कहो देबी, कथा कहो – 26
पिछली कड़ी:कहो देबी, कथा कहो – 25, देबी के बाज्यू आये पंतनगर
अनुशासन प्रिय कुलपति जनवरी 1975 में विदा हुए. विश्वविद्यालय में उनका आखिरी दिन था. भावभीनी विदाई दी जा चुकी थी. उनके लिए वह बहुत व्यस्तता का दिन था.
(Chandra Shekhar Lohani)
तभी, मेरे 240 नंबर पर उनके सचिव तिवारी जी का फोन आया, “आइए, आपको वी सी साहब बुला रहे हैं.”
मैं चौंका, आज? आज क्या काम होगा मेरे लिए? खैर तुरंत वीसी आफिस पहुंचा. भीतर गया. कुलपति डॉ. घ्यानपाल सिंह अकेले बैठे थे. बैठने का इशारा किया. मैं बैठा.
मेरी ओर देख कर, उन्होंने पूछा “यहां आपका एक बार प्रमोशन हुआ?”
मैंने कहा, “नहीं सर, प्रमोशन तो नहीं हुआ.”
“क्यों? पहले आप अनुवाद-प्रकाशन निदेशालय में वरिष्ठ अनुवादक थे, फिर ‘किसान भारती’ के संपादक हो गए? वह प्रमोशन नहीं था क्या?”
“नहीं सर, दैट इज ओन्ली चेंज ऑफ डेजिग्नेशन (केवल मेरा डेजिग्नेशन हिंदी संपादक हो गया था)” मैंने बात स्पष्ट की.
“क्या? वह प्रमोशन नहीं था? उन्होंने सोचते हुए धीरे-धीरे कहा, “ओ आई सी.” लगा, जैसे उन्हें कहीं कुछ भ्रम था. फिर मुझसे बोले, “नाउ आई एम गोइंग. मैं आपको बहुत शुभकामनाएं देता हूं. आपने जिस कुशलता से ‘किसान भारती’ और ‘पंतनगर पत्रिका’ का संपादन किया है, उनका स्तर बढ़ाया है, आप इसी तरह काम करते रहें. युअर फ्यूचर इज ब्राइट. गौड विल हेल्प यू. माइ ब्लैशिंग्स विल आलवेज बी विद यू.”
मैंने उन्हें तहेदिल से धन्यवाद दिया, नमस्कार किया और चला आया. उनकी शुभकामनाएं सदा मेरे साथ हैं.
ऋतु बदली, कुलपति बदले. उनके जाते ही श्री शिव प्रसाद पांडे, आई ए एस नए कुलपति आ गए. 25 जून 1975 से देश में आपातकाल लागू हो गया. 2 अप्रैल को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह की मुख्य अतिथि बन कर पंतनगर आईं. उसी दौर में आए गोपाल दास नीरज भी. पहली बार विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्तर का कवि सम्मेलन किया गया. कई नामी-गिरामी कवियों के साथ नीरज भी आए. उन्हें संभाल, सहेज कर मंच पर बैठाया गया. सारा हाल उन्हें सुनने को बेताब था. उन्होंने अपने अंदाज़े-बयां में गीत शुरू किया:
दिल्लीईई जाने वाले मुसाफिर
कहना इंदिरा गांधी से
कि बच नहीं सकेगी अब वो
जय प्रकाश की आंधी से!
हॉल तालियों से गूंज उठा और आयोजकों के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. यह क्या हो गया? इतने बड़े कवि नीरज को क्या कहें? और सुरूर में डूबे नीरज थे कि तरन्नुम में गाए चले जा रहे थे. किसी तरह वह गीत खत्म हुआ और उन्होंने नया गीत शुरू किया:
अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इंसान को, इंसान बनाया जाए.
कुछ राहत मिली आयोजकों को. कविताएं सुनते-सुनाते काफी रात गुजर गई. किसी के लिए अच्छे, किसी के लिए बुरे दिन थे वे. अनुशासन प्रिय कुलपति के जाने के बाद नए कुलपति ने सरल-सहज रूप से काम संभाल लिया था. उन्हीं दिनों की बात है, एक दिन कुलपति आफिस से फोन आया कि कुलपति बुला रहे हैं. उनके कमरे में देखा तो एक बुजुर्ग भी वहां बैठे थे- नीली कमीज, पैजामा, सफेद वास्कट और हल्की नीली टोपी. हाथ में छड़ी.
कुलपति पांडे जी ने कहा, “ये चंद्रशेखर लोहुमी जी हैं. मैंने उन्हें ‘प्रणाम’ किया. पांडे जी ने आगे कहा, प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक रहे हैं. इन्होंने लैंटाना बग पर बहुत काम किया है. इन्हें अपने साथ ले जाइए, इनसे बातें कीजिए और देखिए कि इन्होंने क्या काम किया है. यह आपका विषय है. इनके काम के बारे में ‘किसान भारती’ में भी छाप सकते हैं. ये बहुत ही सरल आदमी हैं. यह देखिए मेरे लिए फल लाए हैं. कह रहे हैं, सोचा खाली हाथ कैसे जाऊं, रास्ते में यह फल मिल गया.”
लोहुमी जी भी मुस्कराए. मैंने देखा, कुलपति की मेज पर एक कागजी नींबू रखा था. मैं लोहुमी जी को साथ लेकर अपनी केबिन में आ गया और ध्यान से उनकी रामकहानी सुनने लगा. ज्यों-ज्यों सुनता गया, उनकी धुन और लगन से चकित होता चला गया. प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक और लैंटाना यानी हमारी भाषा में ‘कुरी’ के कीड़े पर एक सिद्धहस्त, समर्पित वैज्ञानिक की तरह काम करने का उनका गजब का जुनून!
वे बताते रहे, मैं सुनता रहा- कि, वे अल्मोड़ा जिले में सतराली में पंथगांव से हैं और मिडिल तक पढ़े हैं. तब मिडिल कक्षा-7 तक ही होता था. फिर प्राइमरी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई. मुक्तेश्वर के पास गहना गांव में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. मेरे तबादले बहुत हुए. जहां भेजते, मैं खुशी से चला जाता था, क्यों? क्योंकि मुझे तो बच्चे पढ़ाने थे, जहां जावूंगा, वहीं पढ़ा दूंगा.
“लेकिन, यह लैंटाना मतलब कुरी आपके काम में कैसे शामिल हो गई?” मैंने पूछा.
“यह बबाली झाड़ी तो तराई-भाबर से पहाड़ तक किसानों की दुश्मन बन गई. उस पर ध्यान जाना ही था. सन् 1936 में जब मेरा तबादला नौकुचियाताल हुआ तो देखा कि वहां तो यह झाड़ी बहुत ही बुरी तरह फैल गई है. पहले नौकुचियाताल और भीमताल में ये झाड़ियां नहीं दिखाई देती थीं,” उन्होंने कहा.
“और, लैंटाना बग?” मैंने पूछा.
(Chandra Shekhar Lohani)
“उसे मैंने उसी नौकुचियाताल में खोजा. असल में कभी मैंने कहीं पढ़ा था कि आस्ट्रेलिया में नागफनी बुरी तरह फैल गई थी. उसे नष्ट करने वाला एक कीड़ा वहां मिल गया जिसकी मदद से नागफनी को खत्म करना संभव हो गया. मैंने सोचा, क्या पता कुरी को नष्ट करने वाला भी कोई कीड़ा हो, क्या पता? तो, पता लगाने में जुट गया. कुरी मतलब लैंटाना की झाड़ियां टटोलने लगा दिन-रात. (हंसते हुए) लोग सोचते होंगे- पागल हो गया है!”
मैंने कहा, “यह तो अंधेरे में तीर मारने की बात हो गई?”
“हां, बिल्कुल हो गई, लेकिन मैंने अंधेरे में तीर नहीं, अपनी छड़ी मारी. एक दिन गुस्से में जब लैंटाना की झाड़ी पर छड़ी मारी तो देखा कई कीड़े नीचे गिरे. उस झाड़ी की पत्तियां सूख जैसी रही थीं. तो, बस कीड़ा मिल गया. मैंने उसे कुरी का खटमल कहा. दो-एक वैज्ञानिकों को बताया तो वे इसे ‘लैंटाना बग’ कहने लगे. मैंने उसे कुरी की झाड़ियों पर फैलाया. मुझे उन झाड़ियों को नष्ट करने में सफलता मिली. मेरे इन प्रयोगों का पूरा लिखित ब्यौरा मेरे पास है. उसमें सब कुछ लिखा है कि मैंने कब क्या किया,” उन्होंने अपनी बात पूरी की.
(Chandra Shekhar Lohani)
कोई और होता तो सबसे पहले शायद यह बताता कि उसे आदर्श शिक्षक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है. लेकिन, इन सीधे-सादे मास्साब ने उसका कोई जिक्र नहीं किया. यह तो मुझे बाद में मालूम हुआ कि वे सन् 1964 में शिक्षक दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के हाथों से आदर्श शिक्षक के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं. वे तो बस लैंटाना बग की अपनी खोज के बारे में बताते जा रहे थे.
मैंने उनसे कहा, “आपको क्या पता कि वह कुरी को ही खाता है?” तो, वे बोले, “पता है क्योंकि मैंने 276 वनस्पतियों पर प्रयोग करके देखा. साग-पात, फल-फूल, अनाज के पौधे, जंगली पौधे-सब पर डाला. कुछ वैज्ञानिकों ने शंका जताई कि कुरी का यह कीड़ा सागौन मतलब टीक के पौधों को खा देगा. नौकुचियाताल, भीमताल में सागौन था नहीं. मैं भाबर जाकर नर्सरी से सागौन के दो पौधे लाया. उन पर कुरी का कीड़ा डाला. उसने नहीं खाया. मैंने वैज्ञानिकों से कहा, “मेरे हाथ से तो नहीं खाता है, आप खिला सकते हो तो खिला दो.”
“लोहुमी जी, जीव विज्ञान की भाषा में इसे कहते हैं- बायोलाजिकल कंट्रोल, मतलब जैव नियंत्रण. बिना किसी दवाई या रसायन के प्रकृति में ही मौजूद किसी तरीके से रोकथाम कर लेना. आपका यह काम भी कुरी की रोकथाम के लिए जैव नियंत्रण का काम है. मैं आपके इस बारे में ‘किसान भारती’ के इसी अंक में लेख लिखता हूं. मेरी इस पत्रिका के पाठक किसान भाइयों के लिए आप खुद एक लेखमाला लिखिए कि यह कुरी का कीड़ा क्या है और कैसे इन कीड़ों से इस विनाशकारी खरपतवार को नष्ट किया जा सकता है.” बाद में उन्होंने वे लेख लिखे. उनका पहला लेख ‘क्या है कुरी का कीड़ा या लैंटाना बग’, ‘किसान भारती’ के जून-जुलाई 1976 अंक में छपा.
बातचीत में उनका मेरा मन कुछ ऐसा मिला कि फिर वे प्रायः मेरे घर पर भी आने लगे. आते और बाहर बरामदे में मालती की बड़ी बेल की बगल में मोढ़े पर बैठ जाते. उनके साथ तमाम बातें होती रहती थीं- उनके अध्यापन के दिनों की, उनके काम की मेरे काम की. हम अपने गांव और जिम कार्बेट की भी बातें करते. वे पुराने पानी के धारों, नौलों और जंगलों की भी चर्चा करते. एक बार उन्होंने बताया कि जब वे मुक्तेश्वर में थे तो वहां एक बूटी के बारे में किसी ने एक किस्सा सुनाया था.
किस्सा यह था कि एक बार वहां एक आदमी शिकार लेकर जा रहा था. शिकार बेचने की दुकान तो होती नहीं थी. कुछ लोग बकरा मोल लेते और खुकुरी से छनका करके मारते. फिर पूरे बकरे के शिकार के टुकड़े बना कर बराबर-बराबर हिस्से बना कर बांट लेते. ऐसा ही हिस्सा लेकर जा रहा था वह आदमी. कागज वगैरह में लपेट रखा होगा शिकार. कागज गलने से गिर रहा होगा तो उसने किसी पेड़-पौधे के चौड़े पत्ते तोड़े और शिकार उनमें लपेट लिया. घर जाकर देखा तो देख कर चकित रह गया- पूरा शिकार चिपक कर एक गोला जैसा बन गया था.
(Chandra Shekhar Lohani)
“किस्सा सुनाने वाला तो सुना गया लेकिन मैं सोचता रह गया- अगर उस बूटी का, उस पौधे का पता लग जाता तो घाव भरने की अचूक दवा बन जाती. मैं जितने दिन वहां रहा, ऐसे पत्तों के बारे में सोचता और उन्हें खोजता भी रहा लेकिन जल्दी ही तबादला हो गया और वह बूटी अनजानी रह गई,” उन्होंने उसे खोज न पाने के लिए अफसोस जताते हुए कहा.
