Featured

कैसे बनता है बरेली का मांझा : एक फोटो निबंध

‘कनकौए और पतंग’ शीर्षक अपनी एक रचना में नज़ीर अक़बराबादी साहेब ने पतंगबाज़ी को लेकर लिखा था:

गर पेच पड़ गए तो यह कहते हैं देखियो
रह रह इसी तरह से न अब दीजै ढील को
“पहले तो यूं कदम के तईं ओ मियां रखो”
फिर एक रगड़ा दे के अभी इसको काट दो।

हैगा इसी में फ़तह का पाना पतंग का।।

और जो किसी से अपनी तुक्कल को लें बचा
यानी है मांझा खूब मंझा उनकी डोर का
करता है वाह वाह कोई शोर गुल मचा
कोई पुकारता है कि ए जां कहूं मैं क्या

अच्छा है तुमको याद बचाना पतंग का …

पतंगबाज़ी दुनिया भर में अलग अलग तरीकों से की जाती रही है और इसका एक ख़ासा लम्बा इतिहास भी रहा है.

वह दिन दूर नहीं जब कम्प्यूटर और मोबाइल फ़ोनों से अभिशप्त हो चुके शहरी-क़स्बाई बचपन से पतंगबाज़ी पूरी तरह से ग़ायब हो चुकी होगी और आश्चर्य मत कीजिएगा कि आने वाले किसी दिन आपको “सेव आ’र काइट्स” नाम के किसी टीवी अभियान का विज्ञापन करता नकली लम्बू बघीरा नज़र आ गया (अल्लाहताला उसकी नकली आवाज़ को लम्बी उम्र बख़्शें लेकिन तब तक वह ज़िन्दा बचा रहा तो).

शुक्र है भारत अभी वैसा नहीं बना है जैसा अतिविज्ञापित किया जाने का सिलसिला चल निकला है मीडियाग्रस्त सनसनीपसन्द शहरी समाज में. पतंगें अब भी ख़ूब बनती हैं. पतंगबाज़ियां अब भी ख़ूब होती हैं. बाक़ायदा शर्तें लगा करती हैं. कटी हुई पतंगों के पीछे भागते बच्चों के हुजूम अब भी कम नहीं हुए हैं अलबत्ता वे इस क़दर हाशिये में फेंके जा चुके हैं कि अब शहरी और सम्भ्रान्त बन चुके या बनने को आतुर अति-मध्यवर्ग के बड़े-बुज़ुर्गों तक को उस की याद शायद ही कभी रक्षाबन्धन के दिन आ जाती हो (अगर आती हो तो).

नज़ीर की ऊपर लिखी पंक्तियों में इस वाली पर ग़ौर फ़रमाइये:

यानी है मांझा खूब मंझा उनकी डोर का

पतंगबाज़ी में अपने बचपन के सुनहरे दिन काट चुकों को मांझे का महात्म्य पता ही होगा. जिसका मांझा जितना कर्रा उतना बड़ा वो ख़लीफ़ा.

मांझा अब भी बनता है. बाक़ायदा. और खूब बनता बिकता है. बरेली के बाकरगंज का मांझा आज भी हमारे इलाक़े में बेजोड़ माना जाता है. अब देखिये शुरू से कि कैसे बनता है मांझा.

बाज़ार से ख़रीदे गए कांच को पहले तोड़ा और कूटा जाता है. बाद में चक्की पर उसका पाउडर तैयार होता है. कांच को बहुत बारीक पीसे जाने के बाद चावल के मांड और अलग अलग रंगों में मिलाकर आटे की तरह गूंदा जाता है. उसके बाद मांझा बनाने वाले अपनी उंगलियों की हिफ़ाज़त के वास्ते उन पर सद्दी लपेट लेते हैं. सद्दी की ही खिंची डोरियों पर इस गुंदे हुए कांच के आटे को ख़ास तरीके से घिसा जाता है और उसके सूखने का इंतज़ार किया जाता है.

मांझे के तैयार हो जाने के बाद उसे बांस की बनी घिर्रियों में लपेटा जाता है. यह काम भी काफ़ी मशक्कत वाला होता है और इसमें हथेलियां छिल जाया करती हैं. आखिरकार मांझे की ये ये घिर्रियाँ थोक और फुटकर में बेचे जाने के लिए दुकानों पर राखी जाती हैं. काफल ट्री के साथी फोटो-पत्रकार रोहित उमराव ले कर आ रहे हैं आपके वास्ते मांझे की कहानी –

 

बेहतरीन फोटो पत्रकार रोहित उमराव लम्बे समय तक अमर उजाला, दैनिक जागरण, दैनिक हिन्दुस्तान जैसे समाचार पत्रों में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे.  मूलतः उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के अस्धना से ताल्लुक रखने वाले रोहित ने देश विदेश की यात्रायें की हैं और वहां के जीवन को अपने कैमरे में उतारा है. फिलहाल फ्रीलान्सिंग करते हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

3 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

3 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

4 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

5 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

5 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago