्ज़ियों को आमा असाधारण स्वाद से भर देती थी. घर के सामने खेत में लगे बथुए की हरी सब्ज़ी को वह इतना स्वादिष्ट बनाती थी कि बाज़ार से लाई गई पालक की सब्ज़ी उसके मुक़ाबले कहीं टिक ही नहीं पाती थी. आमा शायद अभावों और गरीबी को बहुत क़रीब से समझती थी इसलिए वह बाज़ार पर अपनी निर्भरता को लगभग शून्य रखती थी और अधिक से अधिक घर में ही उगी सब्ज़ियों और अनाजों से काम चलाने की कोशिश करती थी.

आमा सिर्फ छाछ से ही कई प्रकार के खाने के व्यंजन तैयार कर देती थी. उसका यह हुनर इतना बारीक था कि घर में कभी किसी को एहसास ही नहीं होता था कि खाने-पीने के मामले में कोई कमी है. घर में गाय-भैंस इतने थे कि बारह मास दूध, दही, घी, मक्खन और छाछ की कोई कमी नहीं रहती थी. आमा इतनी जीवट थी कि बूबू के साथ मिलकर इन तमाम जानवरों को सँभालने का माद्दा रखती थी. हर दिन शाम को सिर में खुद से बड़ा एक गट्ठर घास का इन जानवरों के लिए काटकर ले आती थी. बूबू जानवरों के साथ ग्वाला जाते और शाम को लौटने के बाद आमा की लाई हुई घास से कुट्टी काटकर उसमें भूसा और खल मिलाकर जानवरों का चारा तैयार करते थे. घर में जानवरों की सेवा इंसानों से ज्यादा होती थी. शायद यही वजह थी कि इस सेवा टहल से खुश होकर भी गाय-भैंस कुछ ज्यादा दूध दे देती थी. Memoir by Kamlesh Joshi

आमा की रसोई में माँगें बहुत कम थी और आपूर्ति बहुत ज्यादा. यह इसलिए भी था क्योंकि वह घरेलू उत्पादों पर ज़्यादा निर्भर रहती थी. कच्चे आम में गुड़ डालकर आमा एक रसयुक्त ज़ायक़ेदार व्यंजन बनाती थी जिसे वो “अमानी” कहती थी. अमानी के साथ कोई कितनी रोटी खा सकता था इसकी कोई गिनती नहीं थी. इस व्यंजन का सबसे मजेदार हिस्सा होता था आम की रेशेदार गुठली को तरी में डुबोकर बार-बार चूसकर खाना. इसके अलावा आलू जैसी दिखने वाली एक सब्ज़ी होती थी तैड़ा/तैड़ू जिसे कई बार आमा कोयले की आग में पकाने के बाद नमक लगाकर खाने के लिए देती थी.

तैड़े की सब्ज़ी तो इतनी स्वादिष्ट होती थी कि इसे खा-खाकर ऊब चुके आलू के विकल्प के तौर पर कई बार घर में बनाया ही जाता था. इस तरह के तमाम व्यंजन आमा अपने चमत्कारी हाथों से बनाया करती थी जो किसी बाज़ार में न तब उपलब्ध थे और ना ही आज उपलब्ध हैं. इनमें पूर्णत: आमा का पेटेंट हुआ करता था. इन सबसे अलग एक विलुप्तप्राय पहाड़ी डिस जिसे आमा स्पेशल डिमांड पर बनाया करती थी उसके बारे में आगे फिर कभी विस्तार से बात करेंगे. Memoir by Kamlesh Joshi

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नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं

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  • वाह भैजी !
    मुंह में पानी आ गया 😋😋

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