खम्पादरज्यू में सब साथी पूजा कर रहे हैं. वहां छोटी बड़ी घंटियां रखी हैं. कई पाषाण के ऊपर, पत्थरों के ढेर के ऊपर तो कई बर्फ से बाहर झाँकती. भगवती बाबू ने कई दीप जला दिये हैं. बड़े मनोयोग से वह वहां रखे दिये को हन्तरे से साफ कर रहे हैं. ऐसे काम तो मुझे भी बड़े भले लगते हैं सो मैं भी वहीं कोने में रखे पुराने वस्त्र से दीपक साफ करने में लग गया हूं. दिये भी कितनी तरह के हैं, सो अब मैं उन्हें छांट रहा हूं. मेरे हाथ एक अखंड दीप वाला बड़ा दिया हाथ लग गया है. उस पर नक्काशी भी अद्भुत है और कुछ लिखा भी है. दीप को दिखाता हूं तो वह कहता है शायद तिब्बती लिपि है. दीप भी गजब है. गुनगुना रहा है –
‘वो भूली दास्तां… ये कुछ बिछड़ी हुई यादें, ये कुछ टूटे हुए सपने…’
उसने वहां रखी आड़ी-तिरछी पड़ी घंटियों को तरतीब से रखना शुरू किया है. वह एक एक घंटी को उठाता है, उसे पोछ-पाछ टुनटुनाता है और फिर अगली घंटी का नंबर आता है. ये लो अब सोबन और उम्मेद भी अलग-अलग सुर लहरियां बिखराने लगे हैं. रेंजर साब भी उल्लास में आ गए हैं, “ढूंढो, इधर-उधर चाओ, मजीरा, खड़ताल भी होगी यहाँ, ये जोगियों वाले चिमटा तो दिख रहा मुझे. ला रे उमेद. इधर लपका इसे.
कुछ ही देर में चिमटा बज उठा. साथ में पिचका हुआ कँटर भी सोबन के ढोलक पर सधे हाथ से टुनटुना गया.
जब यार देखा नैन भर, दिल की गई चिंता उतर,
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाय कर
जब आंखन से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा
जिया…
तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है,
तुझ दोस्ती बिसियार है, एक शब मिलो तुम
आय कर…
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल
लाय कर…
रेंजर साब खुसरो में डूब चुके थे. सब मदमस्त –
सखी पिया को जो न मैं देखूँ
तो कैसे काटूं अँधेरी रतियाँ.
डमर दा ने फू-फा कर धूनी जगा दी थी उसमें पहले से पड़ी लक्कड़ जड़ी से महकती सुवास ने जैसे देबता के आने का संकेत दे दिया. अपनी पुटली खोल डमर दा ने धूप जड़ी निकाल भगवती बाबू को दी जिन्होंने अपने बत्ती के डब्बे में ऊँगली डाल हाथ में लगा घ्यू उनमें चुपड़ दिया.
घंटी टुनटुनाता दीप धूनी के पास हनुमान मुद्रा में बैठा है. हाथ जुड़े हैं. नयन अर्ध निमीलित. कुंड में जलती एकदम आग पकड़ रही लकड़ियों की रौशनी उसके चेहरे में झिलमिला रही है. हाथ में लगी दिये की कालिख पोछ मैंने बैग से कैमरा निकाल लिया है. दीप की मुख मुद्रा तो खींचने लायक है. हमेशा स्मृतियों में बसी रहे- इसका दस्तावेज. साफ महसूस हो रहा कि वह भीतर से कहीं गहरे जुड़ते जा रहा है. उसके साथ कई शिव मंदिर जाता रहा मैं. जब बागेश्वर गए थे तो कठायत बाड़ा महाविद्यालय स्टाफ क्वार्टर के पास बह रही सरयू में सुबह तड़के स्नान कर सडक के किनारे चलते बागनाथ मंदिर पहुँच गए.
खूब बड़ा कक्ष जिसमें बागनाथ जी का लिंग विराजमान है नगाधिराज के फन के नीचे. ऊपर बड़े ताम्र पात्र से टप-टप जल की बूंदे टपक रही हैं. दीप ने सबसे पहले संगम से बाल्टी भर जल ला ताम्र पात्र मे डाला. बचे हुए पानी से चन्दन घिसने की चंथरेणी धोई. अब बड़ी सी पूरे बलिस्त भर की चंदन की लकड़ी को पत्थर की चंथरेणी में घिसने लगा. पास ही किनारे से उभरी हुई थाली के किनारे घिसा हुआ चन्दन इकट्ठा होते रहा. अब काफी चन्दन जमा हो गया था.हाथ की तीन उँगलियों से चन्दन की लकीरें शिव लिंग पर लगीं फिर ठीक बीच में गोल बड़ा टीका लगा,बेलपत्र चढ़ा, अब वहीं सुखासन में बैठ शिव जू से बात करनी शुरू कर दी. उनके हाल चाल पूछे.उनसे कुछ पूछ भी रहा और फिर उसकी मुंडी ऐसे हिलती जैसे उसे जवाब मिल रहे हों., बड़ी देर तक गुण-मुण होती रही तब जा कर हुआ साष्टांग प्रणाम.
यहाँ थाली में भगवती बाबू ने पीला पाउडर वाला चन्दन चूरा पानी में छोल कर रखा है जिसे दीप बड़े सुर में पाषाण खंडों में लगा रहा है और अक्षत भी च्याँप रहा है.उसके होंठ भी कुछ बुदबुदाते दिख रहे हैं. लगता है खँपादर ज्यू से उसके तार जुड़ गए हैं और संप्रेषण की प्रक्रिया शुरू हो गई है. रेंजर साब मुझे दीप को इस तरह देखने से मनोदशा भांप गए हैं.
“तू तू ना रहे, मैं मैं ना रहूं, एक दूजे में खो जाएँ.”
क्यों वही स्थिति है ना?
हाँ
“यही है आत्म साक्षात्कार, सेल्फ रियलाइजेशन. आसपास प्रकृति ने जो भी दिया है, रचा है उसमें ऊर्जा छटपटा रही. हमारे मन की तरंग को बांध रही.यह ऊर्जा ही आकर्षण है, उसे थाम लिया तो फिर कैसा दुख कहाँ तनाव. फिर तो बस अवसर हैं उसकी सत्ता में रमने के”.
वो देखो भगवत पंडित को. इतना बड़ा कुनबा, ताऊ, कक्का सब की औलाद इसने पढ़ा लिखा कमाने खाने लायक बना दीं. अपने भी खुद के छह बच्चे हुए पर ऊपर वाला ऐसा साध रखा कि बरकत की बारिश हो रही. आपने देखा खुद खाये न खाये हर मंदिर, हर थान में दिया जलाने को तेल, घी की बत्ती, वस्त्र धूप की कमी नहीं होने देता ये भगवती.”
हाँ sss.
खम्पादरज्यू से छिपला के विराट रूप के दर्शन होते हैं. पूरा आकाश आपने पूरे फैलाव के साथ दिखाई देता है. अभी की बात कहूं तो यह नीले आसमानी रंग के साथ किनारे से हिम चोटियों को ढके चमकीला दिख रहा. आसमान से चिपकी हिम रेखाओं पर लाली भी है और पीलापन भी जो देखते ही देखते गुलाबी उजाले से भरने लगी है. यह दृश्य पहले कभी नहीं देखा. बचपन की याद से भरा पहाड़ और चीना रेंज का वह आकाश. रांची के फारेस्ट क्वार्टर से दिखती लड़िया कांटा की वह एक चोटी जिसे देख मेरा मन मचल-मचल जाता था, पहाड़ चढ़ने की मन उसी ने बनाई थी. वो आसमान इतना फैला न था. बाद में रेमजे रोड से ऊपर चढ़ देवी लॉज की ऑब्जरवेटरी से आसमान देखा था और रात को टेलीस्कोप से चाँद तारे भी. वहां महेश दा ले जाते थे, वह यहीं एस्ट्रोनोमर थे. बाद में ऑब्जरवेटरी मनोरा पीक चली गई जहां से आसमान बड़ा खुला था. जब मैं एमए कर रहा था तो संयोगवश मैं भी यहाँ नाईट ड्यूटी में टेकनीकल ग्रेड टू पर काम करता रहा था. रात को विचारते सेटेलाइट की फोटोग्राफी और उस नेगेटिव को प्रोसेस कर अमेरिकन एम्बेसी भेजना जहाँ से यह नासा को रवाना होती थी. आकाश के कई चित्ताकर्षक रूप देखने का अवसर मिला था पर जो चुम्बक इस छिपला के आकाश में महसूस हुआ वह तो अद्भुत ही है.
दूर पंचचूली की चोटी पर अब छोटे-छोटे गोल बादलों की पट्टी सी उभरती दिखाई देने लगी थी. भगवती बाबू प्रसाद में बेसन का लड्डू बाँटने लगे थे जिसे हाथ में लेते रेंजर साब बोले, “कहाँ किस ठौर में लुका रखे थे? हवा भी लगने नहीं देता ये पंडित.” कुण्डल दा जूते के फीते बांधता बोला, हिटो हो! अबेर ना करनी अब.”
दल बहादुर ने मेरा रुक्सेक अपने काने में डाला और नीचे पसरी घाटी की ओर इशारा कर बोला, “वो जो बाट है न दूर, वो दारमा घाटी की ओर जाता है. उस ओर चलते दांतू और दुगतू पहुंचा जाता है. ये बाट हमारे लिए बड़ा सही होता पर इसकी सही फाम आगे चले अणवाल बताएंगे. वो अपने भेड़-बकर ले उधर ही किसी दर्रे से उतरेंगे. अभी तो हम देखो उस धार से उतरेंगे जिसका नाम ” तिलधिन धार” है.
तिलधिन धार आराम से खरामा-खरामा उतरता पथ है. कुछ मौसम में ठंड कम होने और कुछ सब ओर फैली हरियाली ने चलना आसान कर दिया था. दो मील नीचे उतर आये तो दूर पहाड़ी पर एक मोड़दार रास्ता दिखाई दिया. दल बहादुर ने बताया कि वह तवाघाट-पांगू को जाने वाला रास्ता है. यहाँ जो हम बरमकुण्ड से उतर आये हैं तो अब बुग्याल भी नीचे की ओर सिमटते दिखेंगे. सितम्बर तक तो यहाँ फूलों की बहार दिखती है फिर सब ठंड बढ़ने से निमड़ी जाता है. ये जगह जगह जो ठूँठ दिखाई दे रहे हैं वह उच्च हिमालय में खिलने वाले उन अनगिनत पुष्पों के ही हैं.
हम जैसे जैसे नीचे को उतर रहे हैं रास्ता समतल होता जा रहा है. अब अगल- बगल छोटे-छोटे शंकुल आकार के बोट हैं. जैसे जैसे नीचे जा रहे हैं जंगल घना होते जा रहा है.
दल बहादुर बता रहा है कि इस जगह का नाम “गणभूस धूरा” है. इसके नीचे फिर उतार है और पेड़ों के घने होने के साथ मुलायम सी घास भी बढ़ती दिख रही है. इसी काफी बड़े इलाके में नीचे तलहटी पर रहने वाले मवासे अपने ढोर ढंकर यहाँ ला चराते हैं. नीचे आते आते जिस जगह से हम गुजर रहे हैं उसका नाम “मंग्यथिल ग्वार” है. ये रास्ता जिस से हो कर पशु भी आते हैं बहुत ऊबड़ खाबड़ और कीचड़-कच्यार से भरा हुआ है. रास्ते के अगल बगल कँटीली झाड़ियां भी हैं.अब शाम होने वाली है और लगातार चलते हमें दो घंटे से ज्यादा हो गए हैं. रेंजर साब कुछ ज्यादा चौकन्ने हो सबसे आगे बढ़े जा रहे हैं. उनके पीछे उनके अभिन्न भगवती बाबू हैं. हमसे करीब आधा मील की दूरी पर अब रेंजर साब और भगवती बाबू रुक गए है और हमें देख हाथ हिला कुछ इशारा कर रहे हैं.
दलबहादुर उनका इशारा समझ गया है और हमें बता रहा है कि रात रुकने की ठौर मिल गई उन्हें, अब टेंट लगाने की झंझट नहीं होगी. चलते-चलते अब विश्राम के नाम से ही सबके कदम उस झाड़-झंकाड़ भरे रास्ते पर भी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं जहाँ घास-पेड़ और झाड़ियों से भरी जगह में एक गुफा दिखाई दे रही है.डमर दा बता रहे हैं कि इसका नाम “पिंगू उडियार” है. इसका स्थलीय निरीक्षण कर बाहर आए रेंजर साब ने कहा कि जगह खूब है, हम सब अटा जायेंगे पर ऊबड़-खाबड़ बहुत है, और तो और भीतर एक जगह से मुड़ी हुई भी है.
पिंगू उडियार का यह स्थल करीब दस हज़ार फीट की ऊंचाई पर है. सब लोग अब सामान की टांज-पांज में लग गए हैं. कुण्डल दा और दल बहादुर को चिंता है कि लकड़ी तो है ही नहीं इसलिए बनकट्टा ले वह पास ही जंगल में जाते दिख रहे हैं. उमेद और सोबन भी अपना सामान धर उनके पीछे हैं. आसपास से झिकड़े-मिकड़े बीनते रेंजर साब की देखदेखी मैं और दीप भी सक्रिय हो गए हैं. यहाँ की खासियत यह कि पास के जंगल से पक्षियों की अलग अलग तरह की आवाजें आ रहीं और गूंज भी रही हैं. उडियार के बाहर ही पड़े पत्थरों के चूल्हे के लायक लकड़ी तो जमा हो गई है. दीप इस बीच पड़े सामान में देगची और गिलास ढूंढ रहा है. अब रेंजर साब ने उन झिकडों से कुछ खास जैसी लकड़ियों के ठूँठ बीन उनमें दियसलाई पाड़ दी है. पानी तुरतुराने की आवाज नजदीक ही सुनाई दे रही थी सो दीप भर लाया.
आग के पास बैठ बड़ा चैन आया क्योंकि अब ठंड भी भीतर घुसने लगी थी.शाम भी हो चली है और सामने के परबत से सूरज कुछ ही देर में बस जाने वाला है. रेंजर साब ने सिगरेट सुलगा ली है और वह बता रहे हैं कि उस दिशा की ओर तवाघाट से पांगू की ओर जाने का कच्चा रास्ता ठीक नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता हुआ है. उसी के बगल में दायीं ओर नारायण आश्रम है. इसी के बायीं ओर फैली हुई है नयनाभिराम दारमा घाटी. वहीं धौली पार दारमा घाटी और व्यास घाटी के मध्य उभरी हुई है ऊँची पुलोमा पर्वत उपत्यका.रेंजर साब ने दारमा- व्यास की बायीं ओर फैली पुलोमा पर्वत श्रृंखलाओं में आपी, नाम्या और नमच्यूँग की सही पहचान करा मुझे बताया कि डोट याने नेपाल की ओर फैली इन पर्वत श्रेणियों में अधिकांश ऐसे शिखर हैं जिनमें चढ़ पाना बड़ा दुष्कर है.
