कहो देबी, कथा कहो – 43
पिछली कड़ी – और भी थे इम्तिहां
वे निराशा के दिन थे. मन खिन्न रहता था. प्रमोशन के इंटरव्यू में सैलेक्शन क्या नहीं हुआ कि आसपास की फ़िजा ही बदलने लगीं. कल तक के कई संगी-साथी किनारा-सा करने लगे. एक वजह तो शायद यह रही हो कि मैं आला अफसरों का पसंदीदा अफसर साबित नहीं हुआ. होता तो सैलेक्शन हो जाता. तब फिर, हमन से यारी क्या? दूसरी वजह हो सकता है, मानव स्वभाव रहा हो क्योंकि जो साथी चुन लिए गए अब वे थोड़ा फासले पर नज़र आते. कल तक हम साथ थे. “और, सब ठीक-ठाक?” अक्सर इतना ही संवाद हो पाता. वे अपने अलग चैंबर में बैठने लगे.
कुछ माह बाद, एक दिन दफ्तर की ऊपर की मंजिल से ऐसे ही एक साथी का फोन मिला. बोले, “अरे यार, मुझे तो अब भी यकीन नहीं होता कि आपका सैलेक्शन नहीं हुआ. आपके काम के बारे में कौन नहीं जानता? मैं समझ सकता हूं आपको कितना धक्का लगा होगा.”
वे दूसरे प्रदेश की राजधानी से आए थे. मैं सोचने लगा, उन्हें आए कई महीने हो गए. अब तक तो कोई बात नहीं हुई थी. फिर आज अचानक यह फोन?
“कैन यू कम टु माइ चैंबर फॉर टेन मिनिट्स? विल हैव अ कप ऑफ टी.” (क्या आप दस मिनट के लिए मेरे कमरे में आ सकते हैं. एक प्याली चाय पिएंगे.)
मैंने कहा, “जरूर” और उनके कमरे में गया. वे गर्म जोशी से मिले और बोले, “यार याद है आपको, आप तब वहां आए थे तो एक दिन गजलों की शानदार शाम रही थी. लो, चाय पियो.”
मैं समझ नहीं पा रहा था वे क्या कहना चाह रहे हैं? वे कहते रहे, “आपका तो मीडिया का काम है यार. दूरदर्शन और चैनलों में आपकी अच्छी पहचान होगी. यहां एक सीनियर आई ए एस ऑफीसर आए हैं. मुझे बहुत मानते हैं. उनकी एक बेटी है जो माडलिंग और फैशन के क्षेत्र में करियर बनाना चाहती है. अगर उसका एक इंटरव्यू टीवी में करा दो तो उसे पुश मिल जाएगा. आपके लिए तो यह छोटा-सा काम है. बस, आप बता देना मुझे कि कब, कहां हो सकता है. ठीक है? थैंक यू डियर.”
ओहो, तो यह काम था, मैं अब समझा. मेरी कम से कम ऐसी कोई पहचान नहीं थी. लिहाजा मैं उनसे कहता तो क्या कहता?
एक दिन फोन पर उन्हीं ने कहा, “अरे भई, तुमसे एक छोटे से काम के लिए कहा था. तुमने वह भी नहीं कर दिया. इतनी पहचान तो हमारी खुद की भी है ही, बेकार ही तुमसे कहा. खैर. कोई बात नहीं, अब हम खुद कर लेंगे. थैंक्यू.”
एक और मुखिया ने मेरे काम की तारीफ करते हुए राय दी कि बिजनैस में उनका हाथ बंटाऊं. मैंने उनसे साफ कहा कि इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है. अपने लिए मैंने जो विषय चुना है, उसमें लगन से काम कर रहा हूं और आगे भी करता रहूंगा. यह उत्तर उन्हें पसंद नहीं आया.
बोलना कम, किनारा कर लेना और बढ़ता फासला. मुझे लगता, भला मैंने क्या गुनाह किया है? यह मिडिल मैनेजमेंट और सीनियर मैनेजमैंट के बीच का फासला था. अक्सर लगता, जैसे कहीं अकेला छूट गया हूं. फिर भी मुझे तो चलना ही था, अकेले. एकला चलो रे!
टैगोर के इस गीत की पंक्तियां याद आतीं:
जेदी सोबाई थाके मुख फिराए,
सोबाई कोरे भोय
तोबे पोरान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मोनेर कोथा
एकला बोलो रे!(यदि सभी मुख फेरें / सभी को हो भय / तब निडर होकर / ओ, तू कह अपने मन की बात अकेला रे!)
उन्हीं दिनों की बात है. दफ्तर की लिफ्ट में अचानक एक अजनबी से मुलाकात हो गई. मैं ऊपर की किसी मंजिल में जाने के लिए लिफ्ट का इंतजार कर रहा था. लिफ्ट नीचे आ रही थी. वह खुली, भीतर हमारे बैंक की एक विज्ञापन एजेंसी के मैनेजिंग डायरेक्टर थे. उनके साथ एक अजनबी. मैंने मुस्करा कर ‘हैलो’ कहा और दोनों से गर्मजोशी से हाथ मिलाया. वे भूतल पर उतर गए और मैं लिफ्ट में ऊपर की मंजिल की ओर चला गया.
बाद में विज्ञापन एजेंसी के एम डी का फोन आया, “लिफ्ट में आपसे बात नहीं हो पाई. मेरे साथ मिस्टर लाल थे, हमारी विज्ञापन एजेंसी के सलाहकार. बाहर आए तो उन्होंने पूछा, “लिफ्ट में कौन थे वे? ही लुक्स डिफ्रैंट.” (वे कुछ अलग से लगे.) मैंने उन्हें आपके बारे में बताया और यह भी बताया कि इंटरव्यू में आपके साथ क्या हुआ? वह सब सुन कर बोले कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं.”
बात तय हो गई और दो-एक दिन बाद मैं उनसे मिला. जिस समय मिला, उस समय वे पेंसिल हाथ में लेकर वे प्रसिद्ध विदेशी विज्ञापन एजेंसी मैक्इलिगॉट के कॉपी राइटर ल्यूक सल्लिवन की पुस्तक ‘हे ह्पिल, स्क्वीज़ दिस’ पढ़ रहे थे. उनसे बातें हुईं. हमने एड-गुरू डेविड ओगिल्वी और कई क्रिएटिव विज्ञापनों के बारे में बातें कीं. वे बोले, “क्रिएटिव विज्ञापन तैयार करने के लिए इस पुस्तक को जरूर पढ़ना चाहिए.”
मुझे देख कर उन्होंने आंखें उठाईं, हाथ मिलाया और बैठने का इशारा किया. बातें शुरू हुईं. वे बोले, “मैंने आपके बारे में सुना तो मुझे लगा, आपसे मिलना जरूरी है क्योंकि आपके साथ ठीक वही हुआ है जो कभी मेरे साथ हुआ था. मैं भुक्तभोगी हूं इसलिए आपके दर्द को समझ सकता हूं. मैं कोलकाता की एक बड़ी एडवर्टाइजिंग एजेंसी में वाइस प्रेसिडेंट के पद से रिटायर हुआ हूं. लेकिन, उससे पहले एक बार जब प्रोमोशन होना था तो किसी और का कर दिया गया जबकि सब जानते थे कि मेरा काम और अनुभव कहीं अधिक था. तब मैं सोचने लगा कि अगर एजेंसी मेरे काम को महत्व नहीं देती तो मैं यहां क्यों रहूं?”
मैं उनकी बात ध्यान से सुनता रहा. उन्होंने कहा, “दैट वज हाई टाइम. मन में उहापोह चलने लगी कि मुझे क्या करना चाहिए. मुझे आघात तो लगा ही था, इंसल्टेड भी महसूस कर रहा था. मेरा चलताऊ, कम अनुभवी साथी मेरा बॉस बन गया था. बहुत सोचा मैंने और फिर निश्चय किया कि कहीं नहीं जाऊंगा और अपनी इसी एजेंसी में रहूंगा. मेरे काम के बारे में एजेंसी के साथी तो जानते ही हैं, क्लाइंट भी बखूबी जानते हैं. मेरा काम ही मेरी पहचान है और मेरी यह पहचान बनी रहेगी और बढ़ेगी भी. मेरा काम बेहतर है- एजेंसी मैनेजमेंट विल हैव टु रिएलाइज दिस वन डे (एक दिन एजेंसी प्रबंधन को यह एहसास होगा जरूर.)
उनकी बातें मेरा साहस बढ़ा रही थीं. फिर उन्होंने मुझसे कहा, “आपने हिम्मत बिल्कुल नहीं हारनी चाहिए. आप जानते हैं आप बेहतर हैं और बेहतर रहेंगे. आप अपना क्रिएटिव और इन्नोवेटिव काम पहले की तरह करते रहें. लैट द मैनेजमेंट एंड पीपुल नो, यू आर बैटर एंड विल रिमेन बैटर (प्रबंधन को भी और लोगों को भी सनद रहे कि आप बेहतर थे और बेहतर रहेंगे.)”
वे विज्ञापन जगत के अनुभवी और अभिभावक किस्म के आदमी थे. विज्ञापनों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा, “एक छोटा-सा विज्ञापन कितना-कुछ कह जाता है.” मिसाल के लिए, उन्होंने कहा, “बाटा जूते का विज्ञापन. हमें पंजाब में बाटा जूतों का अभियान चलाना था. वहां के लोग एफ-टफ होते हैं इसलिए जूता भी मजबूत होना चाहिए. तो, हमने वहां एक छोटे से स्लोगन से पूरा कैम्पेन चलाया. स्लोगन था, ‘लोहा टाटे दा, जुत्ता बाटे दा!”
मैं बार-बार ‘हे ह्पिल, स्क्वीज़ दिस’ किताब को देख रहा था. यह देख कर बोले, “आपको पसंद है यह किताब?”
मैंने ‘हां’ कहा तो उन्होंने एक लड़के को वह पुस्तक लाने के लिए बाजार भेजा. बुक शॉप में वह पुस्तक नहीं मिली तो उन्होंने अपनी प्रति मुझे भेंट कर दी. उसमें उन्होंने पेंसिल से निशान लगाए हुए थे.
वे नेक इंसान थे अन्यथा पहली ही मुलाकात में किसी के दर्द को महसूस करके कौन अपनी राय देकर किसी का साहस बढ़ाता है? लेकिन, इस किस्से का बेहद दुखद पहलू यह है कि कुछ समय के बाद पता लगा, लाल दम्पति नहीं रहे. हुआ यह कि वे गुड़गांव में रहते थे. उनकी पत्नी जानी-मानी लैंडस्केप डिजाइनर थीं. एक बार उन्होंने देर शाम अपने मित्रों को पार्टी दी जो बहुत रात तक चली. फिर थके-मांदे पति-पत्नी सोने चले गए. घर में एक सेवक था जो ऊपर के अकेले कमरे में जाकर सो गया. सुबह पड़ोसियों ने देखा, उनके बेडरूम की खिड़की खुली थी और बाहर उसके आसपास घर की दो एक चीजें गिरी हुई थीं. भीतर बेडरूम में पति-पत्नी के मृत शरीर पड़े हुए थे. देर रात घर में चोरी करके चोर उन्हें मार गए थे. पुलिस को अपराधी बावरिया गैंग पर संदेह हुआ था. जांच शुरू हुई लेकिन नेक लाल दम्पति तो अब दुनिया में नहीं थे.
परेशानियां भला अकेले कहां आती हैं? उसी दौर में एक दिन मकान मालिक के बेटे ने मेरी श्रीमती जी से कहा, “आंटी, हम यह घर बेचना चाहते हैं. इसलिए आप लोग कहीं और देख लीजिए.”
कहां और? वह भी दिल्ली में? भुक्तभोगी ही जानता है कि दिल्ली में किराए का घर खोजना कितना कठिन काम होता है. कितने सवाल और कितनी शर्तें होती हैं. अकेले हैं तो ‘छड़ों को नहीं देते हम’, दाढ़ी है तो ‘जाति क्या है आपकी?’ ‘मांसाहारी हैं या शाकाहारी?’, ‘शराब तो नहीं पीते?’, ‘बच्चे कितने हैं?’ ‘मेहमान कितने आते हैं?’, ‘हम तो केवल कंपनी लीज पर देते हैं, प्राइवेट पार्टी को नहीं देते’, वगैरह तमाम सवाल. अब यही सब सुनना था. यह घर दफ्तर के करीब था, इसलिए रात-बिरात भी आ-जा सकता था. आधी रात को हेड आफिस में ससंदीय समिति के लिए प्रदर्शनी लगाना तभी संभव हुआ था और बाहर कहीं देर रात तक चलने वाली बैठकों से भी लौट कर घर आ सकता था. लेकिन, अब क्या होगा?
किराए के नए घर की तलाश शुरू हुई. संगी-साथियों से भी कहा. एक बात मैंने सदा अनुभव की है, जब कभी कोई बड़ी परेशानी सिर पर आ खड़ी हुई तो कहीं से कोई मदद का हाथ सामने आ गया. इस बार यह हाथ कैप्टन एस.पी. सिंह का था. मेरी परेशानी सुन कर वे बोले, “ नोएडा चलिए, हिमगिरि अपार्टमेंट्स में. हम वहां रह रहे हैं. दूर है, पर कोई दिक्कत नहीं होगी.” वे बैंक के फ्लैट थे जिनका मुझे पता नहीं था. अधिकांश फ्लैट भर चुके थे. उन्होंने ही दौड़-धूप कर मेरे लिए वहां फ्लैट का इंतजाम करा दिया और हम सफदरजंग इंक्लेव का इलाका छोड़ कर नोएडा के सैक्टर-34 में चले गए और फ्लैट नंबर 272 हमारा नया आशियाना बन गया.
इस तरह की आवाजाही की आंधी अपने साथ कई चीजें भी उड़ा ले जाती है. उस आंधी में मेरे पत्रों की पूंजी भी उड़ गई. उसमें कई साहित्यकारों, रिश्तेदारों, मित्रों और पाठकों के बेशकीमती पत्र थे. ट्रक में आपाधापी में ही सही, लेकिन सभी चीजें रखी थीं मगर नए आशियाने में पहुंचे तो इस पूंजी के साथ कुछ दूसरी छोटी पर जरूरी चीजें भी न जाने कहां छूट गईं.
मैं पंद्रह साल पहले खरीदी अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हुआ और उसे प्यार से पुचकार कर कहा, “चलो साथी, नए घर में चलते हैं.” उसने मुझे घर तक पहुंचा दिया. अब नई दिनचर्या शुरू हुई. सुबह-सुबह तैयार होकर चार्टर्ड बसों की टोह में निकलता और दफ्तर पहुंचता. शाम को देर हो जाने के कारण चार्टर्ड बसें छूट जातीं. तब डीटीसी की बसों के सहारे नए आशियाने तक पहुंचता.
उन्हीं दिनों एक बार घर के निकट बस से उतर रहा था कि ड्राइवर साब ने आदतन बस चला दी, हालांकि मैंने कहा भी था कि भैया मुझे जरा उतरने देना. फुटबोर्ड से पैर नीचे जमीन पर रख ही रहा था कि बस चलने से संतुलन बिगड़ा और मैं सीधे बस के नीचे गिरकर लमलेट हो गया. उन पलों में सिर्फ यह याद आ रहा था कि इस तरह गिरने पर बस कुचल कर निकल जाती है. मैंने फटी आंखों से पिछले भारी-भरकम पहियों को अपनी ओर आते देखा और न जाने किस प्रेरणा से मैंने एकदम पलटी खा ली. बस के पहिए मुझे छूते हुए निकल गए. मैंने उठ कर अपने कांपते शरीर को संभाला. पास में आठ-दस लोग खड़े थे. उनमें दो-एक ने मुझे गले लगा कर कहा, “भाई साहब, आज आपको दूसरी जिंदगी मिली है. ऊपर वाले का शुक्रिया अदा कीजिए. एकाध किलो लड्डू खरीद कर मंदिर में हनुमान जी को चढ़ा आइए.” मेरा शरीर अब भी थरथरा रहा था. किसी ने मेरा ब्रीफकेस मेरे हाथ में पकड़ाया और मैं उन्हें धन्यवाद देकर घर आ गया. उस दिन फिर ध्यानस्थ होकर दुर्गा स्तुति और सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का सस्वर पाठ किया.
