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हींग लगे न फिटकरी, मालिक की जै-जै : मेले कैसे-कैसे

कहो देबी, कथा कहो – 34

पिछले कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 33

वह नई शाखाओं के खुलने और ऋण मेलों का दौर था. गांव-गांव और घर-घर तक बैंकिंग सुविधाएं पहुंचाने की चर्चाएं की जाती थीं. उस माहौल में लखनऊ पहुंचा तो दफ्तर में सरगोशियां सुनाई देने लगीं कि लो, अब पब्लिसिटी का पेशेवर मैनेजर आ गया है. अब देखना हर आयोजन प्रोफेशनल तरीके से कैसे किया जाता है. मैं सुनता और सतर्क हो जाता. सतर्क इसलिए कि सीधे विश्वविद्यालय से चला आया था और फील्ड में अपनी प्रजाति का मैं पहला मैनेजर था. खुद ही रास्ता बनाना था और खुद ही तौर-तरीके खोजने थे. भाषण देने का अभ्यास और अनुभव नहीं था हालांकि बोलने को मन मचलता था. दफ्तर की सरगोशियां सुन कर शाम को होटल के कमरे में लौटता तो सोचता रहता कि कैसे क्या करूंगा. लेकिन भाषण और संचालन? सोच कर दिल बैठने लगता. तभी साहित्यकार शैलेश मटियानी जी के शब्द याद आते कि देवेन, तुम व्याख्यान जरूर देना, तुम्हें लोग सुनेंगे. उनके इन शब्दों से मेरी हिम्मत बढ़ती.

बहरहाल, वह दिन भी आ गया जब मुझे बैंक के पहले आयोजन का संचालन करना था. पता लगा, लखनऊ में ठाकुरगंज शाखा खुलेगी. उसके उद्घाटन के लिए केन्द्रीय मंत्री ब्रहमदत्त आ रहे हैं. डेकोरेशन और संचालन की जिम्मेदारी मुझे दी गई. क्षेत्रीय प्रबंधक डी.पी. सिंह जी भी अलग सोच के आदमी थे. कहते थे, हम आम लोगों की सेवा कर रहे हैं. इसलिए हमें उनको बैंकिंग के साथ-साथ स्वास्थ्य तथा सामाजिक जिम्मेदारियों की जानकारी भी देनी चाहिए.

वे मुझे यूनिसेफ के स्थानीय आफिस में ले गए. वहां से स्तनपान और टीकाकारण आदि की जानकारी देने वाले कई पोस्टर खरीदे और फ्रेम करने के लिए दे दिए. बाद में बैंक के पोस्टरों के साथ-साथ वे भी नई शाखा की दीवालों पर टांग दिए. शाखा को ढंग से सजा दिया गया. बैनर लगा दिए. बोलने के लिए पोडियम और माइक भी लगवा दिया. बोलने के लिए मुझे दुष्यंत कुमार के शब्द याद आए और उनकी किताब ‘साये में धूप’ खरीद ली. देर रात तक उसे पढ़ता रहा.

सुबह ठाकुरगंज पहुंचा. जहां शाखा खुलनी थी, उसका जायजा लिया. लेकिन यह क्या? दीवालों पर से यूनीसेफ के पोस्टर तो गायब थे. वहां केवल बैंक के पोस्टर लगे थे. यहां-वहां देख ही रहा था कि एक पुराने प्रबंधक मिल गए. वे कड़े अनुशासन वाले अंचल प्रबंधक और सच कहा जाए तो सभी आला अधिकारियों के करीबी माने जाते थे. उनकी खासियत यह थी कि वे नमस्कार के बजाए हर समय ‘मालिक की जै-जै’ कहा करते थे. मैंने हैरानी से पूछा, “पोस्टर कहां गए?”

“भीतर स्टोर में रख दिए हैं मैंने. वैसे बड़े साहब ने तो कहा था कि उन्हें कहीं दूर फेंक दो. आपकी नई नौकरी है, इसलिए सोचा कि पोस्टर संभाल दूं और आप को भी समझा दूं.”

“लेकिन, ऐसा क्या हो गया?”