पर्वतारोही प्रयास करते हैं पर ऐसे सीधे खड़े ढाल और मौसम की जानलेवा दुश्वारियां हैं कि अभी तक झंडा नहीं फहराया जा सका.ऊपर छप्पन भेकताल के उडियार जहाँ हम रात काट आये थे वहां से छिपला धूरा और नीचे के बुग्याल सहित यही पर्वत श्रृंखलाऐं दिखाई दी थीं पर पिंगू की इस उडियार से नेपाल के वह हिम शिखर भी साफ दिख रहे थे जिनमें से कइयों का नामकरण भी नहीं हुआ था.जैसे जैसे साँझ ढल रही थी वैसे-वैसे इन पहाड़ियों में सुनहरा पन झलकने लगा था.
पिंगू की गुफा ऊबड़-खाबड़ होने के बावजूद रात में पाँव पसारने के लायक बना ली गई. लकड़ी के गिंडे आसपास से ला उनकी चीर फाड़ कर ली गई. सारा सामान भीतर सहेज दिया गया. तभी ऊपर ग्वार से नीचे उतर हमारी ही ओर आते दो जन दिखाई दिए. पास आये तो भेटघाट हुई. दोनों युवा हैं और कालीपार बेतड़ी के रहने वाले. ऊपर छिपला केदार को मनौती चढ़ा कर लौटे हैं. इनमें पहला धरम देव भट्ट है जो नेपाल पुलिस में प्रहरी है. उसने नारायण नगर इंटर कॉलेज से पढ़ाई की है और पिछले ही बरस उसका लगन हुआ है. उसका साथी फूलसिंह है जो धारचूला से पढ़ा है और दारचुला में जनरल स्टोर चलाता है. उनके साथ और घर के सयाने औरतें भी थे जो आराम से उतरेंगे. उन्हें तो नौकरी काम काज में लौटना है.
दोनों खूब मिलनसार हैं. रेंजर साब ने एलान कर दिया है कि भुला धरम और फूल साथ ही रहेंगे यहीं. वो भी खुश. दोनों अपने झोले खोल रहे तो उसमें से एक बोतल दूध भी निकल रहा. रेंजर साब चहचहा उठे हैं. “ये हुई बात, लो हो कुण्डल दा, तुम्हारी चहा ख़ौली भी नहीं कि दुद्धू भेज दिया ऊपर वाले ने. अब रात का माल तो संकरू के पास है ही, और क्या चाहिये? गपशप के साथ बढ़िया चाय.
धरम देव के साथ रेंजर साब की क्वीड़ शुरू हो गई है. वह बता रहा कि मुंसियारी से उसने हाईस्कूल किया. वहां पढ़ाई बहुत अच्छी थी. साइंस ली थी उसके बाबू जी पुरोहित हुए और यहाँ के साथ नेपाल बेतड़ी तक उनकी जजमानी बढ़िया चलती रही. बैद भी हुए और जड़ी बूटी के जानकार भी. माल-भाबर तक उनकी दवा जाती थी. वह भी जड़ी बूटी पहचान लेता है और पूजा पाठ, बरपंद, सराद सब कराना सीख गया है. फिर बाबूजी कुछ महीने असकोट रहने लगे तो उसका दाखिला भी नारायणनगर करा दिया. वहां तो बच्चे कक्षा में हफ्ते में दो एक दिन ही आते थे सब दूर दराज गांव से, इक्का दुक्का जो बस जीप मिल गई तो आ गए, रोज किराया भरने की हैसियत भी नहीं हुई. बस नीचे छोड़े कभी ओगला से पैदल आ रहे तो कभी डीडीहाट-नारायण नगर से. उस इंटर कॉलेज में स्टॉफ भी पूरा नहीं हुआ जो हुआ भी वह ट्रांसफर के फेर में.
स्थानीय स्टूडेंट गिने चुने हुए. आगे की पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा गया तभी ईजा गुजर गई. घर में सब छोटे भाई बहिन. तभी नेपाल प्रहरी में भर्ती हुई और वर्दी पहन ली. उसके बाद प्राइवेट बी ए कर लिया. किताब तो छुई भी नहीं. बैतड़ी से कई बच्चे पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे. ज्यादातर लड़कियां हुईं. वो लक्ष्मी गाइड, मानसी गाइड ले आती थीं और मैं घोटा लगा लेता था. बैतड़ी में प्रहरी पद चैन का हुआ बस थोड़ी बहुत जो फ़ौजदारी आपसी लड़ाई झगडे हुए वो राजीनामे से सुलझा लेता. अब बामन हुआ सब मान मून भी जाते. बेतड़ी तक बड़े अधिकारी दौरे पर आते भी कम ही थे सो आराम की नौकरी हुई. अब यहाँ तो जो खून खच्चर हत्या मर्डर हो तो लाश का पता ही कहाँ चलता है? खचका के भनका देते हैं काली में. बनबसा बैराज तक तो कंकाल भी चुरी जाता है.
बैतड़ी की ही डिग्री कॉलेज पिथौरागढ़ में पढ़ने वाली कन्या से धरम देव का लगन तय हो गया है. उसी का उचेण रखने आया था. छिपला केदार छुट्टी ज्यादा नहीं मिली नहीं तो बिरादरों के साथ ही उतरता नीचे को. धरम देव बड़ा खुश लगा. हमें बेतड़ी आने का न्यूत भी दे चुका है.
हमारी गपशप चल ही रही थी कि ऊपर पहाड़ी की तरफ से कुछ लोगों के आने की आहट सुनाई दी. सब गुफा की ही ओर आ रहे थे. अब सांझ का धुंधलका बढ़ने लगा था. बाहर लकड़ी के बड़े गिंडों की आग खूब धधक गई थी. आग की तरफ गरम और पीठ की तरफ कुड़ कुड़ाट लग रही थी. ऐसा लगने लगा था की आसमान से तुसार तपकने लगा है.
आठ जन ऊनी कपड़े, जैकेट गदोड़े लदे फदे, सर में टोपी, गले में गरम पँखी लपेटे अपनी पीठ पर लदा बोझ उडियार के पास रखने लगे थे. सबसे आगे जो बुजुर्ग थे उन्होंने रेंजर साब को देख “अरे शाब आप” कह पैरों तक झुक टोप दी.
“ले! रे हयात सिंग. खूब मिला रे”. बुजुर्ग दिख रहा बड़ी-बड़ी मुच्छों वाला गांठा सा हयात सिंह रेंजर साब को जोहार कर बहुत ही खुश दिखा.
“ये हुआ हयात. ये आदि कैलाश व्यास के रास्ते लमारी गाँव का मवासा हुआ. मसाले और जड़ी बूटी का काम हुआ पुश्तैनी. अब तो ये लोग अपने खेतों में भी बो-उगा रहे हैं. बूदी गांव में जो वन पंचायत का इलाका है उसमें खूब भेषज हुआ”.
हाँ हो शैबो. अब तो भौत बुदियाल मौ अपनी नाप बेनाप जाग में जड़ी बूटी डाल रहे. इस कारोबार में मुनाफा अच्छा मिल जा रहा. बजार को जितना माल चहिए वो हमारे लोग दे ही नहीं पाते तभी मुनाफा भी बना रहता है.सालम पंजा, डोलू, कुटकी और उतीस इफरात से हो जाती है बस तैयार होने का काफी बखत चहिये. हम लोग साल में कोई चार पांच किसम निकाल धो-सुखा कट्टे में भर तैयार रखते हैं फिर खच्चर लददू जीप बस से सार देते हैं मंडी. गोंपन के कई लौंडे अच्छे तैयार हो गए हैं बिक्री बटटे में. अब हम बुड-बुड़े इधर उप्पर से खोद-खाद माल बना लाते हैं”.
“अब वो ग्यार-बार हजार फिट की ऊंचाई पन कुटी गों हुआ, वहां लक्छमण कुटियाल जी हुए, उन्होंने सगंध पौधों की बढ़िया खेती शुरू कर दि है शैबो.”
