परम्परा

रेब्दा ताऊजी के बहाने उत्तराखण्ड की लुप्त होती परम्पराओं पर एक नजर

हुसैनगंज में तो रक्षाबंधन की भनक लग जाती थी क्योंकि जून महीने से ही रेब्दा ताऊजी की तकली नाचने लगती. घर आते ही वे झोले से तकली बाहर निकालते और सूत को पूनी से जोड़ते हुए जांघ पर रगड़कर छोड़ देते. घूमती हुई तकली जब तक शांत होती उनका बांया हाथ सूत बनाते हुए सर से ऊपर निकल जाता और फिर वे उसे तकली पर लपटते-लपेटते जांघ पर रगड़कर हवा में लहरा देते.

रेब्दा-ताऊजी हमारे गाँव से पुरोहित जी थे. पिताजी से बड़े थे तो वे रेब्दा कहते और हम बच्चों के रेब्दा ताऊजी हो गए. ऊँ नारायण हरी… सुनते ही हमारे मुंह से अनायास निकल पड़ता – मम्मी, रेब्दा ताऊजी आए हैं और इतनी देर में वे चिक हटाकर कुर्सी में बैठे हुए मिलते. नमस्ते के उत्तर में वे अक्सर कहते हमारे यहां नमस्कार चलता है लेकिन हमें क्या फर्क पड़ना. उनका पूरा नाम पं० रेबाधर दत्त जोशी था. आजादी के समय से ही वे लखनऊ में पूजा-पाठ , शादी-विवाह, नामकरण व अन्य संस्कार कर्म कराते रहे थे. मेरा तो नामकरण, विवाह और फिर मेरी बेटी का नामकरण सब उन्हीं का कराया हुआ है.

सत्तर के दशक तक हुसैनगंज क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा पर्वतीय परिवार रहा होगा जहां उन्होंने गृह प्रवेश से लेकर अंतिम यात्रा तक के कोई न कोई कार्य न कराए हों. उनके जजमान भी एक से बढ़कर एक रहे. इन्दिरा नगर आने के बाद भी महानगर , कूर्मांचल, निशातगंज पैदल ही जाते थे. बाद-बाद में जजमान लोग उन्हें गाड़ी में बैठाकर लाने, ले जाने लगे.

रेब्दा ताऊजी की तकली का कमाल था कि घर में और बच्चे भी घुस आते. तीसरी कक्षा में हमें भी सूत कातना सिखाया गया था लेकिन साल भर में तीन मीटर भी धागा नहीं बना सके. तकली और पूनी का कभी मेल ही नहीं हुआ. कान खिंचाई के बाद क्राफ्ट के मासिक टेस्ट में टीचर ने दस में से साढ़े तीन नम्बर दिये थे. इसलिए भी लगता कि ताऊजी तो जरा से में ही गनगना देते हैं और रुई से धागा सनसनाता हुआ निकलता जाता है.

बच्चे भी आँखें बड़ी छोटी कर मदारी के तमाशा जैसा नीचे से ऊपर देखते जाते. धागे को बनते और लपेटते देख सबका मन करता- काश, एक हाथ मारने को हमें भी मिलता लेकिन ताऊजी साफ मना करते. इसे बिना नहाए धोए हाथ नहीं लगाते. इस धागे का रक्षासूत्र और जनेऊ बनता है. हम तो समझते थे लेकिन अहमद क्या जाने?  वह ताऊजी के धोती उठाने के अंदाज का मुरीद था. तकली घूमी कि नहीं, वह लेटकर धोती की ओर देखता हुआ खी-खी करता रहता. उसे कई बार डाँठा भी था कि सीधे नहीं बैठ सकता? तु लेट के क्या देखता है, कहीं तकली आँख में लग गई तो फिर फूट ही जाएगी लेकिन वह बताता भी तो कैसे बताता.

रेब्दा ताऊजी नियम से हमारे घर आते. उनका घर चौथी मंजिल में था तो गरमी में दिन हमारे ही घर बीतता. कहीं कोई काम हो तो बात अलग है. थके होने पर वे दिन में भी खर्राटे भरते और हम शैतानी में उनके कान में सींक लगाते. नींद में उन्हें लगता कि मक्खी है और वे जोर से हाथ चलाते और कभी-कभी तो ताली भी बजाते. गर्मी की छुट्टियों में हमारे लिए यह भी एक करमुक्त मनोरंजन था. माँ भी काम धाम करके आराम करती और दो बजे के आसपास गिलास भर चाय देती. चाय सुड़कते हुए वे घूमती तकली के साथ बुदबुदाते जाते और चार बजते ही फिर वही ऊँ नारायण हरी ईई… मतलब, मम्मी, रेब्दा ताऊजी जा रहे हैं.

मुझे बाद में पता चला कि रक्षासूत्र और जनेऊ में लिए साधारण धागा प्रयुक्त नहीं होता. नहा धोकर पूर्ण शुद्धता की स्थिति में तकली द्वारा काते गए धागे से मंत्रोचार के साथ जनेऊ बनाए जाते हैं और आज के दिन पुरोहित जी अपने जजमानों के घर जाकर रक्षासूत्र बाँधते हैं – एनबद्धोबलीराजा दानवेन्द्रो महाबल:.  गाँवों में सामूहिक जनेऊ बदलने की परंपरा रही है लेकिन शहरों में समयाभाव व अन्य कारणों से जनेऊ एडवांस में उपलब्ध करा दिए जाते हैं.

रक्षाबंधन के दिन पुरोहित जी घर-घर जाकर रक्षासूत्र बांधते हैं और इस आशीष की एवज में उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दी जाती है. जब तक रेब्दा ताऊजी रहे बराबर आते रहे. मंत्र पढ़ने में कंजूसी हुई तो पिताजी हँसते हुए पूरा मंत्र पढ़ देते. अब सब बदल गया है तो शहरों में घर-घर जाने का यह नियम भी लगभग समाप्ति पर है.

पंडित जी लोग वाट्सएप नम्बर दे देते हैं और आवश्यकतानुसार आन डिमांड सामग्री की सूची भेज दी जाती है. आप खरीद लें तो ठीक वरना सत्यनारायण कथा, सुन्दरकाण्ड, नामकरण, ग्रह शांति और यहाँ तक तेरहवीं तक का भी पैकेज है. कुछ पंडित जी तो कहते हैं सामान के लिए पैसा या अन्य पंडितों व्यवस्था हेतु पेटीएम कर दीजिए या अपना एकाउंट नम्बर दे देते हैं. 

मुझे खुशी है कि हमारे नए पंडित जी ने स्मार्ट फोन नहीं लिया है इसलिए अभी पूरी तरह हाइटेक नहीं हो पाए हैं. रक्षाबंधन के कुछ दिन पहले ही आकर एडवांस में जनेऊ व संख्या के हिसाब से रक्षासूत्र भी दे जाते हैं. सूत कातने की जगह वे बाजार से धागा लाकर घर में जनेऊ बनाने के बाद मंत्रित कर उपलब्ध कराते हैं. इतना ही बहुत है. पंडित जी द्वारा मोबाइल की घंटी बजते ही मंत्रोचार रोक देने के बावजूद पिताजी के समय की कुछ जरूरी परम्पराएं आज ऐसे ही निभाई जा रहीं हैं लेकिन कल ऐसा भी कुछ हो पाएगा. मुझे नहीं लगता. आपको रक्षाबंधन और हमारे जन्यापुन्यूं की ढेर सारी बधाइयां.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

यह लेख हमें लखनऊ में रहने वाले ज्ञान पन्त ने फेसबुक पर भेजा है. मूलतः पिथौरागढ़ से ताल्लुक रखने वाले ज्ञान पन्त काफल ट्री के नियमित पाठक हैं और समय समय पर अपनी अमूल्य टिप्पणी काफल ट्री को भेजते रहते हैं. हमें आशा है कि उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

View Comments

  • "रेब्दा ताऊ जी" कृति बड़ी ज्ञानवर्धक लगी और बचपन याद आ गया

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

3 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

4 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago