कहो देबी, कथा कहो – 22
(पिछली कड़ी: कहो देबी, कथा कहो – 21 वे दिन, वे लोग और उन दिनों का वह पंतनगर!)
वहां सब कुछ ठीक था लेकिन इतने लोगों के होने के बावज़ूद हवा में कभी गीतों के बोल नहीं गूंजते थे. विश्वविद्यालय के सिनेमा हाल जैसे गांधी भवन के मंच पर कभी-कभार विद्यार्थी सांस्कृतिक संध्या का आयोजन करते तो बस वे ही गीत सुनने को मिलते थे. वे भी उनको, जो वहां जाते थे. बाकी कैम्पस में निपट शांति ही छाई रहती थी. गांधी हाल में ही रविवार को दोपहर से पहले विद्यार्थियों के लिए और दोपहर के बाद शिक्षकों, कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए फिल्म दिखाई जाती थी. फिल्म के लिए तीन-तीन महीने के हिसाब से बहुत सस्ते टिकट मिल जाते थे.
इसलिए रविवारों को फिल्म देखते के लिए गांधी हाल की ओर जाते हुए परिवार दिखाई देते. ज्यादातर लोग तैयार होकर पैदल जा रहे होते तो कई लोग साइकिलों और रिक्शे पर. तब पंतनगर में साइकिल ही शान की सवारी थी. कुछ लोगों के पास स्कूटर थे जिसे लक्ज़री माना जाता था. हमारी कालोनी में डॉ. सचान के पास स्कूटर था. जब उन्होंने फ्रिज खरीदा तो हम पड़ोसी उसमें आइसक्रीम जमाते थे. उसमें साग-सब्जियां और फल रखने की जरूरत ही नहीं होती थी क्योंकि वे तो किचन गार्डन से ताजा मिल जातीं.
हां तो, गांधी हाल में फिल्म या सांस्कृतिक संध्या देखने के अलावा कैम्पस में सांस्कृतिक सन्नाटा था. इसलिए कुछ लोगों के मन में सांस्कृतिक कीड़ा कुलबुलाया और उन्होंने सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए उत्तरांचल संगम संस्था की नींव डाली. मन में थी रामलीला. इसलिए आम लोगों के लिए रामलीला से सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू करने का निश्चय किया गया. इसके लिए रामलीला कमेटी बनाई गई. उसमें विभिन्न क्षेत्रों के लोगों का सहयोग लिया गया. श्री एम.एल.सेठ, कैलाश चंद्र, मोक्षानंद शर्मा, मैं, तीर्थराज मिश्र, डी.सी. पंत, पी.के. जोशी, नरेश पंत, दानसिंह और कई उत्साही लोग आगे आए.
हम लोगों ने तय किया कि शुरु में तीन दिन की रामलीला की जाए ताकि दैनिक कामकाज पर भी कोई असर न पड़े. हम लोगों ने तब तक उत्तराखंड की राग-रागिनी पर आधारित रामलीला ही देखी थी और उसी का आनंद उठाते थे. वह गायकी में खेली जाती थी. यह सोच कर कि विश्वविद्यालय के सभी कर्मचारी पता नहीं राग-रागिनी वाली रामलीला का पूरा आनंद उठा पाएंगे या नहीं, हमने गायकी और संवाद मिला कर मिली-जुली शैली की रामलीला करने का निश्चय किया. रामचरित मानस के रसिक साथी तीर्थराज मिश्र गायकी में दोहे- चौपाई सुन कर चकित रह गए.
तो, बरेली से राधेश्याम लिखित संवादों वाली स्क्रिप्ट मंगाई गई. राग-रागिनी वाली स्क्रिप्ट हमारे पास थी ही. तीर्थराज जी और मुझे उन दोनों को मिला कर नई स्क्रिप्ट बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई. केवल तीन दिन में रामलीला पूरी करनी थी, इसलिए हमने रामकथा के खास-खास सीन चुने. सीन जोड़ने के लिए चौपाई-दोहों और कमेंट्री का सहारा लिया.