“अच्छा खेती बाड़ी तो खूब सुनाई, पहले ये तो बता ऊपर से कुछ दवा दारू बचा के लाया है पौणों के लिए या खुशक ही मारेगा “रेंजर साब एकदम प्रैक्टिकल बात कह गये.
“अरे क्यों नी हो गुसाईं. सब हिसाब हुआ लबालब. लियो पेली खुकरी खाओ.” ना. मैं अपनी वाली पीता हूँ सिगरेट. ये खुकरी तो गला बुजा देती है… मार खरखराट.”
रेंजर साब ने विल्स फिलटर निकाली.
सयाने हयात सिंग जी ने खुकरी सिगरेट के बीस वाले बंडल के कोने दो उँगलियाँ मार स्टाइल से सिगरेट निकाल सामने जली आग के लक्कड़ से सुलगाई. गपशप चलती रही.
जनकपुर सिगरेट फैक्ट्री की बनी खुकरी सिगरेट जिसके बारे में पिथौरागढ़ में मेरे शिष्य नवीन भसीन के पापा ने जो वहां गोल्डन टोबाको कंपनी के होलसेलर थे ने बताया था कि इस खुकरी ने उनकी पनामा सिगरेट की बिक्री ही चौपट कर दी है. बड़ी सस्ती और कोई टैक्स नहीं.
खुकरी के कश भरने के साथ इधर चाय के घूंट भरे जा रहे. उधर रात के डिनर की व्यवस्था में कुण्डल दा सबको आर्डर दे रहा. भगवती बाबू एक थाली में अपने लिए चार पांच मुट्ठी आटा अलग गूंथ रहे. उसमें पानी मिला दूध पड़ रहा जिससे वह चोखा हो जाता है बल.
चाय का सुड़का लगाते हयात दा के बगल में बैठे बुबू अपने झोले झंटे खोले उनके भीतर की थेलियों में कुछ खोज बीन कर रहे. आखिर एक थैली का ज्योड़ा खोल वह उसके भीतर का जड़ -कंजड़ रेंजर साब की नाक के पास तक ला सुंघा रहे.
“आकss छीँ sss, अरे ये तो गजब है. लो हो भगवती पंडित तुम्हारी पूजा के लिए आ गई असली धूप, दयाब्ता भी खसबू से बरदान दे देगा तुमिको.”
आटे के हाथ फटाफट धो पोंछ भगवती बाबू अपने हाथ में दी गई उस जड़ी को ध्यान से देखने लगे.
“सूंघना मत हो, बड़ी तेज है, अभी छीँक निकाल देगी”. घ्ययू मिला डालूंगा धूनी में.
अंss.
पता चला ऊपर किसी पेड़ का गुगुल है. और भी कई किस्मत की जड़ -पत्ती -पंचांग मिला इसकी धूप की सुवास बढाती हैं. स्वास -कास के कई रोग भी इसकी धूनी से ठीक हो जाने वाले हुए.
वाकई खुशबू तो गज़ब है. भगवती बाबू की संध्या पूजा की शुरुवात के साथ धूप के धुवें की खुशबू ने भीतर कहीं कुछ रंध्र जाग्रत कर दिए हैं. सोबन और साथी भगवती बाबू के अनुष्ठान में भजन गाने लगे हैं. आज तो लोग भी खूब हैं. काम सब फटाफट हो रहे और उडयार ने भी टेढ़ी-मेढ़ी होंने के बावजूद सब को अपने भीतर जगह दे दी है.
बाहर अब खूब कड़ाके की ठंड बढ़ने लगी है इसलिए सब उडियार के भीतर को घुस अपनी जगह बना रहे हैं.
पूजा पाती भजन सम्पन हो भगवती बाबू के हाथ से सबको एक एक मिश्री की परसादी मिल चुकी है. चूल्हे में बड़ा डेग चढ़ गया है. हयात दा और धरम सबके आगे पानी से खकोले गिलास कप धरने में लगे हैं.हयात सिँह जी अब डमर दा के साथ मिल अपने झोले झंटे खोलने में और उसका माल -ताल बाहर करते दिख रहे हैं. पहले तो कपडे की एक थैली निकाल कुण्डल दा को दिखाई जा रही. जिसे वह फ़ौरन लपक ले रहा. मैं भी वहीं आग के पास आ बैठ गया हूं. इधर तो पांच -सात मिनट में ही पाँव सुन्न पड़ गये हैं.कुंडल दा ने ज्योड़े से बँधी थैली खोल उसमें हाथ डाल मुट्ठी में पकडे चावल मुझे दिखाए. “लाल चामल है. इधर का तो नहीं हुआ, निलांग की तरफ का चिती रहा. उधर से ही आया ठेरा हो हयात दा”
“हाँss हो भुला. सूखी सापड़ी भी है उसकी तरी बनाओ. तुम बनाओगे या मी लागूं”
” ना हो. बन जायेगा. ये लौंडे मौण्डे हैं ही. सीख भी जाते हैं ऐसे बरात निबटाना.क्योंss, कस कौ ss”.
“ये सपेसल तो अपने ग्वाल गुसें रेंजर सेब का हुआ, असली मडवे का माल है. पुराण ले है ग्यो “
हयात दा के हाथ का जेरीकेन देखते ही आराम से विल्स फिलटर खींच रहे रेंजर साब ने उसका ठुड्डा फेंक कहा, “इसे यहाँ दिखाओ हो भगत “.
तुरंत आदेश का परिपालन हुआ और धरम दा के अभी इसी उद्देश्य से खकोले गिलास और मग्गे ऊपर तक छलछला गए.
रेंजर साब गदगद हैं. सुलगती लकड़ियों की सुर्ख आंच और लपटों के बीच उनका चेहरा तृप्ति की लालसा में उद्विग्न साधु सा जगमगा उठा है. ये चेहरा खींचने को मेरा कैमरा फ़्लैश होता है.
रेंजर साब के ओठों पर फिर विल्स फ़िल्टर चढ़ गई है. फौजियों वाले तामचीनी का भरा मग सामने है. अपने दाएं हाथ की तीन उँगलियाँ डूबा वह कुछ बूंदें जलती लकड़ियों पर डाल रहे हैं, फिर धरती पर और फिर अनंत नभ की ओर छय्त छय्त.
हयात दा ने भी अनुसरण कर गिलास उठा, लियो हो सैबोss” का उदघोष किया. चड़म्म से बड़ा घूंट गटक खुकरी सिगरेट की फूक के साथ उनकी आवाज में वीर रस भर गया. अब वह बताते जा रहे थे कि,
“मडवे को गलाने के लिए इसमें “बलमा” डाला जाता है. गाड़ गधेरों के पानी में होने वाला एक सिमार भी हुआ और साथ में कई जड़-कंजड़ जिनमें कुछ तो बिष भी हुए. कहा. माल बिलिने में भी महीनों लगने वाले हुए.फिर जो ये वीसी – निरवीसी सब गला गुलु भबके के बाद टन्न माल बना देतीं हैं.”
यहाँ गों घरों में बजार की गोली दवा किसके खाप चढ़ी? इत्ती फाम सयानों को हुई की बदन की आपदा बिपदा में क्या जड़ी पत्ती रोक कर देगी. यहाँ सब मोटा झोटा खा पचा बदन की ताकत बनी रहने वाली हुई. कदन्न खूब हो जाने वाला हुआ
“कदन्न ये क्या हुआ”? दीप ने पूछा.