“ऐसा क्या? कल शाम को जब आप चले गए थे तो बड़े साहब आए. उन्होंने देखते ही कहा- ‘यह बैंक की शाखा है या अस्पताल? हटाओ इन पोस्टरों को, कहीं दूर फेंक दो.’ मैंने कहा साहब, अभी सब करा देता हूं. मुझे तो पहले ही पता था, बड़े साहब को वे पोस्टर पसंद नहीं आएंगे. अब ऐसा करो कि उन पोस्टरों की बात भी मत करना,” उन्होंने कहा.

मैं ही नहीं, क्षेत्रीय प्रबंधक भी हैरान हुए. वे धीरे से बोले, “जो लोग परंपरागत बैंकिंग करते आ रहे हैं वे नए परिवर्तन नहीं चाहते.”

खैर, ब्रहमदत्त जी नियत समय पर पहुंच गए. बैंक के अधिकारी और स्थानीय लोग जब बैठ गए तो अंचल प्रबंधक ने आंख से इशारा किया कि कार्यक्रम शुरू कर दो. वह मेरी परीक्षा की घड़ी थी. मैंने मन में सोचा, यह मेरा पहला अवसर है और किसी भी तरह मुझे इस काम में कामयाब होना है. इसलिए मत चूके चौहान. संचालन शुरू किया. लाला लाजपत राय के मार्गदर्शन में पांच देशभक्तों की कोशिश से शुरू हुए स्वदेशी पंजाब नैशनल बैंक के गौरवमय इतिहास का जिक्र करके स्वागत भाषण के लिए अंचल प्रबंधक को बुलाया. बाद में मुख्य अतिथि ब्रहमदत्त जी बोले. संचालन के दौरान मैं दुष्यंत कुमार की पंक्तियों का सहारा लेता रहा. कार्यक्रम पूरा हुआ, अतिथि लौट गए और साथियो को बात करते सुना कि ‘देखा, प्रोफेशनल तरीके से संचालन कैसे किया जाता है!’

फिर तो हर आयोजन की जिम्मेदारी संभालने लगा. कुछ और शाखाएं खुलीं, उनमें बोलने से अनुभव भी बढ़ा और हिम्मत भी. लेकिन उसी दौरान अंचल प्रबंधक महाप्रबंधक हो गए. महाप्रबंधक के नए कार्यालय का उद्घाटन सर पर आ गया. उस कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र जी को बुलाने का निश्चय किया गया. आशा थी कि वे आएंगे लेकिन एक दिन पहले बताया गया कि वे नहीं आ सकेंगे. हम दो-तीन साथियो ने मिल कर दौड़-धूप की और केबिनेट स्तर के तीन मंत्रियों को आने के लिए राजी कर लिया. कार्यक्रम के लिए मैंने पंडाल के भीतर प्रधान कार्यालय से मिले पोस्टरों को फ्रेम करा कर सजा दिया. तीनों मंत्रियों की उपस्थिति में कार्यक्रम सफलतापूर्वक संपन्न हो गया. जलपान करके सभी अतिथि विदा हो गए.

देर दोपहर बाद मैं भी प्रसन्नचित्त बैठा हुआ था कि तभी चपरासी ने आकर कहा, “आपको बड़े साहब भीतर बुला रहे हैं.”

मैं खुश हुआ कि शायद शाबासी मिलेगी. भीतर गया तो देखा, बड़े साहब गंभीर चेहरा बना कर कुर्सी पर बैठे हुए थे और उनकी मेज की बगल में कड़क मुख्य प्रबंधक खड़े थे.

मैंने भीतर जाकर कहा, “जी हां सर.”

बड़े साहब ने मुख्य प्रबंधक को सिर हिला कर इशारा किया. वे मेरी ओर मुखातिब होकर बोले, “ओए, मेवाड़ी तुम्हारा इंतजाम ठीक नहीं था.”

मैंने कहा, “सर सभी लोग प्रोग्राम की तारीफ कर रहे हैं.”

“तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. यू वर नॉट प्रापर्ली ड्रेस्ड.”

मैंने कहा सर, “मैंने भी आपकी तरह सफारी-सूट पहना था.”

तभी बड़े साहब की आवाज सुनाई दी, “इनकी समझ में नहीं आएगा, इन्हें लिख कर दे दो.”

मुख्य प्रबंधक बोले, “द लेडी इन द पोस्टर वज इन स्केंटी ड्रेस.”