लेकिन, रामलीला शुरु कहां से की जाए? हमने बहुत सोचा और फिर एकमत होकर कहा- राम जन्म से. राम का जन्म क्यों हुआ? धर्म-कर्म की रक्षा के लिए, अत्याचार दूर करने के लिए. बस यहीं से हमारी रामलीला शुरु हो गई. शंख बजा- पूऊऊऊह! और, लाउडस्पीकर पर सुरीले कंठ वाली श्रीमती चंद्रा जोशी व तीर्थराज जी के स्वर गूंजेः
जब-जब होइहैं, धरम कै हाऽऽऽ नी ऽ
बाढ़ेंहि असुर महा अभिमाऽऽऽनीऽ
चौपाई पूरी होते ही मैं कमेंट्री पढ़ता, ”जब-जब धर्म की हानि होती है और अत्याचार बढ़ जाते हैं तो धरती पर मनुष्य के रूप में प्रभु का जन्म होता है. ऐसा ही समय था. ऋषियों-महर्षियों पर असुर अत्याचार कर रहे थे. समाज में नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा था. तब, अधोध्या नगरी में महाराज दशरथ के पुत्र के रूप में भगवान श्री राम ने जन्म लिया.“
‘वहैं…वहैं….वहैं…’
अचानक नवजात शिशु के रोने की आवाज गूंजने लगती और दर्शक ताली बजाने लगते.
नवजात शिशु की उस आवाज को रिकार्ड करने के लिए तीर्थराज जी ने कई दिन तक विश्वविद्यालय के अस्पताल के चक्कर लगाए और आखिरकार टेपरिकार्डर पर एक नए जन्मे शिशु की आवाज रिकार्ड कर ही लाए.
हर दिन, प्रारंभिक चौपाई और कमेंट्री के बाद रामलीला का उस दिन का दृश्य शुरु हो जाता. रामलीला शुरु करने से पहले कलाकारों का चयन किया जाता था. इसके लिए बाकायदा कमेटी बना दी जाती थी. इच्छुक कर्मचारी और उनके बच्चे कमेटी के सदस्यों के सामने अभिनय का टेस्ट देते. चुने हुए कलाकार दिन भर नौकरी और देर रात तक रिहर्सल करते थे. जुगल त्रिपाठी हारमोनियम संभालते और पी सी पांडे तबला मास्टर बनते. कोई आदमी खड़ताली संभाल लेता. एच.एल. साह और भाकुनी मेकअप का काम संभालते. चित्र, पोस्टर, सजावट आदि के काम में सलीम मदद करते.
रामलीला कमेटी बनने के बाद विश्वविद्यालय के कुलपति से रामलीला मैदान की सुविधा देने का अनुरोध किया गया. विश्वविद्यालय प्रशासन ने ‘झ’ कालोनी के बीच की खाली जगह को रामलीला मैदान बनाने की अनुमति दे दी. अब धन की समस्या सामने आ गई. इसलिए रसीदें छपा कर चंदा इकट्ठा किया गया- 11 रू., 21 रू., 51 रू.. पहले साल कुल दो-चार हजार रूपए जमा हुए. उसी से ईंटों का दो-चार फुट ऊंचा रामलीला मंच बनाया गया. दशहरा पास आते-आते तैयारियां पूरी हो गईं. टेंट और बिजली का ठेका देकर मंच पर रामलीला का स्टेज खड़ा किया गया. सामने महिलाओं और पुरूषों के अलग-अलग बैठने की व्यवस्था की गई. झा साहब और प्रकाश मठपाल की देखरेख में माइक, लाउडस्पीकर लगाए गए. सब कुछ तैयार हो जाने के बाद रामलीला शुरु हो गई…‘जब-जब होइहैं धरम के हाऽऽऽनीऽ…
उस बार कृष्णा शर्मा राम बना, सुरेश तिवारी लक्ष्मण, जोशी सीता, दशरथ नरेश पंत, रावण दान सिंह नयाल, जनक आर.सी. पंत, परशुराम पी.सी. पांडे, कुंभकर्ण डी.सी. पांडे, मेघनाद पान सिंह मेर, शूर्पणखा हेम सिंह नेगी, केवट सुरेश जोशी और सुषेण वैद्य रमदा यानी रामदत्त जोशी. डी.सी. बिष्ट मारीच बने. रामभक्त हनुमान बने हरीश तिवारी जो अपने अभिनय से आगे चल कर हनुमान तिवारी ही कहलाने लगे. दशरथ बने नरेश पंत राम विछोह का हृदय-द्रावक अभिनय करते तो दानसिंह अपनी बुलंद आवाज और हाव-भावों से मंच पर रावण को जीवित कर देते. आगे चल कर इनकी भी रावण के रूप में पहचान बनी. एक बार उम्मेद सिंह नेगी कुंभकर्ण बने. अपनी विशेष चाल-ढाल, घनी मूंछों और खींच कर ‘हेंऽऽऽ’ बोलने के कारण लोग कहते, “बिलकुल फिट्ट हैं कुंभकर्ण के रोल के लिए. खूब जमेंगे.”