वैसे किस्सा वे उसी मुक्तेश्वर के एक अंग्रेज का भी सुनाते थे. कहते थे, जब देश आजाद हो गया तो उस बीच अंग्रेज तेजी से बिलायत को लौटने लगे, यह सोच कर कि यहां पता नहीं जान-माल की हिफाजत होगी भी या नहीं. तो, जब सभी अंग्रेज परिवार जाने लगे तो उनमें से एक जवान अंग्रेज अड़ गया कि मैं तो नहीं जावूंगा. घर वालों ने बहुत समझाया लेकिन उसने जिद बांध दी कि ना, नहीं जावूंगा.”
“जैसे कमिश्नर रामजे भी राजी नहीं थे बल विलायत जाने के लिए?” मैंने पूछा.
“रामजे की बात, कुछ और थी, इस अंग्रेज की कुछ और,” लोहुमी जी ने मुस्कराते हुए कहा.
मैंने कहा, “आप मुस्करा रहे हैं. ऐसी क्या बात थी?”
वे बोले, “असल में वह एक हुणक्यांणी को बहुत चाहता था. मैंने तो देखा ही था, हुणक्यांणी के ही घर में पड़ा रहता था. उसका पति सारंगी बजाता और हुणक्यांणी गाते हुए नाचती थी. जहां-जहां वे जाते, वह अंग्रेज भी उनके साथ जाता. उनकी तो रोजी-रोटी ही यही थी. लोगों के आंगन में जाकर हुणक्यांणी नाचती थी. जब वह नाचती तो अंग्रेज भी मस्त होकर नाचने लगता उसके साथ. हुणक्यांणी गोरी-फनकार और देखने में सुंदर थी. बस, उसके प्रेम में पागल हो गया वह. मैं तो फिर चला गया था वहां से, जाने क्या हुआ उसका.”
एक और बूटी के बारे में बताया उन्होंने कि अगर उसकी सूखी पत्तियों का चूर्ण पानी में डाल दें तो पानी जम कर जैली जैसा हो जाता है. वे कहते थे, वहां ब्राह्मी और वज्रदंती भी होती थी.
(Chandra Shekhar Lohani)
जिम कार्बेट की बात करते-करते एक दिन मैंने उनसे कहा, “कार्बेट ने अपनी किताब ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ में चौगढ़ की जिस आदमखोर बाघिन के बारे में लिखा है, उसे उन्होंने मेरे गांव के उस डाक बंगले में रह कर, वहां से करीब तीन किलोमीटर दूर मारा था. कहते हैं, वे जहां-जहां जाते थे, वहां रोज की डायरी लिखते थे कि किस दिन क्या किया. मैंने डाक बंगले में जाकर पता किया तो केयरटेकर ने बताया, एक ऐसी डायरी जैसी किताब एसीएफ बघेल साब ले गए थे. कह रहे थे, अगली बार दौरे पर आवूंगा तो लौटा जाऊंगा. वह डायरी अब तक नहीं लौटाई गई है. उसे या तो मेरे गांव के डाक बंगले में होना चाहिए या फिर कार्बेट म्यूजियम को सौंप देना चाहिए.”
“डायरी नहीं लौटाई? यह तो बहुत गलत बात है,” लोहुमी जी ने कहा.
मैंने कहा, “अब शिकायत भी करूं तो कहां करूं? वन विभाग में किसी उच्च अधिकारी को बताना चाहता हूं.”
लोहुमी जी तुरंत बोले, “एक अर्जी लिखो डी.पी. जोशी जी के नाम. वे उत्तर प्रदेश के चीफ कंजर्वेटर हैं. मैं कल लखनऊ जा रहा हूं. अर्जी उन्हें दे दूंगा और बता भी दूंगा.”
मैंने खुश होकर कहा, “यह तो बहुत बड़ी मदद हो जाएगी.”
वे बोले, “तुम अर्जी तो लिखो.”
मैंने अर्जी लिखी और सुझाव दिया कि अंग्रेजों के समय से वन विभाग के डाक बंगलों में कई बेशकीमती दस्तावेज रखे हुए हैं. उनका संरक्षण किया जाना चाहिए. ऐसे दस्तावेजों को कार्बेट म्यूजियम में रखा जाना चाहिए. अर्जी में मैंने अपने गांव के डाक बंगले की डायरी के बारे में भी लिखा.
