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कहो देबी, कथा कहो – 10

पिछली कड़ी

सायोनारासायोनारा

सिकंदराबाद स्टेशन पर मैंने एलिस से पूछा, “काफी पिएं?”

वह बोली, “जरूर.”

मैंने काफी मंगाई. हम बस काफी पी ही रहे थे कि बगल के जनरल डिब्बे से हमारा अधेड़ फील्डमैन करन सिंह आकर बैठ गया. पूछने लगा, कोई परेशानी तो नहीं? मैंने कहा, नहीं. और, उसके लिए भी काफी मंगाई. वह धीरे-धीरे काफी सुड़क रहा था और मुझसे पूछने लगा कि ट्रेन का सफर कैसा रहा? ट्रेन किसी भी क्षण चल सकती थी. उन भावुक क्षणों में उसकी उपस्थिति मुझे खटकने लगी. मैंने कहा, “ट्रेन चलने वाली है करन सिंह, तुम चलो अपने डिब्बे में, अपना सामान देखो.” वह बेमन से उतरा. कुछ ही क्षणों बाद ट्रेन ने सीटी दी और चल पड़ी…छुक…छुक…छक…छक…छुक-छुक….एलिस बैंजो बजाने लगी…सायोनारा….सायोनारा !

गीत की धुन केबिन में तैर रही थी. माहौल भावुक हो गया. हम भागती ट्रेन की खिड़की से बाहर कहीं दूर देख रहे थे. सहसा मैंने कहा, “इस सफर में हम मिले. कौन जानता है कि फिर कभी मिलें न मिलें?”

हैदराबाद पास आ रहा था. दूर मकानों पर सुबह की धूप खिल रही थी. आखिर स्टेशन आ गया. छुक…छुक…छ…क…छ…क…छ…क कर ट्रेन रूकी.

मैंने कहा, “तो चलें एलिस.”

उसने कहा, “हां.”

मैंने अंग्रेजी फिल्मों में देखा था, जाते समय लोग एक-दूसरे से गाल छुआते थे. मैंने उससे कहा, “विदा होते समय आप लोग क्या करते हैं? ”

उसने कहा, “पता नहीं. आपको पता है तो चलिए वैसे विदा होते हैं. क्या करना है?”

मैंने संकोच के साथ उसके गाल से अपना गाल छुआया. वह भावुक हो गई थी. उसकी आंखें भर आईं. हम प्लेटफार्म पर उतरे. उसे अपने किसी रिश्तेदार के परिवार से मिलना था. फिर किसी दूसरी ट्रेन से अपने घर अनंतपुर को जाना था.

मैंने अपना हेवरसेक पीठ पर लादा और एलिस से कहा, “चलता हूं.” उसकी ओर विदा का हाथ हिलाया और बिना पीछे मुड़े आगे बढ़ता गया. मेरी भी आंखें नम थीं.

अगले दिन, दिन भर अंबरपेट फार्म में भूतों की तरह काम किया. लौटते समय करन सिंह ने कहा, “आप कहें तो आज पैदल चलते हैं गांवों से होकर.” शाम ढल रही थी, जब हम किसी गांव के कच्चे मकानों के अगल-बगल से निकल रहे थे. करन सिंह कह रहा था, “साब, यहां सुबह-सुबह ताड़ी बहुत अच्छी मिलती है. वह तंदुरूस्ती के लिए भी बढ़िया होती है.” मैंने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया. मैं तो एलिस के बारे में सोच रहा था कि ट्रेन में उसका सारा सामान खो गया. क्रिसमस में भाई-बहनों को क्या देगी ?

यही सोचते-सोचते ग्रीन होटल पहुंच गए. चाबी लेकर अपने कमरे के पास आया तो देखा, दरवाजे पर ताले में कागज का एक पर्चा फंसा है. खोल कर देखा. उसमें लिखा था, “देवेन, तुमने ग्रीन होटल का नाम लिखा था. सोचा, जाने से पहले तुमसे मिल लूं. हड़बड़ी में अपना नया स्वेटर रिक्शे में ही भूल गई. खैर कोई बात नहीं. लेकिन, यहां तुम भी नहीं आए थे. लौट गई. मैं आज ही बेगमपेट स्टेशन से अनंतपुर को जा रही हूं. समय मिले तो आना.”

