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कहो देबी, कथा कहो – 13

एक वह दोस्त

उन्हीं दिनों एक दिन मेरा वह एक दोस्त आ गया. बोला, इलाहाबाद जा रहा था लेकिन देवेन तुम्हारी याद आई तो पहले दिल्ली चला आया. चलो यार खूब बातें करेंगे, साहित्य की, कला की. मैंने पूसा गेट पर अपने होटल बिष्ट भोजनालय में उसका नाम लिखा कर होटल मालिक देवी सिंह बिष्ट को बता दिया कि आज से मेरा यह दोस्त भी यहीं खाएगा. इसका हिसाब भी रजिस्टर में मेरे ही नाम चढ़ाना. दोस्त साथ रहने लगा. मैं और मेरा साथी कैलाश फोल्डिंग चारपाइयों पर और दोस्त अपनी मर्जी से फर्श पर दरी-गद्दे में. कुछ दिन चर्चा में बीते. पूसा गेट के पास एक दिन ग्रेफिक्स के वरिष्ठ चित्रकार जगमोहन चोपड़ा से उनके घर पर मिलने गए. रामकुमार और हुसेन की पेंटिंग प्रदर्शनियां देखीं. कुछ कलावीथियों में गए. रामकुमार से मिले. जब हमने उनके अमूर्त दृश्य-चित्रों के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, जैसे हमें धीरे चलती ट्रेन से बाहर के यथार्थ दृश्य दिखाई देते हैं लेकिन ट्रेन जब तेजी से चलती है तो बाहर के दृश्य अमूर्त रूप में दिखाई देने लगते हैं. दृश्य तो हैं लेकिन अमूर्त हो गए हैं. यही मेरे चित्रों के साथ है. इनके भीतर है जीवन.

दिन बीतते गए और धीरे-धीरे मित्र अजीब तल्ख टिप्पणियां करने लगा. उसके बाद उसने मौन धारण कर लिया. एक ही कमरा, साथ रहना, साथ खाना, साथ घूमना लेकिन कोई बातचीत नहीं. केवल जब सुबह लैब को निकलता तो आवाज आती, “सिगरेट के लिए पैसे रख जाना!” आठ आना-एक रूपए में सिगरेटों की डिब्बी आ जाती थी. मैं हर रोज पैसे रख जाता था. शाम ढले लौटता तो देखता कि डिबिया की सिगरेटें खत्म हो चुकीं. ऐश-ट्रे में राख ही राख. यानी, पहले सिगरेटें पी होंगीं, फिर उनकी ठुड्डियां. कई बार कमरे में घुसते ही धुएं का गुबार दिखाई देता जिसमें गांजे की गंध होती. गांजा? लेकिन, गांजा कहां से? मैंने पूछा,“यहां गांजा किसने पिया?” हवा में तल्ख उत्तर मिला, “सिगरेटें खत्म हो गई थीं. क्या करता, बाहर जाकर आसपास से जंगली भांगे के पौधों की सूखी पत्तियां तोड़ लाया. उनका चूर्ण बना कर कागज में लपेटा और पी गया. उसी का धुंवा है.” मैं हैरान भी और परेशान भी. लेकिन, दोस्त है, बेरोजगार है, सोच कर चुप रहता. शाम के अंधेरे में देबी होटल तक साए की तरह साथ चलता. वहां दोनों खाना खाते. और फिर, वह उसी तरह खामोश, साए की तरह साथ लौट आता.

डेढ़-दो माह बाद मित्र ने एक दिन मेरी ओर देख कर कहा, “अब मैं इलाहाबाद जाना चाहता हूं. टिकट तो ले ही दोगे?”

मैंने कहा, “हां, क्यों नहीं. कब जाना है?”

“कल” उसने कहा.

मैंने कहा, “ठीक है, कल चलूंगा स्टेशन तक.”

उस शाम खाना खाकर कमरे में लौटे तो उसने उस मित्र का जिक्र किया जिसके पास उसे जाना था. बोला, “मुझे लगता है, उसके पास रह कर मैं कई कविताएं लिख सकूंगा, चित्र बना सकूंगा.”

“यह सब तो तुम यहां भी कर सकते थे.” मैंने कहा.

वह बोला, “नहीं, यहां मैं अब अजीब-सी घुटन अनुभव कर रहा हूं. मुझे लग रहा है इलाहाबाद और वह दोस्त मुझे बुला रहे हैं. नहीं, अब मैं यहां नहीं रह सकता. कल जाना है मुझे.”

अगले दिन रविवार था. उसे लेकर मैं स्टेशन गया. उसके लिए इलाहाबाद का टिकट खरीदा. उसे प्लेटफार्म पर छोड़ कर मैं बस से वापस लौट आया. कमरे में साथी ने पूछा, “क्या वह सचमुच चला गया है?”