अपनी प्रिय मोटरसाइकिल को वहीं फ्लैट के बाहर एक पेड़ के नीचे खड़ा कर दिया था. रोज सुबह-शाम आते जाते उसे देखता, उस पर हाथ फिराता. टूल बाक्स भी उसी के साथ लगे फाइबर ग्लास के बक्से में रखे थे. मेरी आवाजाही चार्टर्ड और डीटीसी बसों से ही चल रही थी, इसलिए मोटर साइकिल वहीं खड़े-खड़े मौसमों को झेलती रही. वह आज भी शायद वहीं होगी हालांकि बीस साल गुजर चुके हैं.
दौड़भाग के उन्हीं दिनों में खबर आई कि फिर प्रमोशन के इंटरव्यू हो रहे हैं. दुत्कारा हुआ मैं साल भर पहले का वह तिक्त अनुभव अभी भूला नहीं था. इसलिए फिर उहापोह में फंस गया कि इंटरव्यू दूं या न दूं. पत्नी लक्ष्मी से चर्चा की तो वह सुनते ही बोलीं, “तुम्हें इंटरव्यू तो जरूर देना चाहिए ताकि साबित हो जाए कि तुम काबिल हो. फिर, नई जगह जाने- न जाने के बारे में बाद में सोच सकते हो.” मैंने भी सोचा कि मैं भी फालतू नहीं हूं, यह तो इंटरव्यू देकर ही पता लग सकेगा.
पता लगा, इस बार इंटरव्यू लेने के लिए दो कमेटियां बनी हैं. उनमें से एक कमेटी के चेयरमैन वही पिछली बार वाले आला अफसर थे और दूसरी कमेटी के चेयरमैन अपनी सख्ती और नियमों के तहत काम करने वाले व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे. आपसी बातचीत में साथी कहते- एक ओर खाई और दूसरी ओर कुआं. मैंने तय किया कि अगर मेरा नाम पिछली बार के चेयरमैन की कमेटी में आया तो शर्तिया इंटरव्यू नहीं दूंगा. दूसरी कमेटी के चेयरमैन मुझे जानते नहीं, इसलिए उनकी कमेटी में नाम आया तो जरूर इंटरव्यू दूंगा. सख्त हैं और नियमों का पालन करते हैं तो क्या पता न्याय भी करते होंगे.
इंटरव्यू के लिए सौभाग्य से मेरा नाम दूसरी कमेटी में आया. इंटरव्यू के दिन जब सख्त आला अफसर के कमरे के बाहर पहुंचा तो कुछ इंटरव्यू देने वाले साथी बैठे थे. बातचीत शुरू हुई तो एक ने कहा, “भाई, आप ओपनिंग बैट्समैन हैं, बचा लेना?”
मैंने कहा, “मैं समझा नहीं?”
“यार, आपसे पहले दो कैंडिडेट थे. वे इस कमेटी का नाम सुन कर आए ही नहीं. इसलिए आप ओपनिंग बैट्समैन हो गए. जहां तक बचा लेने की बात है तो भाई आप हैं टैक्निकल ऑफीसर. इसलिए संभल कर इंटरव्यू देना ताकि चेयरमैन और बाकी लोगों का मूड ठीक बना रहे. यार, हमने भी इंटरव्यू देना है. दिल वैसे ही धुक-धुक कर रहा है.”
एक और साथी ने पूछा, “कोई सोर्स लगाया है?”
मैंने कहा, “हां, लगाया तो है, देखिए क्या होता है?”
“सोर्स तगड़ा है?”
“हां है तो.”
“बता दो यार कौन है?”
मैंने हाथ आसमान की ओर उठा कर कहा, “ऊपर वाला. बाकी तो मैं किसी को जानता नहीं.”
इंटरव्यू शुरू हुआ. मुझे बुलाया गया. भीतर गया. चेयरमैन ने साथ बैठे वरिष्ठ अधिकारी से कहा, “आप पूछिए.”