“अरे! ये चार मोटे अनाज हुए. झूंगर, मडुवा, ज्वार और कौणि “
“मिलेटस, हुए पंत जी ये “रेंजर साब बोले. “सबके छोटे छोटे गोल दाने. इन्हीं के माल से बदन गरमा रहे हो अभी. अब पंत जू बड़ी सोच समझ से पहाड़ के सीढ़ी दार खेतों में फसल उगाई जाती रही जिससे खुद का भी पेट भरे और जानवर भी पलें.
सारे दल्हन, तिलहन, साग सब्जी, मसाले,फल जैविक हुए. खेती तो हमारे यहाँ जीवन निर्वाह वाली हुई. चौमास सही बरस जाये तो हो जाये साल भर का जुगाड़. पर ऐसा होता कहाँ है. मौसम बड़ा ठग्गू भी हुआ. फिर भी सयानों की होशयारी देखो उन्होंने ऐसा मिक्स्ड क्रॉपिंग सिस्टम डेवलप किया जो हर परिस्थिति में बारह अनाज तो उगा ही दे, इनके साथ कई फसल हुईं जैसे मडुवा, झुंगर, कौणी, ज्वार, घोघा,जौ, गहत, भट्ट, फरासबीन, यानी राजमा, रेंस, तिल, भंगीरा, जखिया, उगल, चौलाई और भाँग. ये हुई बारहनाजा पद्धति जिसका राजा मडुवा हुआ. तभी तो कहते हैं, “धान पधान, मडुवा राजा, ग्युँ गुलाम.
अब टेम बदल गया, अमेरिका का गेहूं खाना पड़ रहा. सब अन्न तो राशन की दुकान से बंट रहा. हरित क्रांति की बात कर रही इंदिरा गाँधी जिसमें सब खाद बीज विदेश से आना है. पुराने बीज वैसे ही खतम हो रहे. ये देख नहीं रहे दारू के बदले मृत संजीवनी सुरा बिक रही. अशोका लिक्विड आ गया सम्राट अशोक के साम्राज्य की तरह गाँव गांव फैल गया. वो देखा अल्मोड़ा में डाबर की ऐसी बिक्री कि तिमंजिल चौमंजिल बिल्डिंग खड़ी कर दी. गेहूं ऐसा आया कि उसके बीज के साथ जहाँ देखो पार्थनियम फैल गया, अरे कांग्रसी घास.”
“अँ, तबे कुनि, अंध गौँ क काण पधान, मन आया ग्यूँ, मन आया धान” हयात सिंह जी बोले.
“नाबी गाँव में हमारी ठुल ईजा रहने वाली हुई तो उनके घर में बरसों पुराना मौ रखती थीं. शहद हुआ. ऐसे ही हुआ सं च्यत्ती जिससे वो बनाने वाली हुईं कलं. कितनी बीमारी की दवा हुईं उनके पास”
“अंss हो , यहीं तीज्या के पतियाल लोग हुए, ऐसी जड़ी जानने वाले हुए कि रैबीज ठीक हो जाए”.
क्यों, वो पट्टी चौदास के गुंजियाल जी हुए अरे क्या नाम हुआ उनका, हाँ दिलीप सिंह जी उनने तो पोथी लिख डाली है यहाँ होने वाली दवाओं पर “
मेरे बगल में बुजुर्ग नंदन सिंह ऐतवाल जी हनुमान मुद्रा में बैठे हैं. उनकी सूरत देख मुझे अल्मोड़ा के खकमरा में रहने वाले बाबा की स्मृति उभर रही. बिलकुल वैसे ही. खूब तगड़े बलिष्ट. असल घी खाये जैसे. मिर्जे पहने जिसके ऊपर फ़तुई और फिर काली मोटे ऊन वाली पँखि. हाथ में मुनड़ी और कान में बाली भी है. दोनों हाथों में कई कई चांदी के कड़े जैसे देबता के धामी पहनते हैं. हयात सिंह जी ने उनका परिचय देते समय बताया था कि उन पर दयाब्ता का हाथ है. फूक मन्त्र सब के जानकार और तुतुरी, नागफणी, रण सिंघा, बिणाई जैसे फूक और धातु के वाद्य यँत्र बजा ने के माहिर. तालेश्वर के भगत हुए.
मैंने पाया कि मुझे उस धीमी रौशनी में भी डायरी लिखते देख वह बार बार देख रहे हैं. अब लिखते लिखते हाथ भी ठंड से सुन्न हो रहे थे. सो कॉपी बंद कर मेरी उनसे बातचीत शुरू हो गई.
“आपके ईष्ट-देव कौन हुए”? उन्होंने पूछा.
जी ज्वाला देवी. हमारा मूल हिमाचल हुआ, वहीं से पुरखे आये अल्मोड़ा.
वा!आपके बिरादर तो नेपाल भी हुए. पालमपुर के. राजा श्री पांच ने बसाए. ऊँss. आचव लगाई हो ग्या तुम्हारा? ना नहीं हुआ.
बत्तीस पै मिलेगी सैणि , अभी टेम है. एक जोड़ दिख रहा मुझे. ये जोड़ क्या हुआ?
अरे लड़के. दो लड़के. अंss लड़की भी होगी जरा बाद में.बाबू त नहीं रहे ना?
ना, चार साल हो गए, अचानक ही चल दिए. कहते थे मैं कभी रिटायर नहीं होऊंगा और सच्ची में रिटायर होने से दो महीने पहले ही चल दिए. तब मैं अल्मोड़ा कॉलेज में था.
“कच्च कबिल छोड़ गए. ईष्ट देब की कृपा हुई सब काज निभूण है हाथ में.. किताब क किड़ लै भया.. क्यों? सही बचन हुए कि नइं, बताओ…”
मैं तो सचमुच बड़े आश्चर्य में था कि आज अभी की मिल-भेंट में ऐतवाल जी मेरे बारे में सोलह आने सच कैसे बोल गए. मैंने कुछ शंकालु हो कुण्डल दा की ओर देखा. वह भी जैसे मन की बात भांप गया. बोला,” नंदन सिंह ऐतवाल जू पर तालेश्वर की किरपा हुई. फिर ये स्थान बड़ा पवित्र हुआ. यहाँ दुलेँच हुआ डंगरिया का आसन…”
फिर तो नंदन सिंह जी खुली किताब हो गए. बातों बातों में अपनी सब कथा बाँच गए.
ऐतवाल जी नेपाल के छाँगरू गाँव की पैदाइश हैं जो उधर व्याँस घाटी में हुआ. सात बहिनों के बाद गांव में ही पले-बढ़े. अकेले लड़के हुए घर में तो बाबू ने घर से बाहर न जाने दिया. उनका जिमदारी का काम हुआ. सो खेत खलिहान, भेड़ बकरी, ऊन, जड़ी बूटी सब काम सीखे. देबता के थान जाते तो रिंगाई जैसी आती. नेपाली में बोलने लगते. उधर घोरपट्टा साइड के पंडित द्विवेदी जी जब उनके घर आये तो पूजा के बीच उनकी तरंग देख बोले कि इस पर तो देबता की छाया है. अब या तो हरिद्वार ले जाओ पीठ ठुकाने और अगर देबता की कृपा चाहिए तो तालेश्वर ले जाओ, ऐसे में बहुत यम नियम का पालन करना होगा. क्यों रे नंदू तुझे क्या चाहिए पूछा उनसे तो बोला मैं कि मुझे तो देबतारी ही करनी.सो पुछेड़े बन गए. अपने बाबू का बड़ा कारबार संभाला. काली वार बलुवाकोट में दुकान डाली जहाँ राशन रसद के साथ सूपा, डाला, मोष्टा, ज्योड़ा के साथ खेती का सामान आने वाले सामान को रखते हैं”.
“खेती पाती का कौन सा जो सामान और रखते हो दुकान पन” सोबन ने पूछ लिया जिसकी डायरी खुली थी और वह उसमें लिखता भी जा रहा था.