तीन दिन में रामलीला पूरी करने के लिए धनुष यज्ञ पहले ही दिन रखा. धनुष यज्ञ देखने के लिए लोग भी काफी आते थे. कई प्रकार के राजाओं को देख कर लोग खुश होते. उनमें से एक थे राणा. यूको बैंक में गार्ड थे और नेपाली राजा बन कर आते. आते ही ‘रांई…रांई…रांई, टनकि मटण टांई’ गाते हुए समां बांध देते. लेकिन, जब कोई भी राजा धनुष नहीं उठा पाता तो राजा जनक दुःखी होकर कहतेः
वीर विहीन भई मही सारी
जो नहि चाप चढ़्यो त्रिपुरारी
यह सुन कर लक्ष्मण बने सुरेश को क्रोध आ जाता और वह-
कहीऽ जनक जस अनुचित बानी
भैया मोरे कुल को दाग लगाता है
कंदुक सम ब्रह्मांड उठाऊं
मेरे मन यह भाऽता है!
तब राम बना कृष्णा लक्ष्मण को प्यार से समझाता-
अहो भ्रात टुक धैर्य धरो तुम
ईश्वर क्या दिखलाता है
कहीं फूल उगते धरती में
कहीं पतझड़ कहलाता है!
लेकिन, धनुष भंग होते ही लोग खुश हो ही रहे होते कि परशुराम पी.सी. पांडे फरसा लहरा कर क्रोध से लक्ष्मण को ललकारतेः
रे शठ बालक काल वश, बोलत तोहि न संभार
धनुहि धनु त्रिपुरारि सम, जानत सकल संसार!
लक्ष्मण “हियां कुम्हड़ बतिया कोऊ नाही” कह कर परशुराम को भड़काता कि यहां तर्जनी दिखाने पर कुम्हला जाने वाला कोई कुम्हड़े का फूल खड़ा नहीं है!
दशरथ बने नरेश राम-लक्ष्मण के विछोह में ‘हा राम! हा लक्ष्मण!’ कह कर विलाप करते हुए सुमंत से पूछतेः
कहां गए मेरे प्राण पियारे
कहां गए मेरे राज दुलारे
आंखयां तरस रहीं जिनके दरस को
कहां गए मेरे प्रान पियारे…
कुटिल मंथरा बने रमदा पर शत्रुघ्न गाते हुए कुछ इस तरह अपना क्रोध निकालताः
अरीऽतू पापिन और चंडालिन
तुझे मैं मारूं तीऽऽऽर
जान से मारूं, बान से मारूं
तेरे करूं दो चीऽऽऽर!
और, मंच पर दान सिंह रावण डोलता हुआ आता और अहंकार में चूर होकर घोषणा करताः
मैं ही ब्रह्मा, मैं ही विष्णु
मैं ही शंकर कहाया हूं
मैं ही अपना रूप अनंत
तीनों लोकों में समाया हूं!
