गई जब रामी धोबन एक दिन दरिया नहाने को
वहाँ बैठा था चंडीदास अफ़साना सुनाने को
कहा उसने के रामी छोड़ दे सारे ज़माने को
बसाना है अगर उल्फ़त का घर आहिस्ता आहिस्ता
अमीर मीनाई की लिखी और जगजीत सिंह द्वारा गाई गयी यह मशहूर गजल भारत के हर ख़ास-ओ-आम की जुबान पर चढ़ी रहती है. इस मशहूर गजल के एक हिस्से में जिस रामी और चंडीदास का जिक्र है वे भारत की एक कम चर्चित ऐतिहासिक प्रेम कहानी के पात्र हैं.
चंडीदास राधाकृष्ण लीला साहित्य के आदि कवि माने जाते हैं. इन्हें बंगाली वैष्णव समाज में बड़ा मान प्राप्त है.
बंगाल की धरती पर पैदा हुए चैतन्य महाप्रभु से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महापुरुष महाकवि चंडीदास की ही मार्मिक गाथा से प्रेरित रहे हैं. चंडीदास ने अपनी आत्मा को प्रेम के अनंत सागर में विलीन कर दिया था. प्रेम ही उनके जीवन का सारतत्व, तपस्या और सिद्धि था. चंडीदास की पदावलियों में सर्वत्र ‘पिरीति’ अर्थात प्रिति की ही धुन सुनाई पड़ती है.
कहा जाता है कि उच्च ब्राह्मण कुल में जन्मे चंडीदास को एक गरीब परिवार की बरेठन (धोबन) जो रूहानी प्रेम हुआ, उसे उन्होंने जीवन के रहते पूरी आत्मीयता और समर्पण के साथ निभाया.
महाकवि चंडीदास का जन्म चौदहवीं शताब्दी की शुरुआत में बंगाल में वीरभूमि जिले के नान्नूर गांव में हुआ. चंडीदास के घर की आर्थिक स्थिति औसत परिवार की सी थी. उनके सीधे-सरल पिता ग्राम देवी ‘बाशुली’ के पुजारी थे. दुर्योग ने चंडीदास का बचपन लीलकर उन्हें अनाथ बना दिया. इस नन्हे अनाथ बालक को उत्तराधिकार में बाशुली का पुजारी होना हासिल हुआ.
चंडीदास अत्यंत रूपवान थे सो नवयुवतियां और स्त्रियां चंडीदास के मोहपाश में बांध जाया करती थीं. लेकिन चंडीदास को कोई भी युवती नहीं भाती थी, उनका ह्रदय किसी के लिए भी आंदोलित नहीं होता था. लेकिन भला कौन जानता है वक़्त की मुट्ठियों में क्या बंधा है. कौन सोच-कह सकता था कि आकर्षक रूपवतियों से प्रभावित तक न होने वाला यह असाधारण पुरुष एक साधारण धोबन के प्रेमपाश में ऐसा बंधेगा कि इंसानियत के लिए अनन्य प्रेम की एक मिसाल बना देगा. पहाड़ की क्लासिक प्रेमकथा : कोसी का घटवार
चंडीदास के गांव से कुछ दूरी पर तेहाई नामक एक गांव था. गाँव में एक नदी थी. इस नदी के किनारे चंडीदास अक्सर प्रकृति से एकाकार होने चल पड़ते थे. इसी पर्यटन के दौरान उन्होंने किसी रोज रामी नाम की एक धोबन लड़की को देखा. उन्होंने रामी के प्रति आकर्षण महसूस किया. वे मन ही मन इस भाव का रस लेते रहे लेकिन रामी से कुछ भी नहीं बोले.
विद्वानों और मानव व्यवहार के मर्मज्ञों का मत है कि चंडीदास और रामी का यह प्रेम रूहानी और पवित्र था. वक़्त बदला और दोनों एक दूसरे को देखने के आदी हो गए. उन्हें एक दूसरे की लत लग गयी. इसी व्यसन में रामी ने अपना धोबन का काम तक छोड़ दिया. प्रेम के वशीभूत रामी नान्नूर आ पहुंची. अब वह भी बाशुली मंदिर में झाडू-बुहारी के काम में राम गयी.
