Featured

केमू में सफ़र और बीते ज़माने की याद

के०एम०ओ०यू० यानी कुमाऊं मोटर्स ओनर्स यूनियन. पहाड़ में सड़क परिवहन की सबसे पहली पंजीकृत संस्था. पुराने लोगों को याद होगा, तब यही एकमात्र साधन था पहाड़ों के सुदूर गाँवों में सड़क मार्ग से पहुँचने का. लखनऊ आने के बाद भी पिताजी हमें पहाड़ ले जाते. यहाँ से हल्द्वानी तक रेल द्वारा और फिर उसके बाद बस. माँ को तो लालकुआँ से पहाड़ देखते ही उल्टी शुरू हो जाती थी.

हम तीनों भाई-बहनों को भी लगातार उल्टियां होती थी बस में. हल्द्वानी से पूरे दिन का सफर होता बागेश्वर तक और फिर दूसरे दिन बेरीनाग जाते. तब यही एकमात्र रूट था – वाया ताकुला शुरुआत हो रही थी. उन दिनों बसें भी आज की तरह आरामदायक नहीं थी. टाटा ट्रक जैसा मूंख जिसे स्टार्ट करने के लिए एक अर्ध स्वास्तिक जैसी लम्बी रॉड सामने से घुसेड़ी जाती और क्लीनर पूरी ताकत से घुमाता तो सीट पर बैठा ड्राईवर एक्सीलेटर घरर-घरर कर पीछे से खूब धुँवा छोड़ता मतलब गाड़ी गरम हो गई है और चलने को तैयार है.

जाड़ों में डीजल जम जाता तो टंकी गरमाई जाती आमा इन सवारी गाड़ियों को “केमो ढोट्” कहती (नाव के आकार का लकड़ी का बर्तन जिसमें जानवरों की सानी बनती). इन गाड़ियों में सामने की ओर ड्राइवर की तरफ मुँह वाली एक पंक्ति जिसमें पाँच सीटें होती थीं, अपर सीट कही जाती थी. इनके पीछे बस के समानांतर बर्थ नुमा दो लम्बी सीट होती थी जिसमें आमने सामने मुख करके यात्री बैठते लोअर सीट कही जाती थी. मिडिल सीट की याद मुझे नहीं है. बीच में सामान भरा होता सामान क्या लोहे के सन्दूक, होल्डाल, झोला-झंटी और भी न जाने क्या-क्या. पैर फेलाने भी मुश्किल. बस उछलती तो सब गिर पड़ता. बच्चों की तरह सड़कें भी उतनी चिकनी व स्लेटी नहीं थी. अपर और लोअर के बीच बड़ी ग्रिल लगी होती और अपर का किराया भी सामान्य से अधिक था.

उन दिनों जीपों की सुविधा भी नहीं के बराबर थी. टैक्सी आदि थी भी तो सभी के वश की नहीं थीं. हल्द्वानी से चलकर बीर भड्डी, भवाँली होते हुए बस गरमपानी में रुकती. यहाँ लंच होता. जिन्हें बस नहीं लगती, वे जमकर रोटी, दाल, भात भचकाते. यहाँ का रायता ही पहचान थी. दूर दराज से आ रहे यात्री ककड़ी का रायता चखते ही चमक उठते. राई का स्वाद गले से होता हुआ नाक तक तक पहुँचता तो माउथ फ्रेसनर सी अनुभूति होती. पिताजी हम लोगों के लिए रायता पकौड़ी लाते. उल्टी के मारे खाने का तो सवाल ही नहीं था. माँ एक घूट चाय पीती तो बस स्टार्ट होते ही उलट देती. धोती से ढका उसका मूँख रास्ते भर ढका ही रहता. थाल या थाली तब नहीं थी. फुल डाईड / हाफ डाईड चलता था, मतलब बच्चों के आधे पैसे और बड़ों के पूरे फुलडाईट में अनलिमिटेड खाना मिलता.

रास्ते में अल्मोड़ा आता तो सब बालमिठाई, चाकलेट आदि खरीदते तब रुट में कोसी भी पड़ती जहाँ रंगबिरंगे छींट दार रूमाल की पैकिंग में बालमिठाई मिलती. हर दुकानदार चखने के लिए मिठाई खिलाता तो चालाक लोग खूब चखते. अब तो जगह-जगह बाईपास बन गये हैं. अलमोड़ा बाजार कहीं का छूट जाता है और अब कोसी भी नहीं आती.

मुझे याद है शाम को बागेश्वर पहुँचते-पहुँचते बाबू को छोड़कर हम सभी का बुरा हाल होता जैसे बस से नहीं-बोरों से निकाले जा रहे हों. रास्ते में गरम पानी, अल्मोड़ा, कोसी, गरूड़. माँ के लिए सब राम भजो! हाँ, बाबू बीच बीच में हमारे लिए कुछ लाते रहते थे. आधी सवारी को सीट नहीं मिलती थी लेकिन उन दिनों भी छुट्टियों में घर जा रहे सैनिक मदद करते. आधी सवारी वाले बच्चे उन्हीं के पास रहते. बस खराब हो जाये, रास्ते में अवरोध हो, दुख बीमारी में भी उन्हीं का सहारा होता. जिस गाड़ी में दो-तीन आर्मी वाले बैठे हों तो सभी निश्चित रहते. बच्चे कई बार उल्टी करते लेकिन वे कभी नाराज नहीं हुए बस से सामान उतारने तक वे हमारा साथ देते. बागेश्वर पहुँचते हुए चार बज जाते और तब हमें मजबूरी में रुकना पड़ता क्योंकि गंगोलीहाट की ओर जाने वाली आँखिरी बस दो बजे निकल जाती.

धुवाँ भरे होटल और बान की चारपाई पर स्वेदैन बिस्तर (सीलन भरा). मेट जी लोग बस पहुँचते ही ज्योड़ (रस्सी) बसों की छत पर फेंकते. ताकि सनद रहे! फिर होल्डौल, ठसाठस भरा सन्दूक, झोला-झंटी सब लादकर होटल पहुँच जाते. उनकी निगरानी की जरुरत तब भी नहीं थी और आज भी नहीं है. बताए गये गंतव्य पर वे प्रतीक्षा करते. बागनाथ जी से सटी सरयू स्वच्छ भारत की प्रतीक थी तब. नहाना, धोना और सब के लिए वहीं जाते. भरपूर पानी होता चौड़े पाट की सरयू में और कहीं भी बैठकर मस्त हो लीजिए. पानी में पैर रखते ही सर में ठंडक पहुँचती और आगे सफर के लिए मन तैयार हो जाता दूसरे दिन प्रातः आठ बजे हम बेरीनाग (देवीनगर) को रवाना होते. ड्राइवर हारन देता प्वाँ – प्वाँ – पौं – पौं- पींइइइइ बागेश्वर में तब खटमल बहुत होते थे.

वाट्सएप में पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

 

यह लेख लखनऊ में रहने वाले ज्ञान पन्त के फेसबुक वाल से साभार लिया गया है. मूलतः पिथौरागढ़ से ताल्लुक रखने वाले ज्ञान पन्त काफल ट्री के नियमित पाठक हैं और समय समय पर अपनी अमूल्य टिप्पणी काफल ट्री को भेजते रहते हैं. हमें आशा है कि उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago