सुराव (पैजामे) के अंदर पैंट की तरह कुर्ता खोसना और पैजामे का नाड़ा नब्बे डिग्री पर बाहर झूलता छोड़ देना उनके पहनावे की विशिष्ट पहचान थी. क्लास में इंट्री के समय एक हाथ में पय की पतली टहनी का सोटा और दूसरे हाथ में सहारे के लिए जांठ (लाठी). जाड़ों में मोटे ऊन का कोट. माथे पर चटकदार चमकता श्वेत चंदन. उम्र लगभग 50-52 की होगी पर 62 का अहसास दिलाते थे. पर हां, क्लास में उनकी इंट्री पर सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी. ऐसे थे कक्षा 6 के हमारे क्लास टीचर बुद्धि वल्लभ मासाब. मासाब गणित भी पढ़ाते थे. ये बात थी जूनियर हाईस्कूल पांखू की. (Memoir By Girija Kishore Pathak)
सामान्यत: गणित और अंग्रेजी सभी के लिए किसी भूत-प्रेत से कम डरावनी नहीं होती थी. किसी विद्यार्थी से कोई प्रश्न पूछे और वह उत्तर नहीं दे पाता तो मासाब गुस्से में कहते थे ‘साला गलदार!’ कुमाऊनी में गलदार का मतलब गांव-गांव घूमकर कमीशन में गाय-भैंसों की खरीद फरोख्त करने वाला. हमारे सेक्सन में कुल 41 छात्र थे. उनमें से घरों में जागर, घन्याली, भड़री ग्वोल ज्यू, गड़देबी,ऐड़ी आंचरी,आंड़बाण, छुरमल, भूत-प्रेतों की गाड़-गधेरों और डान-कानों में पूजा के कारण क्लास में रोज 8-10 छात्र अनुपस्थित ही रहते थे.
उस जमाने में हम लोग जमीन में जूट की चटाई बिछा कर पंक्तिबद्ध कक्षा में बैठते थे. पूरी क्लास में इर्द-गिर्द गांवों के बच्चे ही पढ़ते थे. इनमें से 70% का पढ़ने-लिखने से कोई ज्यादा मतलब नहीं होता था. खेल वाला पीरियड सबके लिए रुचिकर होता था. कुछ नहीं तो एक-एक वालीबाल मैच पर सभी हाथ आजमा लेते थे. टोटल आठ पीरियड होते थे. पूरे दिन भर की क्लासेज में अगर किसी को एक भी बेंत नहीं पड़ता तो उसे हम लोग उस दिन के लिए भाग्यशाली मानते थे. बेंत खाने के चटखारे निर्लज्ज भाव से एक क्लास के समाप्त होने और दूसरे पपीरियड के शुरू होने के बीच सब मिलकर लेते थे. चाहे पिटा हो या न पिटा हो. सामान्यत: अंग्रेजी और गणित की कक्षा में बेंत ज्यादा पड़ती थी. अंग्रेजी के मासाब लक्ष्मण सिंह थे. वे थोड़ा उदार थे सो कम चूटते थे. निर्लज्जता की हद तो ये थी कि 4-5 बेंत दाहिने-बाएं हाथ में खाने के बाद भी अगले दिन 80% क्लास होमवर्क करके नहीं आती थी. कारण साफ था. स्कूल से घर पहुंचते ही खेती-पाती का काम, गाय, बैल और भैंसों को घास-पानी देना, धारे से एक घड़ा पानी भर कर लाना, ये सब ईजा के दिये काम भी करने ही होते थे. जाहिर है बोनस में गुल्ली डंडा, घुच्ची, वालीबाल पर दो-दो हाथ के बिना चैन कैसे मिल सकता था.
सामान्यत: हम, सबके कपड़ों पर कहीं न कहीं टल्ले लगे ही रहते थे. क्लास में पढ़ने से ज्यादा चर्चा खेलने-कूदने और अपने-अपने गांव-घरों की किस्सागोई पर चलती थी. गांव के नजदीक लगने वाले कौतिक (मेलों) में आठ आना या एक रुपया जेब खर्च के साथ सभी साथी मिलते थे. चरखी झूलना उस समय का सबसे बड़ा शौक था. फिर जलेबी, आलू के गुटके, छोला-चना सब मिलकर खाते थे. जिसकी जेब खाली रहती थी उसको सब मिलकर खिलाते थे.