“सब बतूँ, एक-एक कर बेर. अब यो इलाकपन बांस-निंगाल जकें रिंगाल ले कुनी, मस्त भै. उसके चवाया या बचोँ से मल्लब बाहर के कठोर छिलके से बहुत आइटम बनने वाले ठेरे. जो गांव घर में हर किसी की जरुरत हुए. जैसे निंगाल से बनी “टोकरि” जिसे “टपोरो” या “टोकरी” कहते हैं. ऐसे ही चीज बस्त और छुटपुट सामान रखने को “डलिया” या “डाल्लो”-“डाल्ली”, अनाज फटकने को “सुप”, “सूप” या “सुप्पो” अनाज रखने का भकार या “पुतको”, “पुतुक” व भाँग के रेशे से बना बोरा जो “कुथव”या “कुथलो” कहलाता है. भाँग के रेशे से ही कपड़ा भी बनता है. इसकी सदरी भी बनती है चाहे वासकट बना लो या अंगड़ी तो वहीं टाट या चददर भी बनाते हैं जो घास-पात बोकने के काम आती है. कुथलो से बनी बैलों के मुंह में बनी जाली भी खूब मजबूत होती है. कई जगह इसे रामबाँस, भीमल और भाँग के रेशे मिला कर बनाते हैं. इसको “म्वाल” या “मुहाली” कहते हैं. रिंगाल और बांस से सिंदूक और पिटारी भी बनती है जिसको “पिटार” भी कहते हैं. ऐसे ही “डव्क” या “डोक्को” बड़ी कंडी जैसा होता है. जानवरों के लिए सूखे पत्तों को समेट कर रखने वाली बड़ी कंडी “पटेलिया डव्क” कहलाती है”.
“कृषि यंत्र भी रखते होंगे जो परंपरागत तकनीक से बनाये जाते हों. पहाड़ की खेती के लिए तो यही कारगर हुए. स्थानीय स्तर पर गांव के ही शिल्पकार बना लेते हों जिन्हें”. मैंने पूछा. सोबन उनकी कही सब नोट कर रहा था इसलिए मेरा ध्यान बस सुनने में था.
“हाँ ss होs!खेती पाती के औजारों में करीब करीब सब ही दुकान में ठहरा.”
इनमें क्या क्या मुख्य हुआ.
“सब जरुरत का हुआ एक के बिना दूसरे का काम न चले. अब जैसे हल को ले लो.उसमें बांज की लकड़ी से बनी “हल्यानी” फिट होने वाली हुई. “सानन” या “सानड़” की लकड़ी की मजबूत हल डंडी लगती है जिसको “हलदाबो” कहते हैं. ऐसे ही हल में फसाने वाली हल की “साल” हुई. बाकी चीजों में जो हल में जगह जगह लगने वाली ठहरी वो हुईं “हलाको बोन”, “हल मांडि”, “कउवा”, “रतकिला”, “ऊगो” और “मूठ”. फिर इनको जोड़ने और ठुकाई करने वाले पच्चड़ और हलसारो भी हुए जो सब रखता हूं दुकान में.हल की जो डंडी होती है उसे तो साल, देवदार और चीड़ की लकड़ी से बनाते हैं तो बैलों के कंधे पर टिकने वाले जुए को किमि या किमु और पुन्या की लकड़ी से बनाते हैं. सानन की लकड़ी से बने “मै” मजबूत होते हैं जिनको “दन्याली”, “दन्याव” या “देनेली ” भी कहते हैं.
इसके अलावा खेती पाती में और भी कई चीज-बस्त की सटर-बटर की जरुरत पढ़ने वाली हुई. जैसे अनाज को चूटने के लिए लोगबाग घिँगारू के पांच-छह लम्बे झाड़ काट लेते हैं पर ऐसे अटरम -पटरम दुकान में भी रखने हुए.
बैलों को दाना खिलाने या “रातिब” के वास्ते “दुनो “या “ढूटालो” हुए, धान कूटने के “मुसव”या ” मुसौल” के साथ ही लकड़ी की ठेकी, भगौने जैसे “पाल्ली”या “पाल्ला”, काठ की गगरी जिसे “डौकी “या “विंडो”कहते हैं, यहीं आसपास के रहने वाले वनरौत जिनको वन रावत या वन राजी भी कहते हैं, बना कर बेचने के लिए हमें दे जाते हैं. अब मालूम ही होगा आपको वनरौत तो लकड़ी के काम में माहिर ही हुए.
इन चीजों के अलावा जंगल और ऊपर बुग्याल में मिलने वाली जड़ी बूटी भी मौसम-बेमौसम दुकान में धरी रखनी हुई. बाबू की पछाण भौत हुई यहाँ-वहां, सो बनबसा, रामनगर के आढ़ती माल मंगाते रहते हैं. यहाँ से जीप-बस में माल लाद भेज देता हूं. छिपला देव की किरपा हुई, चलत-फिरत चलती रहती है.”
अपनी बात पूरी कर नंदन सिंह जी सिगरेट के बीस वाले ने बीस वाले पचेत के खुले सिरे पर हाथ की दो उंगलियां ठोकी और सिगरेट निकाल सुलगा ली.
यहाँ के स्थानीय बर्तन और उपकरण भी बिकते होंगे आपकी दुकान में? “. मैंने पूछा.
“अं! हो s क्यों नहीं.” वह फिर बताने लगे.
“यहाँ तो भतेरे भान-कुन हुए. सभी तो हर टैम दुकान में नहीं रहते त्यार मेले ठेले के समय ज्यादा बिक्री हुई. कुछ की चौल भी कम हो गई. खेती-पाती के काम में अनाज की माप का बर्तन ‘नाली’ हुआ. इधर हमारे इलाके में ईसे ‘खँ’ कहते हैं.ऐसे ही लकड़ी से बनता है, “गुलोकोसी” जिससे रोटी बनती है या पलती कुटो स्यीली बनाई जाती है. नमकीन चाय बनाने के लिए और मट्ठा फैंटने के लिए, “दोंगबू” होता है.चूल्हे में कढ़ाई रखने के लिए या “झयन” रखने के लिए “काचे” तो कढ़ाई, बगोना या “झयन तौली” को जमीन में स्थिर रखने के लिए लकड़ी या लकड़ी की छाल से बना “पिल” होता है. ऐसे ही लकड़ी से बना एक डंडा होता है जिसको “तब्दू” कहते हैं. जब गेहूं को अच्छी तरह चूट लेते हैं तो आखिरी बार उसकी बालियों को अलग करने या थेच कर अलग करने के काम आता है ये.तमाख पीने के लिए बना “नारली साज” भी लकड़ी से ही बनता है.खेती के और कामों में “यिम्पू”, “फलम” और “डंडाली” काम आते हैं. जो लकड़ी के साथ-साथ लुए या लोहे की मिलभेंट जुगत से बनाए जाते हैं. इनमें “यिम्पू” हल का एक भाग ठहरा. फलम से जुताई होती है तो डंडाली से जमीन को सपाट – समतल किया जाता.
“अभी और भी भतेरे साज -समान हुए. कहते हो तो बताऊँ”?
“हाँ, हाँ. मैं तो इनमें से कई के नाम ही पहली बार सुन रहा “.
“अब मास्साब, हर ठौर में कई चीज-बस्त के नाम बदले हुए ही सुनाई देते हैं. जैसे घर के पालतू जानवरों को दाना-पानी देने वाले भान कुन को हमारे यहाँ “छयाकुलो” कहते हैं. जो बड़े ढोर हुए उनको काबू में रखने के लिए उनकी नाक में लगाते हैं, “नैलज्यू” जो लकड़ी से ही बनने वाला हुआ. ऐसे ही गोठ के द्वार में लगाने वाली “जगाली” भी लकड़ी से ही बनने वाली हुई. फिर गाय-बछड़े के गले में बनने वाली घंटी “बिन” हुई. ये कांसे के हुए. बड़े ढोर-ढंकरों के घंटे या घड़ियाल “कौल्यईंन” कहलाते हैं जो ताम्बे से बने.