मैंने कहा, “हां, इलाहाबाद का टिकट खरीद कर दे आया हूं.”

दोपहर का खाना खाकर हम आराम से घूमते-घामते घर पहुंचे तो देखा मित्र क्वार्टर के नीचे चहलकदमी करते हुए मेरा इंतजार कर रहा है. कमरे में ताला लगा था, इसलिए भीतर नहीं जा सकता था.

देखते ही मित्र ने कहा, “बड़ी देर में आ रहे हो? मैं कब से खड़ा इंतजार कर रहा हूं. कहां चले गए थे?”

मैं क्या कहता? चकित था. इलाहाबाद का टिकट खरीद कर दे आया था, वह भी बेकार हो गया. मैंने पूछा, “क्यों ट्रेन छूट गई क्या?”

“नहीं देवेन, असल में तुम्हारे जाने के बाद मुझे लगा कि नहीं, अभी मुझे तुम्हारे पास ही रहना चाहिए. मैं देखता रहा और मेरे सामने ही ट्रेन चली गई.”

मित्र कुछ समय और साथ रहा. मैं तो दिन भर मक्का के खेतों में और कुमिंग प्रयोगशाला में व्यस्त रहता. शाम को ही उससे भेंट होती. कभी-कभी वह मुझे घूर कर देखता और कहता, तुम्हारा इंस्टिट्यूट, तुम्हारी नौकरी तुम्हें खा रही है और आश्चर्य है, तुम्हें इसका पता तक नहीं है? मैं क्या कहता, चुप रहता. कुछ दिनों बाद मेरे रिसर्च के करीबी साथी कहने लगे- बहुत हो गया. अब उससे जाने को कहो. और, तुम कहो तो हम उससे कह देते हैं. मैंने कहा, नहीं-नहीं वह खुद ही जा रहा है.

एक-डेढ़ महीने बाद उसने फिर इलाहाबाद जाने की बात की. मैं फिर एक रविवार को उसके साथ रेलवे स्टेशन गया. फिर से इलाहाबाद का टिकट खरीदा. ट्रेन के इंतजार में प्लेटफार्म में बेंच पर उसके साथ बैठा रहा. उसने मुझे समझाया, “देखो देवेन, तुम गलती से भी यह मत सोचना कि तुमने मेरे लिए कुछ किया है. मैं इतना समय तुम्हारे साथ कमरे में रहा, खाना खाया. इसका श्रेय तुम्हें नहीं, ईश्वर को है. जब उसने मुझे धरती पर भेजा, तभी उसने तय कर दिया था कि मुझे अपने जीवन में कब कहां रहना है, कहां खाना है. तुम्हारे पास आना भी उसी ने तय कर दिया था.”

“और हां, एक बात और,” उसने रहस्यमय मुस्कराहट के साथ कहा, “तुमने एक बात पर कभी ध्यान दिया, मैंने तुम्हें जानबूझ कर अपनी कोई भी पेंटिंग नहीं दी है, न छोटी, न बड़ी? जानते हो क्यों? इसलिए कि भविष्य में कभी तुम उसे बेच कर कहीं लखपति न हो जाओ.” उसने दो-एक अन्य मित्रों के नाम लेकर कहा कि उन्हें उसने अपनी पेंटिंग दी हैं. मैं क्या कहता? केवल हैरान होकर उसकी ओर देखता रहा. फिर वह वॉनगाग और पॉल गोगां की दोस्ती का एक किस्सा बयान करने लगा.

इलाहाबाद की ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गई थी. मैंने राह खर्च के लिए उसे कुछ पैसे दिए. ट्रेन चलने लगी. वह डिब्बे में चढ़ कर दरवाजे से हाथ हिलाता रहा और जल्दी ही ट्रेन आंखों से ओझल हो गई. मैं काफी देर तक रेलवे स्टेशन की बेंच पर बैठा उसी ओर देखता रहा जिस ओर ट्रेन गई थी और उस दोस्त के बारे में सोचता रहा. फिर चुपचाप चला आया.

दिल्ली लौट कर खरीफ मौसम की फसल उगने तक लैब में आंकड़ों पर काम किया करते थे. हमारी लैब में बहुत अच्छी इलैक्ट्रिक गणक मशीनें थीं. उन दिनों कम्प्यूटर केवल राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला में था जो पूसा कैम्पस में हिल साइड रोड पर ही थी. आंकड़ों की बड़ी गणनाओं के लिए कुछ वैज्ञानिक वहां जाया करते थे. मैं तो वहां केवल एक बार नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर चंद्रशेखर वेंकट रामन् का व्याख्यान सुनने गया था. पूसा इंस्टिट्यूट से हम अपने निदेशक और कृषि वैज्ञानिक डा. एम. एस. स्वामीनाथन के साथ वहां गए थे. उस दिन प्रोफेसर रामन् ने फूलों के रंगों पर व्याख्यान दिया था. उन्हें सुनना मेरे जीवन की एक यादगार घटना बन गई.