‘हा हा हा हा’ का भयानक अट्टाहास करते हुए वह कहताः
राम को खाऊं, लखन को खाऊं
सीता को कच्ची चबाऊं
क्या भालू, क्या वानर सबको
एक साथ निगल जाऊं!
अपनी तीन दिन की रामलीला में हमने रावण-अंगद संवाद भी रखा था. अंगद को देख कर रावण पूछताः
अंगद क्या तू ही अंगद है
क्या तू ही बालि का बेटा है?
तू ही घास की पावक है
क्या तू ही पिता का घातक है?
अंगद रावण को अपने मुंह से अपनी ही बड़ाई करने के लिए धिक्कारता.
वह तीन दिन की रामलीला पंतनगर के शांत वातावरण में सांस्कृतिक हलचल बन गई. कर्मचारी सपरिवार रामलीला देखने के लिए रामलीला मैदान में आने लगे. राम के राज्याभिषेक के साथ रामलीला का विधिवत समापन किया जाता.
उस अवसर पर पुरस्कार और सार्टिफिकेट भी दिए जाते थे. फिर, लोग गीतों और संवादों को याद करते हुए अगली रामलीला का इंतजार करते.
और हां, होली का जो रंग पंतनगर में जमा, उसने मेरी यादों के गलियारे सदा के लिए रंग दिए. पंतनगर विश्वविद्यालय में अपनी 13 वर्षों की नौकरी के दौरान मैंने तमाम साथियों के साथ जमकर होली खेली. असल में पहले तो पढ़ाई-लिखाई के चक्कर में न कभी होली गाई, ना गीत गाए. अब मौका मिला तो पूरे उत्साह से वह सब सीखा. पहली बार रामलीला मैदान में रातों को कैम्प फायर जला कर खुद होल्यार साथियों के साथ गोल घेरे में, कदम मिला कर रात-रात भर जमकर होली गाई. तब होली खेलने का एक अजब जुनून था. देर शाम मैदान में हम कुछ साथी मिलते और आग जला कर होली गाना शुरू कर देते. धीरे-धीरे बाकी लोग भी आ जाते. होली के शौकीन कुछ छात्र भी छात्रावासों से आकर हमारे घेरे में शामिल हो जाते. बीच-बीच में हम लोकगीत भी गा लेते थे. इस तरह रात में पंतनगर के शांत वातावरण में हमारे होली और लोकगीतों के बोल गूंजने लगे:
जल कैसे भरूं जमुना गहरी
जल कैसे भरूं जमुना गहरी.
ठाड़े भरूं राजा राम देखत हैं
बैठे भरूं भीगे चुनरी.. जल कैसे भरूं…..
धीरे चलूं घर सास बुरी है
धमकि चलूं छलके गगरी.. जल कैसे भरूं…..
और यह भी कि:
हां हां, हां जी सीता, वन में अकेली कैसे रही
कैसे रही दिन-रात सीता, वन में अकेली कैसे रही
हां हां, हां जी सीता, रंग महल को छोड़ चली
वन में कुटिया बनाय सीता, वन में अकेली कैसे रही.
विश्वविद्यालय कैम्पस में सैकड़ों परिचित साथी थे. भैया-भाभी के पवित्र रिश्ते में भाभियों की संख्या भी कम न थीं. छरेटी के दिन अबीर-गुलाल की थैली लेकर सुबह ही निकल जाते. साथी मिलते जाते और हम होल्यारों की संख्या बढ़ती जाती. घर-घर जाकर होली गाते, “मत मारो मोहन मोको पिचकारी, मत मारो मोहन मोको पिचकारी!”
लेकिन, हम तो पिचकारी मारते और अबीर-गुलाल लगाते. फिर मस्त होकर गाते:
उठता जोबन थमता नाहि
भर गईं नदियां सावन की.
तभी होलियारों की आवाज से ऊपर उठती रमदा की आवाज आती, “चल उड़ रे कागा पछिम दिशा…” और उनकी लाइन पकड़ कर आधे घेरे के हम होली को आगे बढ़ाते:
चल उड़ रे कागा पछिम दिशा
खबर मंगा मोरे बालम की.