ऊपर के इलाके में नमक वाली चाय पीने के बर्तन को “लिंचे” कहते हैं. ये चांदी से भी बनते हैं. ऐसे ही भात खाने का बर्तन “तली” कहलाता है जो कांसे से बनता है. घर की औरतें जिसमें चाय पीती हैं उसको “मुल कंचें” कहा जाता है जो बनता तो लकड़ी का है पर जिसमें चांदी का पत्तर लगा होता है.
किसी तरल चीज को मापने की “पारी” बी लकड़ी से ही बनने वाली हुई. जब कोई त्यार-पर्ब हुआ तो सतानी पिलाने को “जुगली” काम आती है. ऐसे ही गों घरों में मिरच कूटने के लिए लकड़ी का “दुगपा” होता है तो मिरच को पत्थर के बने “दुँक्लिन” में धरा जाता है. ये ही हुए पुराने भानकुन. कुछ एक छूट भी गए होंगे. अब गाँव देहात की दुकानदारी हुई. सबी मेल रखने हुए. अब तो स्टील लुमीनियम का जमाना आ गया, चाय के कप-तसतरी चाइना वाले, डिनर सेट, कुकर सब की चौल बढ़ गई. दारचूला झूला घाट पुल पार से ऐसा खूब समान आ रहा. पहले सस्ता जैसे-जैसे आदत पड़ी वो भी महंगा. अपने तो लगे बंधे गाहक ज्यादा हुए. मेलों-ठेलों में ज्यादा खपत हो जाने वाली ठेहरी. दाल में लूँण के बराबर का मुनाफा बहुत हुआ.
अब मैं तो मास्साब ज्यादा पोथी बाँच पाया पर दोनों बच्चे ननीताल बिरला के स्कूल मैं डाल दिए. हॉस्टल भी हुआ वहां. अब देखो हमारे छाँगरू गों से ही कई मवासे बाहर निकल बड़ा नाम कमा गए. उनकी देखा देखि सोचता हूं अपने बच्चे भी डॉक्टर वॉक्टर बन जाएँ छिपला केदार की कृपा से.मेरा तो शहर-माल भाबर जी नहीं लगता. अजीबे चिताता हूं.”
उनके बगल में विराजे उनके दगड़ू बोल पड़े,” हाँ ss हो. फीर माल बेचने शहर जाओ गुरूजी तो क्या चीज बस्त क्या धिनाली लुकुड़. अब धिँगाड़-भिदाड़, सुराव, खोपि-टव्पि, सिकोली, टांक, झगुली, सल्त राज, घाघर, अंगड़, फुन, धमेली दिखते तक नहीं वो क्या चल गई बैल बॉटम, बुक शट. सब धुमन्न हो गया ठहरा”.
“अब देखो तो जमाना बदल गया. अपने निरपट्ट इलाके में बड़े बड़े सयाने हुए. भरी जवानी बड़ा काम करने वालों की भी कोई कमी थोड़ी हुई “.
अब हयात सिंह जी थे जो बड़ी देर से सुलगती आग से हाथ सेक रहे थे और आंग तता रहे थे. अब देखो, बिरादर ही हुए श्रीमान बहादुर सिंह एतवाल जी. धन्य हो, खुट्टी जै हो उनकी. एतवाल जी को सब लोग मानज्यू कैते थे. नेपाल के साथ यहाँ भी खूब चौल रही उनकी.”
अबी रोटी बनने में थोड़ी कसर है, लोगबाग भी खूब मस्त हो गए हम. तो अब खाने पीने से पेले तक सत्तू खिलाया जाय आपूँ लोगन को. हमारे यहाँ ” नपल ह्मयू” बोलते हैं. ताकतवर हुआ पुराने गूड़ के साथ. मास दो मास बुग्याल रहते हैं तो इसी का आसरा रहता है. सत्तू का भोग लगा. हयात सिंह को सुनते हुए.
“ये जो व्यास घाटी हुई उसमें नेपाल की तरफ छाँगरू गांव हुआ. अब बड़े दूर दराज का इलाका हुआ. आने जाने की बड़ी परेशानी. बस बरस भर में छह मास वहां पड़े तो खेती पाती की. बाकी बखत नीचे घाटी की तरफ फरकना हुआ जो गरम हुईं और जिश्को हम्म “कुंचा” कहते हैं. आपुँ लोग क्या कहते हो मीग्रैशन जैसा हो? माइग्रेशन.
हाँ… हो वोई. तो फीर ऐसे ही गों पन बसे हमारे सयाने श्रीमान छतरपाल सिंग जी ऐतवाल. भरा पूरा दैल फैल वाला कुनबा हुआ. अब उन्हीं के मौ, बरस उन्नीस सौ एकत्तीस को अपने बहादुर का. बचपन गोंपन ही कटा. उसके पीछे तीन भाई और हुए. अब बखत ऐसा कि इस इलाके में पढ़ाई लिखाई कि जोत जग गई ठेहरी. सब देखसुन उसके बाबू ने उसे लिख पढ़ हुशियार बनाने पिथौड़ागढ़ भेज दिया.. खोपड़ी का तेज बदन का सजिला हुआ अपना बहादुर. दौड़ भाग खेल कूद में अव्वल तो हुआ ही, दसवीं कक्षा में फर्स्ट डिबिजन ले आया.
अब छतरदा अपने बुढ़ा गए ठहरे. बड़ी घर-गिरहस्ती हुई. बहादुर गाँव आया तो घर की जिम्दारि में फंस ग्या आगे पढ़ाई की हौस हुई पर यहाँ का तिया-पांचा कौन संभाले? भाई भी पढ़ाने हुए. खेती पाती हुई तो खूब पर एक एक ढूंग सार बने खेत हुए. हर काज में मिन्हत लग्ने वाली ठेहरी. गांव से कहीं आना जाना हो तो बाटे-रास्ते बड़ा पसीना बहाऐं. छह सात माह तो गों छोड़ ही जाना हुआ. जब जाते तो बाकी दुनिया वाले यै सोचते होंगे कि ये रं-शौका कितने पलित्तर ले कभी सब ढोर ढँकर लिए निचे जा रहे कबि उपर आ रै. खान पान, चाल पोशाक वही पिछड़ी. कोमल मन के बहादुर ने ठान ली कि अपने गों, अपने इलाके के लिए बुनियाद मजबूत करे बिना आगे कुछ कर गुजरने की कोई वकत नहीं है. एकल कटुआ हो के कोई सुधार हो हो नहीं सकता. अपने लोगों के लिए कुछ करने की ठान ही ली तो बस अठारा की उमर में वो नेपाल के व्यास इलाके की गांव पंचौत का उप पधान चुन लिया गया. इससे उशकी पच्छयाण बणी. पिथौड़ागढ़ में पढ़ी लेखी से पाकि हुई चुका था. फुड़फुड़ात रहता कि बखतक फेर को बदई देना है. बिघन काटने हैं. अपने बौल बूत जिल्ले की अदालत का नुमाइन्दा भी चुना गया. बबा ने सोर भेज उसकी पढ़ाई लिखाई दुरुस्त की सो बौ सौ इस भलमेस्योव से वह गांव के नानतिनों का विद्यालय खोल उनका भाग संवारेगा. फिर मणकस ऊन के कारबार को यतन से रूजगार लैक ल्याख लगाना हुआ.