मैंने हैरान होकर कहा, लेकिन, “वे पोस्टर तो प्रधान कार्यालय ने भेजे हैं.”

बड़े साहब उनसे बोले, “इन्हें जाने को कह दो.”

मैं हताश और निराश होकर बाहर आया और अपनी मेज पर बैठ गया. सोचता रहा कि इतनी दौड़-भाग के बाद साथियो के साथ मिल कर कार्यक्रम कराया और नतीजा यह रहा? आखिर मेरी गलती कहां थी? यही सोचता हुआ बहुत उदास बैठा था कि मैंने अपने कंधे पर थपकी महसूस की. देखा, वरिष्ठ क्षेत्रीय प्रबंधक शर्मा जी थे. उन्होंने कहा, “जरा भीतर मेरे कमरे में आइए.”

मैं उनके कमरे में गया. उन्होंने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया. उससे एक गिलास पानी लाने को कहा. वह पानी लाया तो उन्होंने पानी का गिलास मुझे देने को कहा. बोले, “पानी पी लीजिए.”

मैंने पानी पिया तो वे बोले, “आज आपके चेहरे पर वह ताजगी और चमक नहीं है, जो मैं रोज देखता हूं. क्या बात है?”

मैंने कहा, “कोई बात नहीं है सर.”

“नहीं, कुछ न कुछ बात तो है. क्या बड़े साहब ने कुछ कहा?”

मैंने ‘हां’ में सर हिलाया. मेरी हालत रुलाई फूटने वाले बच्चे की तरह थी. वे बोले, “मैं आपका चेहरा देख कर समझ गया था, इसलिए आपको बुलाया. आप विश्वविद्यालय जैसी जगह से आए हैं. आपको उनकी बात से ठेस लग गई. आप क्या सोच रहे हैं कि हमसे कुछ नहीं कहा गया है. आपका नंबर तो अंत में आया है. हम इससे बहुत अधिक सुन चुके हैं. मेवाड़ी जी, यहां तो यह आम बात है. इसलिए आपको ऐसी चीजें सुन कर मन से बाहर निकाल देने की आदत डालनी होगी.” फिर उन्होंने अपने किसी पुराने अधिकारी का उदाहरण देकर कहा ‘कि वे अचकन पहनते थे. ऊपर से अगर कुछ ऐसा लिखा हुआ आता जो उन्हें पसंद नहीं होता तो वे उस कागज को अपनी बाईं जेब के हवाले कर देते. कहते थे- लो यह अब दाखिल दफ्तर हो गया! फिर वे उसे भूल जाते थे.’ उन्होंने कहा कि मुझे भी ऐसा ही करना होगा. फिर उन्होंने चाय मंगाई और चाय पर बातें करते रहे.

निराशा के उस घटाटोप में उनकी वह आत्मीयता और हमदर्दी मेरे मन को छू गई. लगा जैसे मेरे घाव पर कोई मलहम लग गया हो.

उन्हीं दिनों पता लगा, रायबरेली जिले में बैंक की कठौरा शाखा में एक विशाल ऋण मेले का आयोजन किया जाएगा. उसमें कई हजार लोगों के आने की बात थी और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उस ऋण मेले के मुख्य अतिथि होंगे राजीव गांधी. यानी, उसमें केन्द्र और प्रदेश के दिग्गज मंत्री भी आएंगे ही. तुरंत कार्यवाही शुरू हुई और बड़े पैमाने पर इंतजाम किए जाने लगे. मुझसे कहा गया, यह मेरे काम की कड़ी परीक्षा की घड़ी है, ‘सो डू, ह्वट ऐवर बेस्ट यू कैन डू. शो युवर स्किल.’ (इसलिए जो सर्वोत्तम कर सकते हो, कर दिखाओ. अपनी निपुणता दिखा दो) उस विशाल ऋण मेले में एक ऐसी प्रदर्शनी भी लगनी थी जिसमें कारीगर, दस्तकार, किसान, लघु उद्यमी, कमज़ोर वर्ग के लाभार्थी आदि सभी को वहां मंडपों में मौजूद रहना था. मेले के लिए कई टीमें बना दी गईं. पीआर, पब्लिसिटी का काम जाहिर है मुझे ही देखना था. मेरे साथ एक लघु उद्योग अधिकारी साथी सहयोग कर रहा था.

