कोणबूड के बाद अगर किसी ने मेरी उम्र के बच्चों को सर्वाधिक आतंकित किया है तो वो हथछेड़ू ही था. बहुत बाद में पता चला कि उसका सरकारी पदनाम वैक्सिनेटर है. बाकायदा स्वास्थ्य विभाग में एक वैक्सिनेटर साब भी हुआ करते थे. वेक्सीनेटर्स की टीम गाँव-गाँव जाकर वेक्सीनेशन किया करती थी. स्कूल्स में उनका काम आसान हो जाता था. गाँवों में तो उनके पहुँचने की अफवाह से ही बच्चे ऐसी-ऐसी जगह छुप जाते थे जहाँ के लिए यही कहा जा सकता था कि ढूंढते रह जाओगे.
(Memoir About Vaccination Uttarakhand)
स्कूल में दो सुविधाएँ थी. पहली ये कि टारगेट पूरा करने के लिए धूप-बारिश में घर-घर पैदल नापने का झंझट खत्म हो जाता था. और दूसरा ये कि हेडमास्टर जी के स्कूल में होते, बिना इजाज़त कोई परिंदा भी पर नहीं फड़फड़ा सकता था. मे आइ गो आउट सर का जब तक अफरमेटिव उत्तर या भंगिमा न मिल जाए, मजाल क्या कि किसी की टाॅयलेट भी निकल जाए. मे आइ गो टु टाॅयलेट इसलिए नहीं कहा जाता था कि टाॅयलेट तब स्कूल्स में होते ही नहीं थे. आउट में सब कुछ निहित होता था. एक नम्बर, दो नम्बर या फिर हवाखोरी का ब्रेक.
ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त रखने में वैक्सिनेटर्स का उल्लेखनीय योगदान रहा है. इन्हीं के दम पर चेचक का नामोनिशान मिटाया जा सका. और इन्हीं की वजह से टीवी, खसरा, टिटनेस, डिप्थीरिया व पोलियो बच्चों के लिए जानलेवा नहीं रहे. वैक्सीनेटर का लोकानुवाद गढ़वाली में हथछेड़ू के रूप में हुआ. हाथ और छेड़ना (छेदना) दो शब्दों के सामासिक योग से हथछेड़ू शब्द बना है. बच्चों के लिए वैक्सिनेटर सबसे बड़े खलनायक हुआ करते थे. जो बच्चे गब्बर सिंह के नाम से भी नहीं डरते थे उनकी माँ कहा करती थी, बेटा सो जा, नहीं तो हथछेड़ू आ जाएगा. विडंबना ये भी कि नंगे पाँवों स्कूल जाने वाले जो बच्चे अनगिनत कांटों से बिंध कर भी कभी नहीं घबराये उन्हीं का हथछेड़ू का नाम सुन कर ही पसीना निकल जाता था.
कोणबूड और हथछेड़ू के आतंक की जो सीमारेखा स्कूल ही है. कोणबूड का खौफ स्कूल में प्रवेशपूर्व के कालखण्ड में होता था और हथछेड़ू का स्कूल में प्रवेशोपरांत. अभी बच्चा ठीक से शिक्षकों के खौफ को झेलने के लिए ही मानसिक रूप से तैयार हो रहा होता कि बड़े दर्जे़ वाले बच्चों द्वारा हथछेड़ू के किस्से, किस्सागोई के पूरे हुनर के साथ सुनाये जाते थे. इन किस्सों में हथछेड़ू का सुआ हाथ भर लम्बा होना तो सामान्य बात थी और मोटाई भी कलम से कम नहीं होती थी. इस आतंक के प्रभाव में बहुत से ऐसे बच्चे भी वैक्सिनेशन के लिए रणछोड़दास बन जाते थे जिन्होंने आगे चल कर सेना में भर्ती होकर, दुश्मन के दाँत खट्टे कर दिए थे.
(Memoir About Vaccination Uttarakhand)
आज़ादी मिलने के समय भारत दुनिया में चेचक रोगियों की संख्या में सबसे ऊपर था. हैजा और प्लेग महामारी भी कम घातक नहीं थी. क्षय रोग अलग से संक्रामक महामारी बनता जा रहा था. सरकार ने जनस्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हुए वैक्सिनेसन की सुस्पष्ट नीति बनायी. 1948 में ही मद्रास में बीसीजी वैक्सीन लैब शुरू कर दी गयी. चेचक उन्मूलन प्रोग्राम भारत में 1962 में ही शुरू हो गया था. गौरतलब ये कि वैश्विक स्तर पर इसके उन्मूलन की चर्चा महज तीन साल पहले ही शुरू हुई थी.
1969 में चेचक वैक्सिनेशन टेक्नीक बदली गयी. पूर्व प्रचलित रोटरी लैंसिट की जगह दोमुँही सुई का प्रयोग शुरू हुआ. दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन 1971 में आया जब लिक्विड वैक्सीन की जगह ठोस वैक्सीन विकसित की गयी जिसे सामान्य तापमान पर सुरक्षित रखना अधिक आसान था. चेचक उन्मूलन रणनीति के कुशल प्रबंधन से भारत 1977 में ही चेचकमुक्त हो गया था जबकि विश्व 1980 में चेचकमुक्त हो सका था. भारत में चेचक का अंतिम केस 1975 में मिला था.
(Memoir About Vaccination Uttarakhand)
तो इसी रोटरी लैंसिट वैक्सिनेशन का सर्वाधिक ख़ौफ होता था. इसमें इनर फोरआर्म पर एक नीडल को गोल-गोल घुमा कर वैक्सिनेशन किया जाता था. अगले ही दिन लाल निशान बन जाता था और हफ्ते भर में फफोला उभर आता था. फफोले के सूखने के बाद बड़ी बिन्दी के आकार का निशान बन जाता था. ये निशान त्वचा में कुछ गहरा दिखता था. इतना पक्का होता कि आजीवन बना रहता है. कुछ देशों के हवाई अड्डों पर तो विदेशी यात्रियों के पासपोर्ट-वीजा के साथ-साथ ये निशान भी देखा जाता था. दोमुँही सुई भी कम दर्दीली नहीं थी पर इसे अपर आर्म पर लगाया जाता था.
सर्वाधिक दर्दभरा वैक्सिनेशन चेचक का ही होता था. इसके बाद बीसीजी का नम्बर है. कारण, दोनों ही इंट्राडर्मल हैं. इनमें दवाई को त्वचा के सिर्फ़ तीन मिलीमीटर अंदर पहुँचाना पड़ता है. एक डाॅक्टर साहब के सान्निध्य में इंट्रामस्कुलर वैक्सिनेशन मैंने भी किया है. उन्होंने ही बताया था कि सबक्यूटेनियस और इंट्राडर्मल के लिए खास प्रशिक्षण की जरूरत होती है. तो किस्सा-ए-वैक्सिनेशन और हथछेड़ू इसलिए सुना रहा हूँ कि आप ये जान जाएं कि कोविड-19 की वैक्सीन कोई भी हो, वैक्सिनेशन इंट्रामस्कुलर होता है. वही जिसमें सुई तो सबसे गहरी चुभायी जाती है पर दर्द सबसे कम होता है. इस धरती को कोरोनामुक्त करने के लिए इतना दर्द तो सहना ही होगा. और मसल है कि जैन सारी वु कबि नि हारि. अर्थात् जिसने सहा वो कभी नहीं हारा.
(Memoir About Vaccination Uttarakhand)
–देवेश जोशी
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं.
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