वे सभी बैंकर थे. इसलिए उन्होंने कहा, “मिस्टर मेवाड़ी आप टैक्निकल ऑफिसर हैं लेकिन जनसंपर्क और प्रचार की तकनीकों से लोगों को बैंक और बैंक की योजनाओं के बारे में आपको जानकारी देनी होती है. इसलिए बैंकिंग की मुख्यधारा की बात करते हैं.” फिर उन्होंने बैंक की बचत योजनाओं, प्राथमिकता क्षेत्र के ऋणों, एनपीए और एसेट्स आदि के बारे में सवाल पूछे. फिर, स्वयं चेयरमैन ने दखल देते हुए कहा, “मिस्टर मेवाड़ी, युवर फील्ड इज पीआर एंड पब्लिसिटी. टैल मी, ह्वट इज देयर दैट हैज नॉट बीन डन इन पी आर एंड पब्लिसिटी इन द बैंक?” (आपका विषय जनसंपर्क और प्रचार है. यह बताइए कि जनसंपर्क और प्रचार में ऐसा क्या है जो अब तक नहीं किया गया है?)”
मैंने गिनाना शुरू कर दिया कि यह किया जा सकता है, वह किया जा सकता है जो अब तक नहीं किया गया है. मुझे लेशमात्र भी शक नहीं था कि मेरे इस जवाब पर पलटवार होगा. जवाब सुन लेने के बाद अचानक उन्होंने पूछ लिया, “बट ह्वाई इट वज नॉट डन ह्वैन यू वैर इन द डिवीजन?” (लेकिन, यह सब क्यों नहीं किया गया जबकि आप स्वयं विभाग में थे?)
मैंने एक सेकैंड सोचा और कहा, “बिकाज आइ हैव बीन एट द एक्जिक्यूशन एंड. जो काम दिया गया, मैंने उसे सफलतापूर्वक लागू किया. लेकिन, प्लानिंग मेरी जिम्मेदारी नहीं थी. होती तो मैं इन कामों को भी लागू कराता.”
“ओ.के.. मान लीजिए कल आपको ऐसी जिम्मेदारी दी जाती है तो आप किस तरह इन्हें लागू करेंगे?”
मैंने विस्तार से उन्हें बताया. जवाब सुनने के बाद वे बोले, “ठीक है, आप जा सकते हैं.”
इंटरव्यू धाराप्रवाह चला. बाहर आकर मैंने राहत की लंबी सांस ली. लोक सेवा आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, बैंकिंग सेवा भर्ती बोर्ड और पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में इंटरव्यू देने के बाद आज वर्षों बाद फिर इंटरव्यू देने का वही संतोष मिला. यह भी लगा कि मां सरस्वती ने मेरी मदद की.
मुझे देखते ही इंतजार करते साथियों ने लपक कर पूछा, “कैसा रहा इंटरव्यू? भीतर मूड कैसा है?”
“अच्छा रहा और मूड भी अच्छा है. आप सभी को मेरी शुभकामनाएं!”
विभाग में आकर मैं अपने काम में लग गया. साथियों ने पूछा तो सही लेकिन उन्हें मेरा पिछली बार का इंटरव्यू याद था, इसलिए उनका संशय बना रहा.
परिणाम आने में साढ़े चार माह लगे. किसी ने आकर बताया इंटरव्यू का रिजल्ट आ गया है. सूचना बोर्ड पर अभी-अभी सूची लगाई गई है. सोलह लोग प्रमोट हुए हैं, सूची में पहला नाम आपका है. मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया और शांत मन से जाकर सूची देख आया. बात सच थी.
अब पोस्टिंग का इंतजार करना था और मेरे पास यह सोचने का समय था कि मैं नए पद पर जाऊंगा या नहीं जाऊंगा.
कुछ समय बाद अपोलो अस्पताल में साइनस और पालिप्स के लिए नाक की जांच करवाई तो पता चला, आपरेशन कराना पड़ेगा. आपरेशन एफ एस एस तकनीक से किया जाएगा. ई एन टी विशेषज्ञ डाॅ. संजय सचदेवा ने कहा कि इस विधि में पालिप्स को उनकी जड़ से उखाड़ दिया जाता है. इसलिए वह दुबारा नहीं होगा. आपरेशन की तारीख 12 नवंबर तय हो गई. समय सुबह 6 बजे. नियत तारीख को सुबह 5 बजे टैक्सी से अपोलो अस्पताल को चले. पत्नी, बेटी वाणी, भतीजा यशवंत और मैं. अस्पताल पहंचते ही मुझे अस्पताल का लबादा पहना कर, ह्वील चेयर में आपरेशन थिएटर के बाहर गैलरी में ले जाकर स्टेचर पर लिटा दिया गया. कुछ और मरीज भी दूसरे स्ट्रेचरों पर लेटे थे. उस एकांत में मन में न जाने कितनी तरह के विचार आ-जा रहे थे. पत्नी, बेटी और भतीजा अस्पताल में और बाकी बच्चे घर पर मेरे लौटने का इंतजार कर रहे थे. मैं भी भारी संशय में था कि न जाने क्या होगा.