यादगार घटना तो हमारे इंस्ट्यिूट में आयोजित वह पहली एशियाई मक्का सम्मेलन भी बन गया जिसमें हमने पहली बार विदेशी वैज्ञानिकों को देखा और सुना. उस सम्मेलन में अधिकांश व्यंजन मक्का से ही तैयार किए गए थे तब मैंने पहली और अंतिम बार प्रॉन बिरयानी चखी थी. हालांकि मांसाहारी था लेकिन प्रॉन खाने को मन बिल्कुल राजी नहीं हुआ. तब पहली बार हमने ओबेराय होटल में, झाड़फानूसों की जगमगाती रोशनी में डिनर किया था. मैंने पहली बार वह चमचमाता बड़ा होटल देखा. एक तेज साथी ने हमें बताया कि नीचे इसकी कॉफी शॉप में चौबीस घंटे कॉफी और नाश्ता मिलता है, रात में भी!

एक वर्ष हमारी खाद्यान्न प्रयोगशाला में दो जापानी वैज्ञानिक आए. हारुओ मिकोशिबा मक्का अनुसंधान और मिनोरु ओउचि ज्वार अनुसंधान योजना में. मिकोशिबा ने बड़ी मेहनत से अंग्रेजी में एक शोध ग्रंथ तैयार किया- ‘भारत में मक्का’. उनसे मेरी भी अच्छी पहचान हो गई थी. मैं तैरने के लिए तालकटोरा गार्डन अपनी साइकिल में बैठ कर राजेंद्र नगर से होकर जाता था. मिकोशिबा राजेंद्र नगर के ‘आर’ ब्लॉक्स के संभ्रांत इलाके में रहते थे. घर पर भेंट होती तो कई बार पूछते, “ह्विस्की ऑर कोही?” उन्हें उनके दूतावास से स्कॉच ह्व्स्किी मिल जाती थी.

‘कोही’ शब्द पर मैं चौंकता कि आखिर यह क्या है? जानने के लिए एक दिन मैंने जवाब में कहा, “कोही”. थोड़ी देर बाद मिकोशिबा ‘कॉफी’ बना कर ले आए. मैंने कहा, “यह तो कॉफी है.”

वे बोले, “हां, कोही है.”

अब मैं चौंका. अच्छा तो ये कॉफी को ‘कोही’ बोलते हैं. लेकिन, कॉफी क्यों नहीं? मैंने कॉफी पीते हुए उनसे कहा, “बोलिए, कॉफी.”

वे बोले, “कोही”

मैंने कहा, “कोही नहीं, कॉफी”

उन्होंने कहा, “कोही”

मैंने कहा, “आपके देश का सुप्रसिद्ध और पवित्र पहाड़ है- फुजियामा. बोलिए, ‘फुजियामा.”

वे बोले, “फुजियामा”

मैंने कहा, “कॉफी”

वे बोले, “कोही”

मैं समझ गया, समस्या कठिन है. कोशिश करके धीरे-धीरे ही हल हो पाएगी. चलते-चलते कहा, “थैंक्स फॉर कोही!” एक बार उन्होंने कहा, “आप भी साथ में खाना खाएंगे. राइस विद् एग प्लांत.”  मैंने कहा, “ठीक है.” मैं एग प्लांत का मतलब नहीं समझा. उन्होंने खाना लगाया तो पता लगा, वह बैंगन की सब्जी है!  हम अंग्रेजी में उसे ‘ब्रिंजल’ ही समझते थे.

मिनोरू ओउचि अंग्रेजी में कम बोलते थे. अंग्रेजी शब्दों का अर्थ अपनी पाकेट डिक्शनरी में खोजते रहते. एक बार किसी बात पर मैंने कहा, “डोंट माइंड.” उन्होंने मन ही मन में अर्थ लगाया और हैरान होकर पूछा, “‘दोंत’ मींस ‘नो’, माइंड इज ब्रेन?…..यू मीन आइ हैव नो ब्रेन?”

किसी तरह मिकोशिबा से कह कर उन्हें समझाया कि मेरा मतलब यह नहीं बल्कि ‘कोई बात नहीं’ है.

नौकरी में शोधकार्य का सिलसिला तो चल निकला लेकिन व्यस्तता बहुत बढ़ गई.