ऋण मेले में लोग

मेले के दिन मैंने राजमार्ग के आर-पार और अन्यत्र तमाम बैनर लगवाए. आयोजन स्थल पर पोस्टर प्रदर्शित किए और टेपरिकार्डर पर बैंक के जिंगल बजाता रहा. मेले का माहौल बन गया. भीड़ जमा होती चली गई. आला अधिकारी आ गए. पुलिस ने चाक-चौबंद सुरक्षा का इंतजाम कर लिया. जिन लाभार्थियो को बैंक से आर्थिक मदद मिलनी थी, वे भी कतारों में बैठा दिए गए. उन्हें दी जाने वाली वस्तुएं भी सजा दी गईं. प्रदर्शनी मंडपों में कहीं कारीगर तो कहीं दस्तकार, कहीं हथकरघा बुनकर तो कहीं किसान, मछली और मुर्गीपालक, लघु कारोबारी लोगों को मुस्तैदी से अपने-अपने काम की बातें बताने लगे.

मुख्य अतिथि राजीव गांधी ‘बस पहुंच रहे हैं, पहुंच रहे हैं’ की बातें शुरू हो गई थीं. समारोह की अध्यक्षता विधान सभा अध्यक्ष ब्रह्मदत्त जी को करनी थी. उसी भीड़ में कड़े अंचल प्रबंधक ने मुझे पास बुलाया और फिर जरा किनारे ले जाकर कहा, “आज बहुत कुशलता से कार्यक्रम का संचालन करना है. आइ नो, आपकी भाषा अच्छी है. इसलिए चुने हुए शब्दों से संचालन करना. एक बात ध्यान में रखनी है-समारोह के मुख्य अतिथि राजीव गांधी हैं लेकिन अध्यक्षता ब्रहमदत्त जी करेंगे. संबोधन में तो पहले अध्यक्ष का नाम लेना होगा? या राजीव गांधी का नाम पहले लोगे?”

कठौरा में राजीव गांधी

वे असमंजस में थे. मैंने संकोच के साथ कहा, “सर, आप फिक्र न करें. मैं ठीक ही बोलूंगा.”

तब तक राजीव गांधी का कारवां आ पहुंचा. विशाल मंच पर गाव तकिए बिछे थे जिन पर मुख्यमंत्री, मंत्री और बैंक के दो-एक आला अधिकारी विराजमान होने वाले थे. राजीव गांधी और उनके अमले को पहले प्रदर्शनी दिखाई गई और फिर वे मंच पर आए. अब तक के अनुभवों में पगा मैं पोडियम पर था. इशारा मिलते ही मैंने संचालन शुरू किया और उस अवसर के मुताबिक चुनिंदा पंक्तियां बोल कर स्वागत के लिए बैंक के चेयरमैन को आमंत्रित किया. बाद में राजीव गांधी को बोलने के लिए आमंत्रित किया. पास आकर उन्होंने थैंक्यू कहा और माइक पर अपनी बात शुरू की. वे राजीव गांधी के राजनीतिक भविष्य के लिए उनकी छवि बनाने के दिन थे और शायद रायबरेली जिले के ग्रामीण क्षेत्र में अपार जनसमूह को संबोधित करने का उनका यह एक शुरूआती मौका था.

यह कार्यक्रम भी सफल रहा. आंखें थीं, इसलिए दफ्तर में फल की आशा में हो रही आम-ओ-दरफ्त को मैं भी चुपचाप देखता रहता था. मेरा क्या था, मैं तो ‘दिस इज हिज ड्यूटी’ (यह उसका काम है) सुन कर ही खुश रहता था. खुश रहना ही था क्योंकि मेरा बैंक मुझे तनखा देता था. उस तनखा से मेरे बच्चे, मेरा परिवार पल रहा था.

उसी दौर में रायबरेली, महाराजगंज, लालगंज और सिलोन में भी ऋण मेलों की धूम रही. एक दिन रायबरेली शाखा में बैठा था. उसके दक्षिण भारतीय ब्रांच मैनेजर धीरे से बता रहे थे कि क्या करें, यहां तो कोई फोन आता है, हम आ रहे हैं लोन (ऋण) लेने और कुछ देर बाद कोई बंदूकधारी अपने एक-दो साथियों के साथ आकर बैठ जाता है. कहता है कि इतने रूपयों का लोन चाहिए. जरा जल्दी करा दो, हमें कहीं जाना है! बताइए क्या करें? नौकरी छोड़ नहीं सकते.