उसी बीच एक डॉक्टर ने मेरे पास आकर कहा, “मिस्टर मेवाड़ी, आइ एम डॉ. रेड्डी, युअर एनेस्थीटिस्ट. मैं आपको एनेस्थीसिया दूंगा.”
“क्लोरोफार्म सुंघाएंगे डॉक्टर?”
“नहीं, वह तो प्राचीन तकनीक थी. अब इंजैक्शन दिया जाता है.”
“क्या आप नाक में लोकल एनेस्थीसिया का इंजैक्शन लगाएंगे?”
“नहीं, यह फुल एनेस्थीसिया होगा. इसलिए किसी भी दूसरे इंजैक्शन की तरह शरीर में लगाया जाएगा. इट्स वेरी नार्मल, घबराइएगा नहीं. आपको पता भी नहीं लगेगा.”
मेरा नंबर आने पर मुझे स्ट्रैचर में ही ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया. वैसा दृश्य मैंने अब तक केवल फिल्मों में देखा था. सामने खड़े डाक्टर संजय सचदेवा को पहचाना मैंने. डॉक्टर रेड्डी ने बात करते-करते न जाने कब मुझे इंजैक्शन लगा दिया. थोड़ी देर बाद जैसे मुझे नींद आ गई.
न जाने कितनी देर हो चुकी थी, झटके से अचानक नींद खुली. मुंह पर ऑक्सीजन मास्क लगा था. मैंने सोचा, शायद, आपरेशन की तैयारी हो चुकी है. पास में डॉक्टर खड़ा था. उन्होंने पूछा, “हाउ आर यू फीलिंग.”
मैंने कहा, “फाइन सर. आइ एम रेडी फॉर आपरेशन.”
“आपरेशन तो हो चुका है.”
यह सुनते ही मैं चौंक पड़ा. फिर ख्याल आया कि पहले तो मुंह पर मास्क लगा ही नहीं था. मैंने जोर से सांस ली तो नाक में कोई रुकावट नहीं लगी. फिर एक नर्स ने मुझे ह्वील चेयर में बैठाया और मेरे कमरे की ओर ले चली. पत्नी और बच्चों ने देखा तो उनकी जान में जान आई. नर्स दवा देती रही और डॉ. सचदेवा ने भी जांच करके ढाढस बंधाया कि आपरेशन सफल रहा है और जल्दी ठीक हो जाएंगे.
अगले दिन डॉ. सचदेवा ने जांच के लिए बुलाया और पूछा, “सांस लेने में कोई परेशानी तो नहीं?”
मैंने कहा, “नहीं सर, मुझे तो लग रहा है जैसे नाक की खिड़कियां खुल गई हैं.”
“गौज निकाल दिया गया है क्या?”
“मुझे पता नहीं सर,” मैंने कहा.
उन्होंने नाक की जांच की और चिमटी से दोनों नथुनों में से मीटर-मीटर भर लंबी गौज यानी पट्टी निकाल दी. फिर मशीन से नाक में दवाइयां का स्प्रे किया. उसके बाद की उतनी भरपूर सांस लेने का वह अहसास मैं कभी भूल नहीं सकता.
तीसरे दिन मुझे अस्पताल से रिलीव होना था. फाइनल बिल बनवाया तो कुल भुगतान रू. 28,794 करना था जिसमें से हम काफी पैसा दे चुके थे. बकाया भुगतान के लिए जेबें टटोलीं तो रू. 794 कम पड़ गए. वहां कोई हमारा परिचित भी नहीं था जिससे पैसे ले सकें. फिर वही हुआ जो हमारे साथ संकट की ऐसी घड़ी में हो जाता था. एक परिचित व्यक्ति खैरियत पूछने आ गए. हमने उन्हें अपनी समस्या बताई. उनकी जेब में रू. 900 निकले. हमने रू. 800 उधार लेकर अस्पताल का भुगतान किया और टैक्सी लेकर घर पहुंचे. घर पहुंच कर उसका भुगतान कर दिया.