महीने की स्कूल फीस 12 पैसा होती थी. किताबें सस्ती थीं साल में एक बार खरीद कर बस्ते में भर दी जाती थीं. बस्ते के भरोसे ही उनका जीवन चलता था. हां, जुलाई में प्रत्येक कापी किताब पर ससम्मान जिल्द चढ़ती थी चाहे वह अखबार के कागज की हो. शेष स्याही की टिकिया, कापी, जी निब, होल्डर, पेंसिल और रबर पर साल भर कुछ खर्च होता रहता था. स्कूल में यूनीफार्म का झंझट नहीं था. विद्यार्थी टल्ली वाली पैंट या जांघिया पहनकर भी आते ही थे. क्षेत्र में गरीबी बहुत थी. हम सब पूस और माघ की ठंडक में भी मात्र कमीज पहनकर स्कूल जाते थे. 90% के पास जूता तो नहीं होता था. बर्फ के उपर जब पाला पड़ जाता था तो यह धारदार पत्थर सी हो जाती थी. इस बर्फ में चलते समय एड़ियां कट जाती थी खून बहने लगता था. दूर तक सफेद बरफ में लाल पगमार्क बन जाते थे. परिस्थितियां कठिन थी लेकिन सबके लिए समान थीं इसलिए सब कुछ सरल और सहज लगता था. जाड़ों में मासाब धूप में चटाई बिछा कर क्लास लगाने कुछ अनुमति दे देते थे. अपने लिए क्लास से गुनगुनी धूप का महत्व ज्यादा रहता था.
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मैं इस बात को कभी नहीं भूलता. हमारे क्लास में नैनुवा (नैनराम ) सबसे गरीब था. उसकी ईजा दिन में भोजन के लिए बस्ते में दो मडुवे की रोटी धनिये के चटपटे नमक के साथ एक कपड़े में बांधकर रखती थी. उसे भी हम रोज आधी-आधी खा जाते थे. उसके बाबू ओड़ (घर बनाने के मिस्त्री) थे. घर में खाने-पीने और पैसे सबकी किल्लत तो रहती ही थी. एक बार नैनराम के पास कापी, होल्डर, जी निब खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. परीक्षा नजदीक थी वह परेशान था . हम सबने मिलकर पांच-पांच पैसे इकट्ठा किये थे. इन पैसों से उसका सामान खरीदा था. नैनुआ एक नंबर का वालीबाल प्लेयर था. बाद में पता लगा वह कुमाऊं रेजिमेंट में भर्ती हो गया है.
मेरी एक व्यक्तिगत समस्या थी मेरी नाक बहुत बहती थी. स्थानीय बोली में इस श्राव को सिंगाड़ कहते हैं. सामान्यत: रुमाल तो जेब में होता नहीं था सो कमीज की बांह पर बहती नाक पोंछने से हम परहेज नहीं करते थे. छठी कक्षा के प्रारम्भिक महीनों में एक दिन रेखागणित की क्लास में बुद्धिवल्लभ मासाब ने एक प्रमेय हल करने के लिए मुझे बुलाया, ‘सिंगड़वा तू बता धै!’ सिंगड़वा मतलब जिसकी नाक बहती है. अब पूरी क्लास के लिए मैं सिंगड़ुवा हो गया. बस, इसी निक नाम के साथ मैंने साल भर पांखू जूनियर हाईस्कूल में बिताया.
आज पुराने कागजों में टटोला तो मुझे पांखू का स्कूल लीविंग सार्टिफिकेट मिल गया. सार्टीफिकेट क्या है स्मृतियों की पुन्तुरी है. काफी पीला सा पड़ गया है लेकिन लगभग 52 साल बाद भी अपने मौलिक स्वरूप में जिंदा है. जूनियर हाईस्कूल पांखू छोड़ने की तिथि 2 जुलाई 1969 उसमें अंकित है. इस तरह एक सत्र में ही मुझे सिंगड़वां कहने वाले सारे दोस्तों से विदाई लेनी पड़ी और एक तरह से मेरा गांव मुझसे छूट गया. मैंने वज्यूला इंटर कालेज में एडमिशन ले लिया. सारे दोस्तों से विछोह के कारण मन व्यथित था लेकिन जीवन में रुकता कौन है इसे गति देने के लिए तो चलना ही पड़ता है.