मैं हतप्रभ! कहां है यह स्टेशन? बेयरा से पूछा तो शायद वह मेरी बात समझ नहीं पाया. बोला, “पता नहीं.” मैंने बिरयानी मंगाई और खाकर सो गया. बुरी तरह थका था, तुरंत नींद आ गई. अगले दिन फार्म में साथियों से पूछा कि यह बेगमपेट स्टेशन कहां है? पता लगा, होटल से रिक्शे की दूरी पर है! ओह, लेकिन अब क्या हो सकता था?

हैदराबाद जाने की बात सुन कर दिल्ली में एक बार साहित्यकार मित्र प्रयाग शुक्ल बोले, “वहां ‘कल्पना’ के ऑफिस में भी जरूर जाइए. बद्रीविशाल पित्ती जी, ओम प्रकाश निर्मल, मणि मधुकर आदि से मिलिए. वे बहुत अच्छे लोग हैं. प्रयाग जी ने बताया कि मकबूल फिदा हुसेन के सबसे अधिक चित्र पित्ती जी के ही संग्रह में हैं. उन्होंने हुसेन की बहुत मदद की है. हुसेन ने रामायण श्रंखला के अपने चित्र वहीं रह कर बनाए हैं.

हैदराबाद बाजार ( फोटो गूगल से साभार )

‘कल्पना’ तो पढ़ता ही था इसलिए एक दिन पता पूछते-पूछते शाम को ‘कल्पना’ के ऑफिस में पहुंचा. पित्ती जी से भी कुछ देर भेंट हुई. निर्मल जी और मणि मधुकर के पास काफी देर बैठा. ऑफिस से निकलने के बाद मैंने बीयर पीने की पेशकश की. मणि बोले, वे तो पीते नहीं हैं, निर्मल जी साथ देंगे. हम कुछ दूर तक साथ चले. कुछ अन्य युवा लेखक साथी मिल गए. उन्होंने उनसे मेरा परिचय कराया. एक कवि वेणुगोपाल थे और दूसरे तेलगू भाषा के लेखक थे. बाद में निर्मल जी और मैं होटल के मेरे कमरे में गए.

उसी दौरान 1968 में एक दिन वहां देश की एक प्रमुख प्रयोगशाला ‘नेशनल न्यूट्रिशन लैब’ के निदेशक डॉ. सी. गोपालन से मिला. उन्होंने बहुत स्नेह के साथ प्रयोगशाला के शोध कार्यों के बारे में बताया और वैज्ञानिकों से भी मिलाया. उनसे हुई भेंट पर आधारित मेरा लेख मनोहर श्याम जोशी जी ने ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में प्रमुखता से प्रकाशित किया.

अंबरपेट फार्म में मक्का में पालिनेशन करने के दिन, सबसे थकाऊ और गर्मी-उमस भरे दिन होते थे. वहीं फार्म में दिनमान भर काम में जुटे रहते. शाम ढले होटल लौटता और खाना खा कर सो जाता. फरवरी में फिर जाते थे, फसल की कटाई के समय और सारे प्रायोगिक भुट्टे बक्सों में पैक करके वापस ले आते थे.

बहरहाल, 1968 में शोध कार्य के लिए मैं आखिरी बार हैदराबाद गया. लौटते समय ट्रेन में टी टी ने मेरे हैवरसैक का वजन अधिक बता कर अच्छा-खासा फाइन ठोक दिया. मैं कहता रह गया कि हैवरसैक में केवल मेरे चंद कपड़े और किताबें हैं. अगल-बगल के सहयात्रियों ने इशारे से कहा- कुछ दे-दिवा के मामला खत्म कर लो. लेकिन, कुछ देने-दिवाने की कला से दूर रहने के कारण फाइन देना ठीक लगा. सहयात्रियों ने यह भी समझाया था कि बाहर उतर जावो. मैं नहीं उतरा.