दिल्ली में जब लैब में काम करते थे तो हैदराबाद और गुजरात के मक्का फार्म की बातें याद आती रहती थीं. अंबरपेट फार्म में लगभग सभी कामगार महिलाएं होती थीं जो सामने पहाड़ी पर झुग्गी-झोपड़ियों में रहती थीं. सुबह बच्चों को दूध पिला कर काम पर जातीं. लंच के अवकाश में भाग कर फिर बच्चों को देख आतीं. उन्हें दिन भर की बारह आने या एक रूपया मजदूरी मिलती थी. उनके आदमी ज्यादातर रिक्शा चलाते थे और तंबाकू का पूरा पत्ता लपेट कर बनाई गई काले रंग की चुरट पीते थे. उसका धुंआ बहुत तीखा होता था. मैंने एक बार पीने की कोशिश की तो चुरट का तीखा धुंआ तेज बरछी की तरह भीतर गया. मैंने उसे तुरंत फैंक दिया.

मक्का में पॉलीनेशन का काम मशीन की तरह तेजी से किया जाता था. आगे से मैं, मेरे पीछे स्टेपलर लेकर एक महिला मजदूर. मैं मशीन की तरह पौधे के शिरोभाग से पराग का लिफाफा फटफटा कर उतारता, बाएं हाथ से मादा फूलों पर से मक्खनी लिफाफा हटाता, उन रेशमी धागों पर पराग उड़ेल देता और लिफाफा कस कर उसी भुट्टे पर चढ़ा देता. मेरे पीछे आ रही मजदूरिन उसी तेजी से लिफाफे की दोनों कांख पकड़ कर उसे स्टेपल कर देती ताकि लिफाफा न हट सके और कहीं और से पराग न आ सके. भुट्टा उसी के भीतर पनपता. उसमें माता-पिता मक्का के पहली पीढ़ी के संतान-बीज बनते.

नीचे सिंचाई के पानी से बना भरपूर कीचड़, ऊपर तपता सूरज और भारी उमस में बदन से चुहचुहाता पसीना. एक दिन फुर्ती से पराग डालते, लिफाफा चढ़ाते, आगे बढ़ते लगा जैसे पीछे कुछ टकराया है. मुड़ कर देखा, लिफाफा स्टेपल करने वाली मजदूरनी गर्मी में गश खाकर गिर पड़ी है. दूसरी मजदूरिनों के साथ मिल कर उसे उठाया. छांव में ले जाकर मुंह पर पानी के छींटे मारे, पानी पिलाया. धीरे-धीरे मजदूरिन ठीक हो गई और हमने पॉलीनेशन का काम आगे बढ़ाया.

लेकिन, कई बार अजीब परिस्थिति बन जाती. एक दिन मक्का की कतारों में आगे बढ़ते-बढ़ते अचानक मुझे लगा मेरे हंटर जूतों के ऊपर, संकरी जींस के पांएचे में शायद सांप घुस आया है. मैंने घबरा कर चीखते हुए दोनों हाथों से जांघ को गोलाई में कस कर पकड़ लिया. धीरे-धीरे हाथ नीचे खिसकाए. मजदूरिनें भय और आश्चर्य से देखने लगीं. और, हाथ नीचे खिसकाते-खिसकाते पांएचे में से अचानक एक चूहा बाहर कूदा और भाग गया! वहां कहीं बिल रहा होगा उसका.

इसी तरह एक दिन मेरा एक हमउम्र शोध छात्र अपनी प्रयोगिक फसल में पॉलीनेशन कर रहा था कि आंखों में मक्का का पराग गिर गया. आंखें बुरी तरह दर्द करने लगीं और बंद हो गईं. पानी भी नहीं था कि आंखों में छींटे मार लेते. मजदूरिनों ने कहा, “साब, आप हटिए यहां से.” मैं हट गया. उन्होंने तुरंत इलाज किया और आंखों को आराम मिल गया. बाद में दबी जुबान में उस अचूक इलाज का पता लगा कि एक मजदूरिन ने उसकी आंखों में अपने दूध की तेज धार छोड़ी थी जिससे परागकण बह कर आंख से बाहर आ गए!

“बाबा हो, क्या-क्या जो देखा आपने.”

“अरे, यह तो कुछ नहीं, एक बार तो हमें फौज के एक अधिकारी मिल गए. कहने लगे, अच्छी-खासी नौकरी कर रहे हो. अब डांस सीखो. डांस ब्वाइज डांस!”

“तो क्या डांस भी सीखा आपने?”

“हां, सीखा. बताऊं?”

“ओं”

(जारी है)

पिछली कड़ी – कहो देबी, कथा कहो – 12

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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