उसी माह के आखिरी दिन पोस्टिंग और मार्चिंग का आर्डर आ गया. मेरी नियुक्ति अंचल कार्यालय, चंडीगढ़ में मुख्य प्रबंधक के पद पर की गई थी. यह काफी बड़ा अंचल था जिसमें चंडीगढ़ यूनियन टेरिटरी के साथ ही हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर शामिल था. मुझे जनसंपर्क और जनसंचार के प्रबंधन की जिम्मेदारी संभालनी थी. अब सवाल यह था कि मैं नए पद की जिम्मेदारी संभालूं या नहीं. तब यह चर्चा भी जोरों पर थी कि कोई नई नियुक्ति पर जाए या न जाए, तबादला तो होगा ही. कार्मिक मामलों को वही आला अफसर देख रहे थे जो हमारी इंटरव्यू कमेटी के चेयरमैन थे और नियमों का सख्ती से पालन करते थे.
तब सोचा, अगर बाहर जाना ही है तो फिर प्रमोशन पर ही क्यों न जाऊं? इसलिए परिवार को दिल्ली में छोड़ कर मैं 5 दिसंबर 1999 को सायंकालीन शताब्दी ट्रेन से चंडीगढ़ को रवाना हो गया.
“यानी, एक और नया शहर?”
“हां, अब वहीं था मेरा आबोदाना. शाम के धुंघलके में चंडीगढ़ की ओर भागती ट्रेन में ब्रेख्त के उस नाटक ‘एक्सेप्सन एंड द रूल’ का वह गाना बार-बार याद आता रहा- ‘उर्गा में मुझे रोटी मिलेगी, उर्गा में मेरी तनखा है! क्या हुआ वहां पहुंच कर, बताऊं?”
“ओं”
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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प्रणाम!
इस बीच सभी 43 कड़िया पढ़ ली । हर बात काे याद रखना आश्चर्यजनक है ताे उसे जीवन्त बना कर प्रस्तुत करना दमदार व अनाैखा है। आप मस्तिष्क की डिस्क की मेमाेरी पावर बहुत उत्तम है।
प्रमाेशन के मामले में आपकी व्यथा व मनस्थिति उस समय की परिस्थितियाें में उचित है। सलैक्शन बाेर्ड में पूर्वाग्रह से ग्रसित अधिकारी व्यवस्था की धज्जिया उड़ा देते हैं, उनकी इस हरकत का खामियाजा भुगतना पड़ता है ऐसे लाेगाें काे जाध्यानर उधर की बाताें में न उलझ कर अपने कार्य में पूरे मनाेयाेग से साथ संलग्न रहते हैं।
मैं भी इसका शिकार रहा । बाबू से अनुशासन, कार्य चाहे व्यक्तिगत हाे या सरकारी पूर्ण मनाेयाेग से करने की सीख मिली,जिसमें मख्खन बाजी कर काम निकालने की काेई जगह नही थी। 22 साल की लड़ाई के बाद भी न्याय न मिलने पर उच्च न्यायालय जाना पड़ा । खुसनसीबी यह रही कि पहली की सुनवाई में बैक डेट से समस्त लाभ देने का निर्णय हुआ। उसके बाद भी एक साल तक विभाग फाईलाें काे दबाता रहा। फिर कंटैम में जाना पड़ा एक ही माह में सब करना पड़ा।
यह सब इसलिए कह रहा हूं कि जब निर्णय लेने के स्तर पर ऐसे अधिकारी बैठे हाें जाे कार्य काे न देख कर व्यक्तिगत निष्ठा काे ध्यान में रख कर निर्णय लेते हाें ताे फिर राम ही मालिक हाेता है।उसी पर छाेड़ना पड़ता है। कुछ लाेग इसे नियति मान लेते हैं कुछ ऐसे भी हाेते हैं जाे खड़े हाे जाते हैं ।
हर कड़ी में आपके अनुभव व जीवन काे जीने का तरीका गहरी प्रेरणा ताे देता ही विपरीत परिस्थियाें में भी अडिग रहने की शिक्षा भी देता है।
बहुत आभार हरिहर जी।