लेकिन, गोधरा तक का सफर कुछ अलग ही तरह का होता था. प्रथम श्रेणी में सरकारी विभागों या प्राइवेट कंपनियों के अधिकारी मिलते थे. एक बार दिल्ली से ट्रेन  में बैठा. प्रथम श्रेणी की अपनी लोवर बर्थ पर लेटा ही था कि श्रीगंगानगर में एक सज्जन भीतर घुसे. लंबा काला ओवर कोट, सिर पर हैट, हाथों में दस्ताने. कोई उनका बक्सा रख कर, हाथ जोड़ कर चला गया. कूपे में हम दो ही थे. वे कुछ देर यों ही बैठे रहे. फिर मेरी ओर देख कर पूछा, “बंबई?”

मैंने कहा, “नहीं गोधरा.”

बोले, “अच्छी जगह है, पंचमहल जिले में.”

मैंने कहा, “जी.”

मैं सोने से पहले बाथरूम गया. लौटा तो देखा, वे आराम से बोतल खोल कर पी रहे हैं. मेरी ओर देखा, पर बोले कुछ नहीं. मैं भी चुप रहा. फिर उन्होंने टिफिन से निकाल कर खाना खाया. बोले फिर भी कुछ नहीं. सिंक में कुल्ला करके लौटे. और, हाथ पौछते हुए बोले, “मैं बहुत देर से तुम्हें देख रहा हूं नौजवान. तुम्हारी लंबाई बहुत अच्छी है, कद-काठी भी ठीक है, लेकिन तुम्हारे शरीर में वजन नहीं है. वजन थोड़ा बढ़ जाए तो बहुत अच्छी पर्सनेलिटी बन जाएगी. पेट ठीक नहीं रहता होगा?”

मैंने हामी भरी. मैं गौर से उनकी बात सुन रहा था हालांकि खुंदक भी खा रहा था कि न पीने को पूछा, न खाने को. इतना शिष्टाचार तो बनता ही है. वे बोलते जा रहे थे, “पहले मैं भी तुम्हारी तरह दुबला-पतला था, यंग मैन. पेट ठीक नहीं रहता था. हम भोपाल में थे. एक बार पेट इतना चला कि रूका ही नहीं. सुन रहे हो तुम?”

मैंने कहा, “जी हां, सुन रहा हूं.”

वे बोले, “हां तो मैं कह रहा था, एक बार पेट इतना खराब हो गया कि डाक्टरों ने जवाब दे दिया. हफ्ते भर बाद बोले, “कल का सूरज देख ले तो बड़ी बात है.”

मैं खुद पेट का मरीज. आश्चर्य से पूछा, “तो फिर क्या हुआ? आप कैसे बचे?”

उस सहयात्री ने कहा, “पिताजी भाग-दौड़ कर एक वैद्य को लाए. वैद्य ने नब्ज देखी. बोले, नींबू कल्प करना होगा. आज और अभी से. गुनगुने पानी में सिर्फ कागजी नींबू का रस लेना होगा. बाकी कुछ नहीं. उन्होंने नींबू का रस पिलाना शुरू किया. सुबह सूरज निकला. मैं बिस्तरे पर परास्त पड़ा उनके हाथ से नींबू का पानी पीता रहा. फिर अगले दिन सूरज निकला, फिर उसके अगले दिन. बस, ये समझ लो, तीस दिन अपने समय पर सूरज निकलता रहा और मेरे हड्डी रह गए शरीर में प्राण जागते गए. तीस दिन बाद मैं अपने पैरों पर खड़ा हो गया.”

मैं आंखें फाड़े उनकी बातें सुन रहा था और रात के अंधेरे में ट्रेन तेजी से चली जा रही थी…खट्-खटाक्-खट्…..खट्-खटाक्-खट्…..

वे मुस्करा कर बोले, “मिर्च मेरे लिए ज़हर थी. जला-भुना भोजन वर्जित था. लेकिन, धीरे-धीरे मेरे शरीर में जान आई. मैं धीरे-धीरे सब कुछ खाने लगा. अभी देखा तुमने? मैं रम के कुछ पेग लेकर मसालेदार मांस और मिर्चें खा रहा था. कोई दिक्कत नहीं है अब…..”