उन दिनों, बल्कि दिनों क्या कहिए रातों को हम पर होली गाने का जैसे नशा सवार हो जाता था. खड़ी होली के वे सधे कदम थमते ही नहीं थे. न गला थकता था. रात-रात भर गाते रहते. जहां भाभियां होतीं, वहां गाना शुरू कर देतेः
रंग-चंगिलो देवर घर एैरौछ!
कै हुनि साड़ी, कै हुनि जंपर
कै हुनि अंगिया लै रौछ
रंग चंगिलो देवर घर एैरौछ!
भाभियां जानती थीं कि शरीफ प्रजाति के प्राणी हैं. इसलिए माथे पर अबीर-गुलाल का टीका लगा कर गुझिया और गुटके-रायता या पकौडे़ खिला देती थीं. एकाध ददा तो कह भी देते थे, “ले, आ गया तेरा देवर! तब से बैठी है, नहाया तक नहीं. रुकी हुई है कि तुम आओगे. लो अब खेलो होली.” यह सम्मानजनक रिश्ता विश्वास से ही बनता था.
कुछ छिपे रुस्तम शूरमाओं को भी सबक मिल जाता था. हमारी कालोनी में एक पड़ोसी शिक्षक-वैज्ञानिक थे जिन्हें केवल महिलाओं पर रंग डालने का गज़ब का शौक था. एक बार मेरी पत्नी को एक पड़ोसन की गुहार सुनाई दी, “बचाओ! बचाओ!” लेकिन, तब तक वे उन्हें भिगा चुके थे. बाद में जब पड़ोसिनें उनके घर पर उनकी श्रीमती जी से होली मिलने गईं तो वे पीछे के दरवाजे से चुपचाप दूध की बाल्टी में रंग घोल कर, दबे पांव आए और मेरी पत्नी पर रंग उड़ेलने लगे. पत्नी ने खतरा भांप लिया और पलट कर उनके दोनों हाथ पकड़ कर पूरी बाल्टी उन्हीं पर उड़ेल दी. सभी महिलाएं खिलखिला कर हंस पड़ीं तो वे पीछे के उसी दरवाजे से अपने घर में जाकर गायब हो गए. उसके बाद किसी होली में उन्होंने किसी महिला पर रंग नहीं डाला.
वहां होली का कुछ ऐसा रंग जमता था कि ठिठोली के भी प्रयोग किए जाते थे. एक बार मेरे घर पर आए होली के रंग में मस्त एक साथी को चाय के साथ पत्नी ने नारियल का सफेद लड्डू पेश किया. उसने हंसते-हंसते लड्डू उठा कर टप्प से मुंह में रखा ही था कि वह दांतों से चिपक गया! साथी की हंसी गायब हो गई. नारियल-चीनी लगा मैदे के गुधे आटे का लड्डू था वह! इसी तरह एक और साथी ने गुझिया में दांत गड़ाए तो भीतर रूई निकली! लेकिन, ठिठोली के उस एक अदद लड्डू और गुझिया के अलावा बाकी सभी कुछ असली था.
होली की यह हंसी-ठिठोली, होली गायन और होली मिलन हम सभी साथियों के रिश्तों को साल-दर-साल मजबूत करता रहा. जब तक पंतनगर विश्वविद्यालय में रहा, रंगीला होल्यार माना जाता रहा. फिर पंतनगर क्या छूटा कि रिश्तों के तार भी धीरे-धीरे पीछे, बहुत पीछे छूट गए. आज, यह सब कुछ लिखते हुए याद कर रहा हूं वे बीते हुए दिन.
“तो, ये कहो, आपके तो वे बड़े रंगीले दिन थे हो.”
“रंगीले क्या, बस उन दिनों ने पंतनगर की फ़िजां में पहली बार लोकगीत गुंजा दिए थे. आपस में प्रेम से मिलने-जुलने का भी अच्छा मौका मिल गया था. लेकिन, किस्से तो और भी हुए. सुनोगे?”
“किलै नैं, ओं”
(जारी है)
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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