ऐसे बखत में जब महाकाली दार्चूला अंचल में रं मौ गिने चुने थे बहादुर ने अपनी ल्याकत दारी से सऊर और सकत से संजैत में काम किया और पंचैत को हर किसी के फायदे के वास्ते सुविद और सैजल बना दिया. अब तो वह पंचैत में अपने स्वार लोगन का हकू दलू था. कोई हंकार-दौँकार नहीं. अबी तक नेपाल की श्री 5 हकू दलू में जो जन भैटे थे वो हकौण वाले हुए, धदाघात वाले हुए, सब बहादुर की हाम देख हक्क-बक्क हो गए. अब अठाइस की उमर में पंचेत का उपाध्यक्ष हो जाना होना और जिल्ले की विकास समिती का उप सभापति बण जाना रसूख वालों के हुकींण के लिए जंतर जस हुआ. हिमाल का हिर हो गया बहादुर.तेंतीस साल का हुआ तो पछयाँण और बढ़ी जब संसद चुन परसिद्ध हो गया. अब तो पूरी तरह से चौतरफा पाकि हो जाने की खटखटून हो गई. उन्नीस सौ चौँसठ ने तो संसद सदस्य हुआ ही, छियासठ और एखत्तर के चुनाव भी जिता. बड़ा ओहदार हुआ तो पच्छमी नेपाल में लोगों का ऐसा एतबार कि बहादुर का नाम पड़ गया “मान ज्यू”.
काली पार दार्चुला में बंगाबगड़ का इलाका हुआ जहाँ रं-शौका लोग रहने वाले हुए जिनको डराने झस्काने के लिए और कौम के ऐबदार कलबलाट करते कहड़ यॉट मचाते. कुनैत रखते.शौकाओं की जमीण हथियाने किकड़-कुसज माहौल बनाते. कुपाणी हुए, चिचाट मचाते. ऐसा छितरयाट करें कि जहाँ शौका मौ के डेरे हों तो उनके आने जाने के बाटों और यहाँ तक कि घर कुड़ी के रस्ते वाली जमीन पर भी फसल बो दें. तमाम साजिस करें. सतपटाट में लगे रहें. बहुत चौड़ चापड़ हो गये. बेर -बेर यई लगता कि ऐसी जै लागण से तो इस जगह से न्यार ही हो जायेगा.पर मानज्यू ने सारे रांडीच्येलों से बंगा बगड़ की जमीन का दखल खतम करा दिया. झडक्याँन के साथ ही वहां की सारी जमीन रं राठ के नामे करा दी. तब से छाँगरू, रौकांग, गर्बयांग, बुदी और गुंजी के रं मवासे वहां ठशक से रहे.
एक बखत ऐसा भी पड़ा मास्साब कि ठौर ठिकान के लिए हमारे लोगों को अकास चाना पड़ता था. बड़ी जात चौड़ हो कर घूमती थी. हमार सब घर कुड़ी लगूंण जै भै. चाण खुड़न लागी रौ कुनी नै! मल्लब खाने-कमाने-रहने जाने सब में ज्याठ अ ठुल लोगन की चौल हुई. ऐसे में हमरी कौम ने सुना डकुरण मान ज्यू का, हमारे बहादुर काजो सबको बिडौव-बिफाम कर गया.पूरे दारचूला-बैतड़ी के इलाके के साथ पछिमी नेपाल के सौंकार देखते रह गये. उनकी सारी सटपटी चालाकी जो बंद करा दी बहादुर ने. यहाँ के रौणी वाले बासिंदो को उनका हक़ – हुकूक दिलवाया. अपनी इसी हुशियारी से बहादुर संसद सदस्य से उन्नीस सौ तेहैत्तर में श्री 5 सरकार में मंतरी बन गया. अब ये इलाका ही जंगलों वाला हुआ. महाकाली अंचल में तो आने जाने की बड़ी परेशानी हुई. जब भी हमारे लोग व्यास, दुमलिंग, राल्पा आते जाते तो उबड़ खाबड़, संकरे, सुरग-पताव जैसे ऊँचे-निचे रस्ते-बाटे में प्राण निकलते. खुद की फाम करना ही इष्ट होता. गर्मियों में रूडिन के बखत तो थोड़ी बहुत चलने वाला पैदल रास्ता पगडंडी दिखती पर जहाँ द्यो पड़ने, बज्र की भड़मताव होती तो सब तरफ रोक ही रोक हुई फिर.
अब कैसा ही कोप हो, भयांत हो, रिहड़ बाट हो, काम धंधा थोड़े ही रुकता है. वल्ट-पल्ट, फेर-बदव में ही ल्वात निकल जाती रोज की ल्वटीण घुरीण की आदत हुई. वसाण-ओसाण अलग हुआ. ऐसे में हमारा बहादुर, हमारे मानज्यू हुए जिन्होंने चाड़कर चाल से, “गोरोटो बाटो” योजना बनाई. पेले जिस ठौर पगडंडी भी नहीं थी वहां मवासों के डेरे तक पक्के रस्ते चौड़े रस्ते बन गये.
सबकी फिकर हुई मान ज्यू को. खूब पढ़ने लिखने की चिताक हुई. अब पैले बताया आपूँ को कि खुद दर्जा दस से आगे पढ़ न पाया पर झक्क जोत सी नीयत हुई. नानतीनों के वास्ते गों-गों स्कूल खोले, फीस-किताब की चितैक धरी. बीमारी सेवा टहल को अस्पताल खुलवाए. यहाँ तक कि गों घर में डाक घर भी खुले, चिट्ठी रसेण की आवत-जावत हुई.
अब हमरी राठ ऊन के काम-काज में चुलि चौड़ हुई पर बासठ में चीन के छव के बाद हुणियों से ऊन और कच्चा माल मिलना बंद ही गया. तमाम जुगत भिड़ा मान ज्यू ने अपने हिंदुस्तान में ऐसे मणकस काम किये कि ऊन की, पसम की कमी नहीं हुई. सैणीयों के लिए उसने महिला मण्डल बनाये. पंचैत में किताब रखी, पुस्तकालय बनाया, अख़बार लगाए जिससे लोगों को जी हो रहा उसकी फाम रहे. वाकई सकत और शहूर वाला हुआ हमारा मानज्यू. उसका यही कपाव देख महाराजाधिराज श्री 5 बीरेंद्र ने उसका मान कर “गोरखा दक्षिण बाहु द्वितीया” की उपाधि दी. खूब मस्कत कर गया. हुआ लाट ठाठ से जीने वाला हंसी खुशी वाला जुगत लगा बिगड़ी बात संभाल दे.
मलाल इसी बात का रहा मास्साब कि ऐसी बीमारी सनेस्वर सी लगी कि पोरके साल उन्नीस सौ अस्सी में ऊँचास साल कि उमर में ही देबता ने बुला लिया. ये क्या हो गया छिपला? हमरी कौम कि तो ल्वात निकल गैइं. द्यापता जैसा ही बस गया ज्यून जस चमक ले. “
नंदन सिंह जी की आँखों से अश्रु बह निकले. मैंने भी अपनी डायरी बंद की और पिंगू उडियार से बाहर निकल आया. बहुत तेज सरसराती हवा का थपेड़ा मुंह पर लगा. नजर के सामने घटा सी छा गई. मेरे ठीक पीछे दीप के गुनगुनाने का स्वर सुनाई दे रहा था –
कहाँ से फिर चले आए ये कुछ भटके हुए साए
ये कुछ भूले हुए नग्मे जो मेरे प्यार ने गाए
उम्मीदों के हसीं मेले तमन्नाओं के वो रेले
निगाहों ने निगाहों से अजब कुछ खेल थे खेले
फकत एक याद है बाकी
बस एक फरयाद है बाकी…
वो भूली दास्तां
लो फिर याद आ गई.
…जारी
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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