लोहुमी जी ने मेरी वह अर्जी लखनऊ में सीधे चीफ कंजर्वेटर डी.पी. जोशी जी को दे दी. कुछ दिनों बाद मुझे चीफ कंजर्वेटर के हस्ताक्षर से जारी हुए एक सर्कुलर की कापी मिली जिसे प्रदेश में वन विभाग के सभी कार्यालयों को जारी किया गया था. उसमें लिखा गया था कि मेरा दिया हुआ सुझाव बहुत अच्छा है और ऐसे सभी प्राचीन दस्तावेजों का संरक्षण किया जाए.
उन्हीं दिनों इम्पैक्ट एडवर्टाइजिंग के मैजेजिंग डायरेक्टर महेश बेलवाल जी के साथ ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ की ओर से प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार हिमांशु जोशी, फोटोग्राफर तूलिकी के साथ लोहुमी जी से मिलने आए. लोहुमी जी अपने गांव में थे. वे वहीं जाकर उनसे मिले. फिर पंतनगर लौटे. उनसे भेंट के आधार पर हिमांशु जोशी जी ने जीव विज्ञान के रामानुजम ‘चंद्रशेखर लोहुमी’ लेख लिखा जो ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के 25 जनवरी 1976 अंक में प्रकाशित हुआ.
(Chandra Shekhar Lohani)
उन्हीं दिनों सितारगंज की संपूर्णानंद खुली जेल की काफी जमीन पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय को लीज पर खेती के लिए मिली थी और विश्वविद्यालय ने वहां लाही की पहली फसल बोई हुई थी. लक्ष्य यह था कि नई वैज्ञानिक खेती से जेल के कैदी भी कुछ नया सीख लेंगे. हमने इस पूरे कार्यक्रम पर कमेंट्री सहित रंगीन पारदर्शियों का एक ‘स्लाइड शो’ तैयार किया हुआ था. कुलपति चाहते थे हिमांशु जी की टीम वह शो देखे. उन्होंने शो देखा और दूसरे दिन सुबह-सुबह हम लोग सितारगंज खुली जेल की ओर निकल गए.
वहां लाही की शानदार फसल लहलहा रही थी. हमने उसे देखा, खुली जेल में सजा पाए कैदियों को काम करते देखा, जेल वार्डन से मिले. और, उस कैदी से वह दुखद किस्सा भी सुना.
वह कैदी प्रतिभावान चित्रकार था. किस्सा यों था कि जिस नगर में वह रहता, काम करता था, वहां पास में ही एक बड़ा नामी होटल था. होटल मालिक एक बड़े शहर का था. वह वहीं पास के मोहल्ले की एक बहुत खूबसूरत लड़की को चाहने लगा. लोगों को पता लगा तो उन्होंने उसे आगाह कर दिया गया कि खबरदार जो लड़की की ओर आंख उठा कर भी देखा. नहीं देखा उसने, मगर गहरी चाल चली. उसने उस काबिल चित्रकार को बुलाया और उससे होटल के बाहर जलकुंड में स्नान करती एक सुंदरी की तस्वीर बनाने को कहा जिसे वह संगमरमर की बनवा लेगा. कलाकार खुश कि आखिर उसे उसकी कला का पारखी मिल गया! मेहनताना भी अच्छा था.
चित्रकार ने एक बेहद खूबसूरत जलपरी की तस्वीर बनाई, होटल मालिक को दिखाई. होटल मालिक के मुंह से निकला- वाह! बस, एक काम और कर दो. इस मोहल्ले में वह जो लड़की है ना, इसके वह चेहरा लगा दो. इस तस्वीर के चेहरे से भी ज्यादा खूबसूरत है वह. चित्रकार ऐसा कि जो चेहरा एक बार देख ले तो कभी न भूले. तो, उसने चेहरा बदल दिया. मोहल्ले की लड़की जलपरी बन गई. संगमरमर में ढल कर आई और होटल के जलकुंड में बैठा दी गई.