जब रामी हर क्षण चंडीदास की नजरों के सामने रहने लगी तो चंडीदास का हृदय प्रेम से लबालब रहने लगा. वे रामी के प्रेम से प्रेरित होकर नित्य नए प्रेम पदों की रचना करने लगे. उस ज़माने में मंदिर के पुजारी का किसी युवती से प्रेम लड़ाना अक्षम्य अपराध था. किसी मंदिर के पुजारी का दलित स्त्री से प्रेम सम्बन्ध…
मंदिर प्रबंधन और ग्रामीणों को जल्दी ही इस प्रेम प्रसंग की भनक लग गयी. चंडीदास पुजारी का एक अछूत कन्या से प्रेम प्रसंग. लिहाजा चंडीदास को बुरी तरह अपमानित कर मंदिर से बेदखल कर दिया गया. चंडीदास को न अपने प्रेम पर कोई अफ़सोस था न इस तरह मंदिर से बेइज्जत कर निकाले जाने का. इस घटना के बाद चंडीदास ने रामी को सामाजिक तौर पर खुलेआम स्वीकार किया.
चंडीदास ने रामी के लिए असंख्य प्रेम पद लिख डाले. इनमें से कई पद विपरीत भावों को भी कुशलता के साथ समेटे हुए हैं. एक ही कविता और कहीं-कहीं तो एक ही पद में दो भिन्न-भिन्न भावों की इस सहज अभिव्यक्ति के रहस्य को साहित्य के विद्वान तक नहीं बूझ पाए हैं.
चौतरफा निंदा के बाद भी चंडीदास ने न ही रामी को प्रेम करना ही छोड़ा न देव स्मरण. इस भाव को व्यक्त करते हुए चंडीदास लिखते हैं–
कलंकी बलिया डाके सब लोके ताहाते नाहिक दु:ख!
तोमार लागिया कलंकेर हार गलाय परिते सुख!!
यानि ‘सब लोग मुझे कलंकी कहकर पुकारते हैं पर मुझे इसका दु:ख नहीं. तुम्हारे कारण कलंक का हार भी गले में धारण करने में मुझे सुख का अनुभव मिलता है.’
प्रेम की ताकत देखिये चंडीदास की दिव्य प्रेरणा से भावपूर्ण रामी भी कविता रचने लगी.
किवदंती है कि चंडीदास और रामी दोनों ‘सहज’ मतावलम्बी होकर ‘परकीया’ धर्म में दीक्षित हो गए. सहजिया सम्प्रदाय बौध धर्म की विभिन्न शाखाओं में से एक था. रामी खुद को राधा मानते हुए चंडीदास को कृष्ण के रूप में भजती तो चंडीदास खुद को कृष्ण मानकर रामी से राधा का सूत्र बांधते.
एक ब्राह्मण युवक और अछूत कन्या की इस प्रेम कहानी से गाँव-समाज के साथ ही चंडीदास का परिवार भी चिंतित रहने लगा. उनके भाई नकुल ने अपने परिवार को इस सामाजिक कोपभाजन से बचाने के लिए चंडीदास से अनुरोध करना चाह. उसने ब्राह्मणों के लिए एक प्रीतिभोज का आयोजन कर वहां चंडीदास को भी बुलावा भेजा. नकुल ने चंडीदास से आग्रह किया कि रामी को त्याग कर समाज में पुन: शामिल हो जाओ और समाज को भोज कराकर अपने पाप का प्रायश्चित कर लो.
चंडीदास और रामी ने नकुल को समझाया कि वे दोनों दो जिस्म एक जान हैं और उन्हें अलग करने का किसी भी तरह का प्रयास सफल नहीं हो सकता. फिर भी रामी के मन की परतों में यह भय भी छिपा ही था कि परिवार के दबाव में शायद चंडीदास नकुल की बात मानकर उससे प्रीत का बंधन तोड़ लें.
चंडीदास ने नकुल की बात मानने से साफ़ इनकार तो किया लेकिन भाई की जिद के कारण ब्राह्मणों को भोजन कराने जा पहुंचे. इस बात का पता चलते ही व्याकुल रामी भागी हुई वहां जा पहुंची. रामी को इस परेशां हालत में देखकर चंडीदास भला कैसे आपे में रहते. उन्होंने पूरे गाँव-समाज के सामने ब्रह्मभोज के अवसर पर ही रामी को गले से लगा लिया. कहा जाता है कि चंडीदास के व्यक्तित्व की निर्मलता ने ब्राह्मण कट्टरपंथियों को एक अछूता को भी ब्राह्मणों के समान अधिकार देने को विवश कर दिया.
महान प्रेमी और महाकवि चंडीदास बहुत पिछड़े हुए समय में भी मानवता को जाति-धर्म से ऊपर मानने के हिमायती थे. उन्हीं के शब्दों में—
शुनो रे मानुष भाई.
सबार उपरे मानुष सत्य.
ताहार उपरे नाई.
हे मनुष्य भाई सुनो! सबके ऊपर मनुष्य सत्य है. इस सत्य से परे कोई नहीं.
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