मन ही मन कुढ़ता हुआ मैं कह रहा था, द, क्यों कह मांगता है? खाते समय तो पूछा नहीं, अब बातें बना रहा है. लेकिन, सामने कहा, “तो यह चमत्कार हुआ कैसे?”

वे बोले, “बस वहीं नींबू और चारकोल.”

“चारकोल? क्या मतलब?”

“वहीं, लकड़ी का कोयला. उसे बारीक पीस कर छलनी में छान लिया. पेट को साफ रखता है कोयला.”

मैंने पूछा, “पेट तो मेरा भी खराब रहता है. मुझे क्या करना चाहिए?”

“बस, जब भी चाय पीओ, नींबू की ही चाय पीओ. और, हफ्ते में एकाध बार चारकोल पीस कर, छान कर दो-एक चम्मच खा लो, पानी के साथ. कुछ महीने करके देखो. देखना, कैसे तुम्हारे शरीर पर मांस चढ़ता है. बढ़िया पर्सनेलिटी बन जाएगी. अगली बार मिलेंगे तो मैं ही नहीं पहचान… खुर्र… खुर्र… वे ओवरकोट में ही लेट कर खर्राटे भरने लगे थे. ट्रेन चली जा रही थी खट् खटाक्.

गोधरा स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो मैं उतर गया. गोधरा के मक्का अनुसंधान केन्द्र के शोधकर्मी कानूभाई महीजीभाई पटेल स्टेशन पर मेरा इंतजार कर रहे थे. वे मुझे अपने साथ घर ले गए, हालांकि मेरे लिए डाक बंगले में कमरा बुक किया हुआ था. मुझे प्रभाकुंज सोसाइटी में उनके घर का नाम बहुत अच्छा लगा- ‘प्रेरणा’. रास्ते में और भी कई घर दिखे जिनके बहुत सुंदर नाम थे. एक बड़े से घर का नाम था- ‘अयश्री’.

मैंने पूछा, “कानूभाई, यह नाम समझ में नहीं आया.”

वे मुस्करा कर बोले, “मेरे ससुरजी का घर है.”

“लेकिन अयश्री?”

“उनकी तीन बेटियां हैं- अलकनंदा, यशोधरा और श्रीलेखा. श्रीलेखा मेरी पत्नी है. उन्हीं तीन बेटियों के नाम का पहला अक्षर लेकर घर का नाम अयश्री रख दिया है.”

हम उनके घर पहुंचे. वहां उन्होंने श्रीलेखा जी से परिचय कराया. वे दोनों बोले, “खाना आपने यहीं खाना है. यहीं रहेंगे भी तो हमें बहुत अच्छा लगेगा. डाक बंगले में तो कमरा बस आपके कहने पर बुक करा दिया है.” उन्होंने प्यार से खाना खिलाया जिसमें हर चीज में मिठास थी- दाल, सब्जी में भी. फिर श्रीखंड खिलाया.

मक्का अनुसंधान केन्द्र में वहां भी मजदूरिनें ही काम करती थीं और दिन भर की दिहाड़ी थी केवल आठ आना. उस आठ आने का काम पाने के लिए भी मारा-मारी मची रहती थी. बहुत गरीब थीं मजदूरिनें जबकि छोटे से गोधरा शहर में खुशहाली दिखाई देती थी. कानूभाई ने बताया, यहां लड़के-लड़कियां प्रेम विवाह खूब करते हैं. भाग कर बड़ोदा जाते हैं और विवाह कर लेते हैं. फिर शरमा कर बोले, “मैंने और श्रीलेखा ने भी प्रेम विवाह ही किया है.” मैंने उन्हें तो दिल से बधाई दी लेकिन मन में सोचता रहा- लोग प्रेम कैसे कर लेते हैं. कोई मुझसे प्रेम क्यों नहीं करती होगी?

कानूभाई के घर के बाहर अक्सर एक देसी कुत्ता बैठा रहता था. उसके हाव-भाव हमारी ओर के आम कुत्तों जैसे ही थे. लेकिन, जब मैं उससे कुछ कहता, उसे बुलाता तो लगता जैसे उसने मेरी बात सुनी ही नहीं. यानी, वह मेरी भाषा नहीं समझ रहा था. मैंने कानूभाई से कहा, “देखो, यह मेरी बात नहीं सुनता… आ-आ-आ!”

उसने कान तक नहीं हिलाए, न मेरी ओर देखा.

तब कानूभाई ने तेजी से कुछ इस तरह कहा, “तू-तू-तू-एह!” और, वह झट-पट सामने आ गया.

मैंने कहा, “बताओ कानूभाई, मैं इससे कैसे बात करूं?” कानूभाई और श्रीलेखा जी ने मुझे गुजराती भाषा के कुछ शब्द सिखाए. और, फिर वह मेरी बात समझने लगा.

बात तो मेरी, पन्ना भी नहीं समझती थी. वह पड़ोस में रहती थी. दिल्ली से आया हुआ मैं उसे अजूबा-सा लगता था और मुझे बोलते हुए देख कर तो उसकी हंसी रूकती ही नहीं थी. मैंने श्रीलेखा जी से पूछा, “गुजराती में ‘तुम क्यों हंसती हो’ को क्या कहते हैं?”

उन्होंने कहा, “तमे केम हंसो छो?”

फिर भी हंसती रहे तो?

“पीछे-पाछे हंसो छो?”

बस, मैंने ये शब्द रट लिए. जब पन्ना आई तो मुझे बातें करता हुआ देख कर उसकी हंसी फूट पड़ी. तब मैंने कहा, “तमे केम हंसो छो?”

मेरी गुजराती सुन कर उसने चौंक कर मेरी ओर देखा और उसकी हंसी का बांध फूट पड़ा. कुछ देर बाद हंसी रुकी. उसने फिर मेरी ओर देखा और, और भी जोर से हंसने लगी.

तब मैंने कहा, “पीछे-पाछे हंसो छो?”

सुनते ही हंसते-हंसते उसके पेट में बल पड़ गए.

तब श्रीलेखा जी ने उसे गुजराती में समझाया. कुछ शब्दों के समझ में आ जाने और हाव – भाव से मुझे लगा, वे उससे कह रही हैं – इतना क्यों हंस रही हो? ये मेहमान हैं. दिल्ली से आए हैं. सोचेंगे मेरी हंसी उड़ा रही है.

अचानक पन्ना की हंसी गायब हो गई. लेकिन, मैं तो चाहता था कि पन्ना उसी तरह खिलखिला कर निश्छल हंसी हंसती रहे, खिलखिलाती रहे.

उन्हीं दिनों की बात है, एक दिन अनुसंधान केन्द्र से लौटते समय मुझे पत्थर का एक बड़ा सफेद टुकड़ा मिला. उसे देख कर मुझे हिमालय याद आया. मैंने पत्थर रख लिया. कानूभाई ने पूछा, “इस पत्थर का क्या करेंगे? फैंकिए इसे.”

मैंने कहा, “नहीं कानूभाई, यह अब मेरे पास ही रहेगा. मुझे गोधरा और हिमालय दोनों की याद दिलाता रहेगा.” वह पत्थर मेरे हैवरसैक में बैठ कर मेरे साथ दिल्ली चला आया. एक बार वहां से आते समय वहीं के कारीगरों के हाथ से बनी लकड़ी की फोल्डिंग कुर्सियां भी ले आया था.

हैदराबाद हो या गोधरा, टूर में वहां जाने पर अपने हैवरसैक में कई किताबें रख लेता था जिन्हें समय मिलने पर होटल या डाक बंगले के कमरे में पढ़ता रहता. यानी, मेरा लेखक सदा मेरे अन्वेषक के साथ-साथ ही चलता था.

“दिल्ली आकर क्या करता था वह?”

“जब भी समय मिलता, साहित्य की दुनिया में चला जाता था. बताऊं उस दुनिया के बारे में?”

“ओं”

( जारी है )

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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