भारतीय संसद की अठारहवीं लोकसभा के गठन हेतु समूचे देश में इन दिनों आम चुनाव प्रक्रिया गतिमान है. पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में लोकसभा का मतदान पहले चरण में ही राज्य की कुल जमा सभी पांचों सीटों के लिए संपन्न हो गया है. परन्तु मतदान का प्रतिशत बढ़ाने की तमाम सरकारी व प्रशासनिक कवायदों के बावजूद मतदान के गिरते हुए प्रतिशत ने साबित कर दिया है कि मतदाता घोर नैराश्य के वातावरण में जी रहा है, ऐसे में सवाल उठने लाजिमी हहोता जा रहे है कि लोकतंत्र किस दिशा की ओर जा रहा है. तंत्र के प्रति लोक की अरुचि क्यों बढ़ रही है. (Disappointment Voters Uttarakhand)
वर्तमान में राज्य के भीतर मौसम,समाज समुदाय, तीज त्यौहार और सहालग आदि की परिस्थितियां पूर्णतः सामान्य हैं ऐसा कोई कारण नहीं है कि मतदाता निकलकर चुनाव बूथ तक न जा पाए, पर राज्य में लोक सभा चुनावों हेतु गत दिवस संपन्न मतदान का प्रतिशत मात्र तिरपन पर जाकर ठहर गया. काबिले गौर है कि इस बार मतदाताओं को अधिक से अधिक संख्या में बूथों तक लाने के लिए खासी कवायदें न केवल चुनाव आयोग, सरकार और प्रशासन द्वारा बल्कि राजनैतिक दलों द्वारा भी की गई, बावजूद इस सबके मतदान के गिरते हुए प्रतिशत ने स्वाभाविक रूप से पेशानी पर बल ला दिए हैं.
आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में हुए मतदान के प्रतिशत में इस बार राज्य की सभी पांचों सीटों पर पांच से आठ प्रतिशत तक की गिरावट आई है, वो भी तब जब इस पूरे दौर में केंद्र और राज्य के भीतर एक ही दल की सरकारें हैं.
ग्राफिक्स बताते हैं कि 2019 के चुनावों में राज्य की टिहरी गढ़वाल लोक सभा सीट पर 57.78 प्रतिशत मतदान हुआ था, जो इस बार गिरकर 51.01प्रतिशत पर आ गया है. गढ़वाल लोक सभा सीट पर यह प्रतिशत 54.24 था जो इस बार 48.79 पर आ गया है. अल्मोड़ा संसदीय सीट पर 49.98 से गिरकर 44.43 प्रतिशत, नैनीताल उधमसिंहनगर सीट पर 65.96 प्रतिशत से 59.36प्रतिशत पर गिरावट, जबकि हरिद्वार संसदीय सीट पर आश्चर्यजनक रूप से लगभग आठ प्रतिशत की सर्वाधिक गिरावट दर्ज हुई है. 2019के आम चुनावों में इस सीट पर 67.66 प्रतिशत मतदान हुआ था जो इस बार 59.01 प्रतिशत ही रहा.
बताते चलें कि निर्वाचन आयोग द्वारा मतदाताओं को अधिकतम मतदान हेतु प्रेरित करने हेतु सरकारी स्तर पर सघन अभियान भी संचालित किए जाते रहे हैं. तमाम तरह के जागरूकता अभियान भी कोई सकारात्मक परिणाम दिखाने में नाकाम ही साबित हुए हैं, जबकि चुनाव लड़ रहे राजनैतिक दलों की भी कवायद रहती है कि मतदाता बूथ तक पहुंचे.
तो क्या कारण रहे होंगे कि मतदाताओं ने ऐसी निराशा ओढ़ ली है. जहां एक ओर सत्तारूढ़ केन्द्र सरकार द्वारा खुद की उपलब्धियों को विश्व स्तरीय प्रोजेक्ट किया जाता रहा है वहीं राज्य के भीतर अलग अलग क्षेत्रों में स्थानीय विकास के मुद्दों पर चुनाव बहिष्कार जैसे कदम साबित करते हैं कि विकास के मानदंड क्या हैं. विश्व स्तरीय या स्थानीय आवश्यकताओं और जन अपेक्षाओं के अनुरूप. तो क्या मतदान के गिरते हुए प्रतिशत के लिए रोजी रोटी की तलाश में बाहरी क्षेत्र को पलायन एक बड़ा कारण नजर नहीं आता?
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विश्व व्यापी कोरोना की विभीषिका ने पर्वतीय वासिंदों की कमर तोड़कर रखी है. कोरोना काल में सर्वाधिक मार प्राइवेट सेक्टर पर पड़ी है, राज्य का अधिकांश वासिंदा प्राइवेट सेक्टर पर बाहरी क्षेत्रों में निर्भर है कई नौकरियां कोरोना के बाद समाप्तप्राय हो चुकी थी, नए सिरे से परिवारों को पटरी पर लाना एक दुष्कर कार्य हो चला है, कुल मिला कर लोग अभी भी सांसत में जी रहे हैं.
राजनैतिक दल और उनके कार्यकर्ताओं के ठाठ-बाट भी मतदाताओं की समझ से परे साबित हो रहे हैं, ये भी एक कारण समझ आता है कि मतदाता का मोहभंग सा हो रहा है. चुनावों में पानी की तरह बहाए जा रहे वैध-अवैध संसाधन भी तो मतदाताओं की नजर में हैं. आंकड़ों की बाजीगरी में सरकारी स्तर पर महंगाई को जितना भी कम दिखा दिया जाए पर सच तो ये है कि बाजार महंगाई से हलकान है सरकार के बजट गणित से ज्यादा मशक्कत आम आदमी को दो वक्त के चूल्हे के लिए करनी पड़ रही है.
मतदान के गिरते हुए प्रतिशत के आलोक में कारण, समस्या और समाधान की फेरहिस्त बहुत लंबी है, देखना ये होगा कि इन सबको सरकारें, चुनाव आयोग कितनी संजीदगी से लेते हैं. वह भी तब जबकि भारत का लोकतंत्र पिछत्तर वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका है. आश्चर्य है कि इस अवधि में तीन पीढियां पार हो चुकी हैं फिर भी लोगों को मतदान का महत्व समझाना पड़ रहा है और इस तरह की कोशिशें भी नाकाम साबित हो रही हैं. (Disappointment Voters Uttarakhand)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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