होटल मालिक रोज उसे देखता. मोहल्ले के लोगों की नजर पड़ी तो माथा ठनका. कानों-कान खबर फैली. मोहल्ले के लोगों ने केस दर्ज किया. चित्रकार गिरफ्तार होकर सलाखों के पीछे पहुंच गया. होटल मालिक बच गया. उसने चित्रकार से कहा, कोई फिक्र मत करना, छुड़ा लूंगा. यह कह कर शहर लौट गया. मुकदमा चला. शहर से होटल मालिक कार से रवाना हुआ. चित्रकार और वकील इंतजार करते रहे. होटल मालिक नहीं पहुंचा. रास्ते में कार के भयानक ऐक्सीडेंट में मारा गया. चित्रकार कहता रह गया कि उसे साजिश का पता नहीं था लेकिन गवाह और सबूत उसके खिलाफ थे और जो-जो धाराएं लगी थीं, उनमें उसे दस साल की बा-मशक्कत कैद हो गई.
“मुकद्दर खराब था साब कि होटल मालिक की बातों में आ गया. अपने काम से दो रोटी आराम से मिल रही थीं, लालच ले डूबा. ऊपर वाले की मेहरबानी से छह साल कट गए हैं, चार और कट जाएंगे,” उसने कहा.
“परिवार से भेंट होती है कभी?”
“बरेली जेल में था तो कभी-कभी मिलने आ जाते थे. यहां बहुत कम आ पाते हैं.”
कैदी का वह किस्सा सुन कर हम पंतनगर वापस लौट आए. सोचते रहे कि कभी-कभी जिंदगी कैसे रंग दिखा देती है.
(Chandra Shekhar Lohani)
(जारी है)
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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सभी 43 कड़िया पढ़ ली हैं। हर एक कड़ी एक नई गाथा व जीवन के नये- नये अनुभव ,अनुभूति व व्यथा की सशक्त अभिव्यक्ति है। ददा की असामयिक मृत्यु हाेना अन्तिम दर्शन न कर पाना, परिवार काे सभालना बाज्यू व भाभी मां के अन्तिम दर्शन से बंचित रह जाना अंदर ही अंदर घुटन पैदा करने वाली घटना रही है, जिसे अपने झेला है।
पदाेन्नति का प्रकरण भी दर्शाता है कि उच्च अधिकारियाें का हृदय इतना छाेटा क्याे हाे जाता है। जाे न्याय देने के लिए उच्च पद पर रखे जाते हैं वे इतने अन्यायी हाे जाते हैं कि अपने किए पर पछतावा ताे दूर अपने किए पर अभिमानी हाे जाते हैं। एक बर्ष आपने यह दंश झेला ,यह आपके धैर्य की भी परख थी। मैं भी यह दंश झेल चुका हूं। इसलिए मन की अन्तर्दशा काे भली भांति समझता हूं। 20 बर्ष लगे न्याय पाने में।
मुझे ताे आश्चर्य हाेता है कि आप हर बात काे कहां सजाे कर ऱखते हैं। वर्षाे पुरानी बात काे जैसे अभी घटित हुई हाे , प्रस्तुत कर देना अचंभित करता है।
कहो देबी कथा ऐसे ही कहते रहो, आज की कथा में लोहुमी जी रहे,इनके बारे में शायद मैंने वही साप्ताहिक हिंदुस्तान में पढ़ा होगा,आजकल मैं भी गहना में ही हूं यहां कुछ लोगों ने लैंटाना वाले लोहुमी जी के बारे में बतलाया था।
चंद्रशेखर लोहुमी जी को जानने, उनसे मिलने और उनके बारे में मुझे लिखने का मुझे भी मौका मिला। सही साल क्या था, याद नहीं। पर वही साल था जब उन्हें देश का सबसे सम्मानित और सर्वोच्च वैज्ञानिक पुरस्कार शांति स्वरूप भटनागर अवार्ड मिला था। पुरस्कार उनके कूरी यानी लांटाना कमेरा और लांटाना बग पर किए शोध के लिए था। देश के कई वैज्ञानिक नाराज थे कि एक "अनपढ़" मास्टर जी को यह सम्मान देना असली वैज्ञानिकों का अपमान है। मेरा लेख तब दिनमान में छपा था। किसी मित्र से उधर मांगे कैमरे से खींचा उनका फोटो आज भी मेरे पास है। उत्तराखंडी टोपी और सादे कुर्ते पायजामे में उनका सादगी भरा शानदार व्यक्तित्व आज 50 साल बाद भी मेरे मन पर अपनी छाप छोड़ हुए है। विजय क्रान्ति 9810245674