किलै, मैं देबी
उस दिन कमरे में अकेला था. कमरे का दरवाजा भी बंद था. गहरे सोच में डूबा था कि सहसा लगा, कमरे में कोई है. कुछ समझता, इससे पहले ही अचानक खम्म से वह सामने आ खड़ा हुआ. मैंने चौंक कर उसकी ओर देखा. उसने धीरे-धीरे चेहरा मेरी ओर घुमाया तो देखता ही रह गया मैं. वह हू-ब-हू मेरी तरह था.
असमंजस में मैंने पूछा, “कौन?”
“किलै, अब मुझे भी नहीं पहचान रहे हो दा? दा तो कह ही सकता हूं ना, बचपन से साथ पले-बढ़े ठहरे. तुम पढ़-लिख गए, मैं वहीं रह गया, निखालिस गांव का देबी.”
“देबी? देबी तो मैं हूं.”
“देबी मैं हूं दा, तुम तो अब पढ़-लिख कर देवेंद्र हो गए हो, बल्कि अब तो मिस्टर मेवाड़ी भी हो रहे हो. लोग तुम्हें इन्हीं नामों से पहचान रहे हैं, है ना? देबी तो मैं हूं दा, जो तुम्हारे भीतर रह गया हूं और सदा भीतर ही रहूंगा, तुम्हारी संगत में.”
वह आकर चारपाई पर बैठ गया. मैंने कहा, “भीतर से आवाज तो तुम्हारी सुनते ही रहने वाला हुआ, लेकिन सामने आज देख रहा हूं.”
“कितना सुनने वाले हुए? कई बार मुझे ऐसा जैसा लगा दा कि जैसे शायद तुम्हें मेरी बात सुनाई नहीं दे रही है. इसलिए सोचा, आज मिल कर आमने-सामने बात कर लेता हूं.”
“अच्छा किया भया (भैया). बोलो क्या बात करनी है?”
“बस यही कि कहीं तुम अपने घर, गांव और पहाड़ को भूल तो नहीं गए. वे संगी-साथी याद आते हैं तुम्हें?”
“अरे, कैसी बात कर रहा है? क्यों भूल जाऊंगा? सब कुछ याद है मुझे- मेरा गांव कालाआगर, वे हमारे खेत, घर-आंगन, हमारे गोरू-बाछे, वे हरे-भरे जंगल, वे लाल बुरांश के फूल, वे चहचहाती चिड़ियां, वनों में बासते घुरड़, काकड़, वे लोकगीत, वे बाजे-गाजे, वह माल-भाबर को जाते भैंसों के बागुड़ के आगे चलती फूल भैंस के गले में बंधे मयल की आवाज घन-मन! घन-मन! वह सब कैसे भूल सकता हूं भया? ये कैसा सवाल पूछा तुमने?”
वह मुझे टकटकी बांध कर देखते हुए बोला, “सवाल तो ठीक ही पूछा, लेकिन कई बार शक जैसा होने लगता है. तब भीतर-भीतर मैं घबराने लगता हूं.”
“क्यों? शक क्यों?”
“क्यों, तुम्हें बदलते देख कर, और क्यों?”
“बदलते हुए देख कर? मैं कहां बदल रहा हूं?”
“क्यों रहन-सहन में, खान-पान में.”
“कैसे, कमीज-पेंट पहनते थे, अब तो जींस पहनने लगे हो, चमड़े का बूट, चैक की कमीज. दा, बुरा तो मानना मत, अब तो तुम कभी-कभी सिगरेट भी पी रहे हो. पाइप भी खरीद लाए हो. तंबाकू का पाउच और कागज लपेट कर सिगरेट बनाने का शौक भी पाल रहे हो. यह क्या करने लगे तुम?”
“देख भया, पहनावा तो मैं वही पहनता हूं जो मुझे अच्छा लगता है, कम धोना पड़ता है और ज्यादा चलता है. फिर मैं यह भी मान कर चलता हूं कि पहनावे से किसी के भी बारे में कोई राय मत बनाओ. उससे बात करो, उसके विचार जानो, तब उसके बारे में राय बनाओ. सीधा-सादा भेष बना लिया और भीतर मन में कलुष, तो यह तो कोई बात नहीं हुई ना?”
“वह तो ठीक है दा लेकिन तुम तो शराब भी पी ले रहे हो?”