रात होटल के कमरे में भी ऋण के अनुभवों पर चर्चा चलती रहती. कोई कह रहा होता, “ऋण की वसूली के लिए एक गांव में गए. जीप गांव तक जा नहीं सकती थी, पहले ही छोड़नी पड़ी. गांव में पहुंचे तो कर्जदार ने ऋण लौटाने की बात सुन कर पिस्तौल निकाल ली. बोला, “इज्जत के साथ लौट जाओ, यही ठीक रहेगा. सरकार हमें लोन के रूप में मदद दे रही है और तुम पैसे मांगने यहां घर तक चले आए?” अब बताइए, ऐसी हालत में करें तो क्या करें. लोन भी दो और भुगतो भी.

यह सुन कर हमारी टीम के मैनेजर इंचार्ज बोले, “भय्ये, ठाठ तो मेवाड़ी जी के हैं. भोंपू पर बाजा बजा कर समां बांध दो और माइक पर भाषण दे दो. किसका लोन, कैसा लोन? हींग लगे न फिटकरी… मालिक की जै-जै!” मैं चुपचाप सुनता रहता. और, करता भी क्या?

प्रदर्शनी में कारीगर और दस्तकार

उन्हीं दिनों गोरखपुर से करीब 78 किलोमीटर दूर मुख्यमंत्री बीर बहादुर सिंह के गांव पनियरा  में ऋण मेला लगा. बरसात के दिन थे. मैं बैनर, पोस्टर लपेटे कृषि अधिकारी साथी डा. फूलसिंह की मोटर साइकिल के पीछे बैठा और उनके साथ पनियरा को चला. बरसात के दिन थे. बादल गड़गड़ाए और बारिश शुरू हो गई. रात भर भी बारिश हुई थी. ऋण मेले में पहुंचना जरूरी था, इसलिए हम आगे बढ़ते रहे. पनियरा पहुंचते-पहुंचते सड़क के दोनों ओर खेत पानी से डबाडब भर चुके थे. रास्ते में एक-दो कारें भी पानी में रुकी हुई दिखाई दीं. खैर, हम किसी तरह पनियरा पहुंचे और शाखा के भीतर जाकर भीगी हुई कमीज उतारी, पेंट के पायचे घुटनों तक मोड़े और दीवालों पर बैनर तथा पोस्टर लगाने में जुट गया. तभी बैंक के चेयरमैन और दूसरे अधिकारी वहां पहुंच गए.

पनियरा से आगे सागौन के घने जंगल थे. उन जंगलों में टांगिया मजदूर रहते थे. यह ऋण मेला उन्हें ही आर्थिक मदद देने के लिए लगाया गया था. ट्रकों में बैठा कर टांगिया मजदूर वहां लाए गए और उन्हें रिक्शा, लाउडस्पीकर, सिलाई तथा बुनाई मशीन आदि के लिए ऋण बांटे गए. मेला तो खत्म हो गया लेकिन हमें चीजें समेटते-समेटते शाम हो गई, इसलिए तय किया कि रात को वहीं रहेंगे. पास में ही एक घर था जिसका मालिक डॉ. फूल सिंह को जानता था. हमने वहीं रूकने का निश्चय किया. खाना सड़क के किनारे एक झोपड़ी में मिल गया. अगली सुबह गोरखपुर लौट आए.

“मतलब, कहां-कहां जो गए आप?”

“यह कहिए कि कहां नहीं गए. पूर्वी उत्तर प्रदेश का चप्पा-चप्पा छाना था तब. पहाड़ों में कुमाऊं क्षेत्र भी तब पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही आता था. तो, एक दिन वरिष्ठ क्षेत्रीय प्रबंधक साहब ने कहा कि सुबह पिथौरागढ़ चलना है, शाखा उद्घाटन के लिए.”

“तो, गए आप वहां?”

“बिलकुल, बताऊं उस यात्रा के बारे में?”

“ओं”

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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