पांखू जूनियर हाईस्कूल आज राजकीय इंटर कालेज है. इन वर्षों में मेरा अपने गांव आना-जाना निरंतर बना रहा है. आज भी जब मैं कोटमुन्या से अपने गांव डौणू, दशौली की ओर मुड़ता हूं तो दूर जीआईसी पांखू की इमारत पर नजर पड़ती है. इस भवन को देखते ही बुद्धिवल्लभ मासाब के शब्द ‘सिंगड़वा तू बता धै!’ मेरे अंदर पूरे क्लास को जिंदा कर देते हैं. सच पूछिए तो मेरे ज़हन में ये नाम आज भी जिंदा है. नाम देने वाले मासाब कब के गुजर गये होंगे. इन पांच दशकों में बहुत कुछ बदल गया है. सोशल मीडिया और कुछ लेखन के कारण एक दो दोस्तों के साथ मेरा पुन: संपर्क हुआ लेकिन ऐसे क्लास मेट नहीं मिले जो कहें कि कैसे हो सिंगड़ुवा?
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मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं.
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Great sir old memory is always great full very hard of kumaoni Life i remember always
क्या सजीव चित्रण किया है आपने भाई! 75 साल की उम्र में अपने बचपन की ऐसी ख़ुद लग रही है कि फिर से प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा बन जाना चाहता हूं । आइएसा ही वातावरण तो हुआ करता था तब हमारे स्कूलों में। वो बहते सिंगाड़े को कमीज़ की आस्तीन से पोंछने की बात मन को छू गयी । ऐसा ही तो किया करते थे हम भी ।
--- शशिधर डिमरी
आपकी यादें बता रही हैं कि आपने वही दौर जिया है,,जिसकी चर्चा आज आये दिन मेरे बौज्यू भी करते हैं,,ये बात और है कि आज उनके लड़कों के पास उनकी फसक सुनने का समय नही है,हाँ ब्वारियाँ जरूर उनकी फ़सकों को चटकारे ले ले कर सुनती हैं।
आपकी वो लाइन दिल को छू गई जिसमें आपने बताया है कि जाड़ों में सड़क किनारे या पगडंडियों में पड़े हुए पाले से स्कूल जाते बच्चों के तलवे कट जाया करते थे,,सच में सर जी आप लोगों ने काफी अभावों में जीवन को जिया है शायद इसी कारण इतने बड़े पोस्ट को आपने शोभायमान किया,,,
एक बात और कहूँ, क्योंकि कहने का बड़ा दिल कर रहा है,,कि आप अधिकारी भी बहुत ग्रेट रहे होंगे,,आपकी बातों से भरी इस संस्मरण में आपकी ग्रेटनेस्स के दर्शन सहज भाव से हो रहे हैं,,,
आपको दिल से सलाम है सर जी।
श्रीमान जी, आपके संस्मरण ने वाकई में अतीत को पुनर्जीवित कर दिया। उस समय के विद्यालय अति महत्वपूर्ण सुविधाओं से भी रहित होते थे। यहां तक कि अध्यापकों की योग्यता के मामलों तक में भी। जैसा कि आपके द्वारा दिए गए उल्लेख से प्रकट हो रहा है कि अध्यापकों को यह तक न पता था कि, बच्चे स्कूल के बाद, खेतों में मां बाप के हाथ बंटाने में व्यस्त होने के कारण गृहकार्य पूरा न कर पाते थे। जब एक मानव (अध्यापक) दूसरे के (बच्चों के) कष्टों का अनुमान ही नहीं लगा पा रहा, तो विद्यालय में अनुपलब्ध भौतिक सुविधाओं का रोना, गिनती में कहां आता है? फिर भी, पंखे, कूलर, और एसी से विहीन वह सरल , परंतु प्रकृतिस्थ विद्यालय, उस कोमल उम्र में समाज के अध्ययन और उसको जीने की प्रथम पाठशाला होते थे।