“पी नहीं रहा हूं, चख रहा हूं. लेकिन, किन परिस्थितियों में कहां चखी, यह तो देख लो. अगर उस संगत में नहीं बैठूंगा, उनका साथ नहीं दूंगा तो फिर उनके बारे में जानूंगा कैसे? खरीद कर, घर में लाकर तो नहीं पी रहा हूं ना? मैं जानता हूं, तुम्हें तो मेरा डांस सीखना भी अच्छा नहीं लगा होगा?”
“हां, नहीं लगा.”
“तो मैं ही कौन बड़ा उछल-कूद रहा था डांस करने के लिए. वह तो साथी तैयार हुए तो मैं भी तैयार हो गया. हां, इतना मन में जरूर था कि एक नई चीज सीख लूंगा. अब खाली ग्यांजू बन कर तो यहां काम चलेगा नहीं, है ना? यहां की भाषा-बोली, रहन-सहन सीख कर ही देस की इस नई दुनिया में जी सकूंगा. सबसे कट कर तो अलग नहीं रह जाऊंगा ना? हां, मुझे अच्छे-बुरे का ध्यान जरूर रखना पड़ेगा. वह तुम भी भीतर से याद दिलाते रहोगे.”
“मैं तो याद दिलाऊंगा ही, तुम्हें मेरी बात सुननी भी तो पड़ेगी.”
“सुनूंगा भया. सिगरेट, शराब और डांस पर भी तुम्हारी मनमनाट मैंने सुन ली थी लेकिन विश्वास रखो, यह मैं बस इस दुनिया में पैर टिकाने के लिए कर रहा हूं. इन चीजों का आदी नहीं होना है मुझे.”
“नाराज मत होना, तुम तो वहां हैदराबाद की बदनाम गली में थोड़ा-सा मुज़रा भी देख आए?”
“कैसी गलतफहमी में फंस गए थे, यह तो तुम भी अच्छी तरह जानते हो. है ना? फिर क्यों उस बात को छेड़ रहे हो?”
“छेड़ नहीं रहा हूं, बस याद दिला रहा हूं दा. समझ लो आईना दिखा रहा हूं.”
“वह तो सदा दिखाते रहना ताकि कभी भी कदम गलत रास्ते पर न बढ़ें. वहां दूर पहाड़ों की गोद में बसे अपने गांव कालाआगर से इतनी दूर आकर गलत रास्ते पर तो भटकूंगा नहीं. मैं तो श्वैंन (स्वप्न) हूं भया, अपनी ईजा-बाज्यू, ददा-भाभी का, कि मैं भी कुछ बनूं. इसलिए, मैं सिर्फ नौकरी नहीं कर रहा, उसके उस पार भी देखता रहता हूं……ईजा तो यह स्वप्न लेकर ही इस धरती से चली गई कि उसका देबी खूब पढ़े. तुम्हें पता ही है, अंतिम समय में बाज्यू से वचन लिवा गई कि देबी जब तक पढ़ेगा उसे तुम लोग पढ़ाते रहना. इसलिए मुझे तो भया, जीवन भर पढ़ते-लिखते रहना है. है कि नहीं?”
“है, दा, तुम ठीक कह रहे हो. और बाज्यू? ईजा के न रहने के बाद भी वे कैसे अपने बैरागी दिन काट रहे हैं, यह क्या मैं नहीं जानता? बड़े ददा-भौजी तो जानवरों के बागुड़ और खेती-पाती में ही व्यस्त हुए. वैसे भी उनकी कितनी तो संतानें नहीं रहीं- वह दुःख और भारी उदेख उनको भी कहां चैन से बैठने देता होगा? और, बाज्यू, खाली मकान के भीतर बिल्कुल अकेले. भांय-भांय करता होगा वह. कोई एक गिलास पानी देने वाला भी नहीं होगा उन्हें. एक दीदी हुई तो उसे उन दूर पहाड़ों और घनघोर जंगलों के पार डांड़ा गांव में ब्याह दिया. बरसों बाद आ पाती है मिलने. मैं कभी नहीं समझ पाया कि दीदी को इतनी दूर क्यों ब्याह दिया होगा? यह सोच-सोच कर मेरा मन कलपता रहता है. कितना प्यार करती थी वह मुझसे! काली कन्याठी की पत्तियां मेरे उल्टी हथेली में दबा कर कैसी छाप उतार देती थी वह! तुझे तो पता ही है भया, तीन-चार साल बाद भी आती थी तो अपनी दगेली की जेब से निकाल कर उन पत्तियों के सूखे टुकड़े निकाल कर मुझे दिखाती थी कि इन्होंने मेरे भया की हथेली छुई हुई हैं.”
