जाड़ जनजाति (Jaad Tribe) मूलतः गढ़वाल मंडल के उत्तरकाशी की उत्तरी सीमा में है. भागीरथी की ऊपरी सहायक नदी जाड़गंगा (जाहनवी ) के नेलांग घाटी इनका मूल निवास हुआ करता था. हाल-फिलहाल ये उत्तरकाशी के डुंडा, बगौरी एवं हरसिल आदि स्थानों में निवास करते हैं. इनका मुख्य व्यवसाय भेड़-बकरियों का पालन है. ये प्रायः भेड़-बकरियों, ऊन व ऊन से बने वस्त्रों का कारोबार करने के साथ ही हिमालयी जड़ी-बूटियों का व्यवसाय भी करते हैं. इस समुदाय की अपनी विशिष्ट परम्पराएँ हैं. इनमें एक अनोखी विवाह परंपरा (Marriage tradition) भी शामिल है.
तिब्बतियों से व्यापारिक सम्बन्ध होने के कारण इनकी सामाजिक एवं संस्कृतिक परम्पराओं पर उनका स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है. तिब्बत के खाम्पओं की तरह ये लोग भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं. इनकी जन्म, मृत्यु एवं अन्य संस्कार व क्रियाकर्म भी तिब्बतियों की तरह ही हुआ करते हैं. मृत्यु होने पर बस्ती के सभी जाड़ परिवारों से तेल इकट्ठा करके मृतक के शव के चारों ओर 120 दीपक जलाए जाते हैं. तिब्बतियों की तरह ही दाहक्रिया ज्योतिष के अनुसार दिन का निर्णय होने पर ही की जाती है. लामाओं द्वारा धार्मिक पाठ भी किया जाता है.
विवाह की इनकी अपनी विशिष्ट परंपरा ‘ओडाला’ कहलाती है. उडाल प्रथा के अनुसार जीवन साथी चुनने वाला युवक, युवती की सहमति से, रात में उसे उसके घर से भागकर अपने घर ले आता है.
अगले दिन युवती का पिता अपने साथ कुछ आदमियों के लेकर उस युवक के घर आता है और इस अपराध के लिए युवक की पिटाई करता है. युवक के घर वालों और परिवार के कुछ सयानों द्वारा युवक की इस बात के लिए माफ़ी मांगी जाती है. वे युवती के पिता से इस वैवाहिक सम्बन्ध को स्वीकार करने का भी अनुरोध करते हैं.
जब युवती के पिता का क्रोध शांत हो जाता है तो वह उन दोनों को अपने घर ले जाता है. युवती के पिता के घर में युवक एवं युवती को अगल-बगल बैठाया जाता है. अब युवक के माथे पर दाहिनी ओर तथा युवती के माथे पर बायीं तरफ टीका लगाया जाता है. युवती के पिता द्वारा घी का टीका लगा देने के बाद इस विवाह को औपचारिक तौर पर पूरा हुआ मान लिया जाता है.
इसके बाद इस अनुष्ठान में मौजूद सभी लोगों को छंग (स्थानीय मदिरा) पिलाकर विवाह की ख़ुशी प्रकट की जाती है.
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस समुदाय में विवाह से पहले युवकों-युवतियों के पारस्परिक मिलन और यौन सम्बन्धों को गलत नहीं माना जाता. इसी मेलजोल की प्रवृत्ति प्रायः एक साथ भाग जाने में होती है. बिना दूल्हे वाली बारात की भी परम्परा थी हमारे पहाड़ों में
जाड़ समुदाय की तरह ही यह जीवन पद्धति गढ़वाल के जौनसार क्षेत्र में भी प्रचलित है. वहां पर भी इसे ओडाला ही कहा जाता है. यह देखा गया है कि मेलो-ठेलों के मौकों पर लड़कों द्वारा लड़कियों को भागकर ले जाने की प्रवृत्ति ज्यादा देखी गयी है.
इस तरह से विवाह की परंपरा अब एक लुप्त होती हुई परंपरा है.
(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष: प्रो. डी.डी. शर्मा के आधार पर)
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प्राचीन समय से ही यह आधुनिक विवाह पद्धति जिसमें लड़की लड़के की सहमति ही महत्वपूर्ण हैं अपनाना स्वस्थ व उन्नत समाज का प्रमाण है