“कैसे भूल सकता हूं वह सब? वह सब कुछ मेरे मन में उमड़ता-घुमड़ता ही रहता है. अब ददा-भाभी को देखो, उनके लिए शुरू में तो पहला बच्चा मैं ही रहा ना? अब तो उनकी बेटियां भी हो गईं हैं. ईजा कहा करती थी-भाभी भी मां ही हुई पोथी, उसे मां ही मानना. उसका कहना मानना. गांव से जाने के बाद, मुझसे तीन साल बड़ी अपनी उसी भाभी मां के पास पला-बढ़ा मैं. ददा और भाभी मां मुझे पढ़-लिख कर कुछ बनते हुए देखना चाहते थे. यह जानता था मैं, इसलिए मेहनत करके वन सेवा की परीक्षा दी, पास हुआ लेकिन सब कुछ तो अपने हाथ में नहीं होता ना भया? उसके बाद नया रास्ता खोजना था, तो इस रास्ते को खोजा. अब यहां रिसर्च का काम कर रहा हूं, पूरी मेहनत और लगन से. हमारी तो पहचान ही यही होती है, क्यों ठीक कह रहा हूं?”
उसने हामी भरते हुए सिर हिलाया और बोला, “मैं इतनी देर से तुम्हें चुपचाप सुन रहा था दा. इसलिए कि देखूं कि तुम्हें मतलब देवेंद्र या मिस्टर मेवाड़ी को वह सब याद है या नहीं. अच्छा लगा सुन कर कि तुम्हें सब कुछ याद है. अपनी जागा-जमीन को भूले नहीं हो. यहां वहां का जैसा तो नहीं है, इसलिए दा, अपना भला-बुरा अच्छी तरह सोच-समझ कर ही आगे कदम बढ़ाओगे.”
“ठीक कह रहे हो तुम. यहां शहर की इस नई दुनिया में तो सब कुछ नया ही हुआ. इसलिए हर कदम फूंक-फूंक कर रखना हुआ, यह जानता हूं मैं. अब देखो, बचपन से हमने संस्कारों में क्या सीखा? कि, सबके साथ मिल-जुल कर रहो, झूठ मत बोलो, किसी को धोखा मत दो, ऐसा कुछ मत करो जिससे दूसरे का दिल दुखे, हर किसी की मदद करो, वगैरह. मैं देख रहा हूं, यहां शहर में तो हमारे आसपास कई लोग ठीक इसका उल्टा करते हैं. इसलिए उनसे बचना भी है.”
“कई बार तो भया, ऐसा लगता है कि यहां देस में हर घड़ी, हर पल सतर्क होकर बचते हुए ही चलना है. सामने वाला तुमसे जो कह रहा है, पता नहीं वह सही भी कह रहा है या नहीं. ऐसा लगता है जैसे यहां हर समय जिंदगी का कंपीटिशन ही चल रहा है जिसमें हर कोई एक दूसरे से आगे निकल जाने की जुगत में जुटा हुआ है. शांति नहीं है यहां.”
“हां दा, देख रहा हूं मैं भी, शांति तो नहीं ही है यहां. लेकिन, रोजी-रोटी ठैरी, करनी ही हुई नौकरी. लेकिन, कर भी क्या सकते हो? वहां पहाड़ में ही रोजगार मिल जाता तो यहां परदेस आते ही क्यों?”
“ठीक कह रहे हो. यहां इतने बड़े इंस्टिट्यूट में नौकरी मिल गई, वह तो करनी ही है. आगे की आगे देखी जाएगी. वैसे, एक बात सोचो, कोई भी तो नहीं हुआ यहां अपनी पहचान का. नई पहचान बनानी हुई. अपने जैसे सोच वाले साथी बनाने हुए. यहां वही हमारे हुए. इन दो-तीन बरसों में ही मैंने देख लिया है कि कई लोगों की तो ऊपर तक पहचान होती है, कई लोग जी-हुजूरी का रास्ता अपना कर अपना काम निकाल लेते हैं. नहीं, मैं किसी की बुराई नहीं कर रहा हूं, बस जो देखा है, वही बता रहा हूं. पता है, हमारी बगल की रिसर्च लैब में तो एक मूंछों वाले, मजबूत कद-काठी के तिवारी जी हैं. उन्हें किसी जरूरी काम से गांव जाना था बल. इंचार्ज नहीं मिले तो आकस्मिक अवकाश की अर्जी आफिस के ही एक आदमी को यह समझा कर दे गए कि इसे उन्हें दे देना. वह आदमी कामचोर और गैर जिम्मेदार था. अर्जी इधर-उधर रख दी. इंचार्ज तिवारी जी को तंग करने के बहाने ढूंढता रहता था. वे लौट कर आए तो इंचार्ज तिवारी के पीछे पड़ गया कि वे बिना सूचना के अनुपस्थित रहे हैं. लंच टाइम में तिवारी लैब में अकेले रहते थे. बाकी लोग बाहर जाकर लंच करते थे. तो क्या हुआ कि तिवारी जी ने उस आदमी को प्यार से कमरे में बुलाया जिसे अर्जी दे गए थे. कमरे का दरवाजा बंद किया और उस पर टूट पड़े. लहीम-शहीम तो थे ही, जम कर कूट दिया और बोले, “मेरा न कोई एम.एल.ए., न कोई मंत्री रिश्तेदार है. न यहां कोई बड़ा साइंटिस्ट मेरी पहचान का है. मैं ही हूं जो हूं. इसलिए मेरे साथ आगे धोखाधड़ी भूल कर भी मत करना. आज तो मैं सिर्फ सबक सिखा रहा हूं, अगली बार खतम भी कर सकता हूं. और हां, अभी की यह बात किसी को बतानी नहीं है अन्यथा तुम जानते हो, मैं क्या कर सकता हूं…….साथियों ने बताया, इसके बाद वह फितरती और कामचोर कर्मचारी सुधर गया. तिवारी जी, तिवारी जी करके आगे-पीछे घूमता था.”
तो भया, मैं तो किसी के साथ ऐसा भी नहीं कर सकता. मेरे पास तो एक ही हथियार हुआ, वह है मेरा काम और मेरी मेहनत. यह मैं तुमसे पहले भी कह चुका हूं. इसलिए यहां देस में खुद ही बहुत समझ-बूझ कर चलना हुआ. धीरे-धीरे यह सब कुछ समझ रहा हूं. कहां वह पहाड़ का सीधा-सादा रहना-सहना और कहां यहां का पग-पग पर शक-शुबहे में जीना. दूर पहाड़ में क्या पता भया, वहां तो वही लगने वाला हुआ ना कि अहा, शहर में तो ठाट ही ठाट हुए! मौज करते हैं शहर में नौकरी करने वाले. वो कहते हैं ना कि ‘थैलाकि चोट कुकुरै जानछ’ (थैले की चोट कुत्ता ही जानता है). किसी ने किसी के कुत्ते की पीठ पर थैला दे मारा बल और कुत्ते की कमर टूट गई. कुत्ते के मालिक ने शिकायत की तो वह बोला- मैंने थैला ही तो मारा? अब मालिक को क्या पता कि थैले में लमथर (पत्थर) रखा था. उस चोट की पीड़ा तो कुत्ता ही जानने वाला हुआ. है कि नहीं?
“किलै नैं, ठीक कह रहे हो आप.”
“तो, यहां थैले की जो भी चोट पड़े, वह खुद ही झेलनी हुई भया. झेलूंगा, नौकरी तो यहां शहर में करनी ही हुई. पहाड़ याद आने पर गला गगलसा उठता है, भर आता है. अब यहीं से अपने पहाड़ को याद करता रहूंगा और गुनगुनाता भी रहूंगाः
पड़ी गो बरफ भागी, पड़ी गो बरफ़
पंछी हुनों उड़ी औंनों, मैं तेरी तरफ
“कैकि तरफ? कोई है क्या?” कह कर वह मुस्कराया.
“क्यों तुझसे क्या छिपा है? कहां है कोई? मेरी तो ऐसी पहचान की कोई हुई नहीं. मैं तो पहाड़ के लिए ही कह रहा हूं कि अहा, बरफ गिर गई है हो बरफ! पंछी होता तो उड़ आता, मैं तेरी तरफ! अब पंछी तो हुआ नहीं मैं, तो मेरा मन पंछी ही उड़ा करेगा पहाड़ की तरफ.”
मैं अपने ख्याल में डूबा, अपने पहाड़ को याद करते हुए यह सब कह ही रहा था कि वह जैसे अचानक आया था, वैसे ही गायब भी हो गया. मैं कमरे में फिर अकेला रह गया.
“मतलब, पहाड़ के बारे में ही सोचते रह गए?”
“हां ईजू, ठीक कह रहे हैं आप. पहाड़ की नराई जो लग गई ठैरी. कमरे में बैठा सोचता रह गया- मेरा पहाड़, मेरा पहाड़. बताऊं उसके बारे में?”
“ओं”
( जारी है )
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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