अल्मोड़े में मेरे लिए दुनिया दो स्वरूपों में खुली, एक हॉलिडे होम की दुनिया दूसरी शेष अल्मोड़े की दुनिया. दो अलग-अलग संसार, दो अलग-अलग कैनवास जिन पर समाज ने, प्रकृति ने और खुद अल्मोड़ों ने, दो अलग-अलग तरह के चित्र खींचे. Love Story of Lalda from Almora Vivek Sonakiya
अल्मोड़े में जहां हॉलिडे होम के ऊपर बसे तकरीबन बीसेक कॉटेज के मझोले आकार के गांव में जाकर ऐसा लगता कि कोई सौ साल पहले के दौर में पहुंच गया हो, तो वहीं दूसरी तरफ उसके नीचे वाली सड़क पर से अल्मोड़ा, मुंबई के मरीनड्राइव सा लगता.
असली दुनिया का हॉलिडे होम इन दोनों काल्पनिक संसारों के बीच किसी स्थितिप्रज्ञ साधु की तरह, देवदार का लबादा ओढ़े, सस्ती पहाड़ी चरस के नशे की गिरफ्त में इकदम सैट दिखता. Love Story of Lalda from Almora Vivek Sonakiya
इस पुरानी पीली बिल्डिंग के ऊपर का संसार-जिसका एक हिस्सा हम भी थे-कहीं अधिक जीवंत, रंगीन, सहज, सरल, प्राकृत और अपेक्षाकृत कहीं अधिक ठोस था. दीन-दुनिया की अलामतों मलामतों से दूर, अपने आप में सिमटा एक छोटा सा संसार जिसमें रमेश माजिला, आमां, सुनील, निम्मी, कोहली, महापुरुष, महाकवि और हम रहते थे. इन सबके अलावा और चार छः लोग और रहते थे, पर शेष मोहल्लावासियों के लिए इनका होना, न होना बराबर था, क्योंकि वे छड़े थे जो अपने छड़ेपन को दूर करने के लिए वैधानिक उपचार न होने के कारण तात्कालिक तौर पर उपलब्ध फौरी सामाजिक साधनों की ओर उन्मुख होते. Love Story of Lalda from Almora Vivek Sonakiya
बस इसी बात पर वे सारे लड़के, शेष मोहल्ले की नजरों में, लेखक की हमदर्दी के बाद भी, खटकते रहते. विशेष तौर पर आमा की नजरों में.
इन्हीं में से एक थे लल्दा उर्फ ललित मोहन तिवाड़ी. सारे कथित ब्रह्मचारिओं में सबसे बड़े और एकमात्र नौकरीशुदा होने के कारण लल्दा, छड़ों की मठ के मठाधीश थे. लल्दा की जिंदगी में उनकी नौकरी ही केवल ऐसी थी जिसे वह अचीवमेंट समझते, बाकी उनके मुताबिक हर चीज कृष्ण मोहन तिवाड़ी की थोपी गयी थी, जो रिश्ते में उनके बाप होते थे.
गगास घाटी के पास बसे गांव बिन्ता को कुदरत ने जिन चीजों से नवाजा था, उनमें से एक ललित मोहन तिवाड़ी वल्द कृष्ण मोहन तिवाड़ी भी थे जो गगास नदी के किनारे की पगडंडियों पर साइकिल का टायर चलाते-चलाते पास के गांव बग्वालीपोखर के किसी सरकारी स्कूल से निकल उच्च शिक्षा हेतु सोमेश्वर कस्बे में अपने पिता द्वारा स्थापित किये गये.
बिंता के लड़के का पढ़ने को सोमेश्वर आना, एक सामाजिक क्रांति का घटित होना था क्योंकि कृष्ण मोहन तिवाड़ी का पूरा का पूरा कुनबा घर रानीखेत पढा था.
इस सामाजिक क्रांति का पहला उद्घाटन लल्दा के सामने चरस की भरी हुई सिगरेट के रूप में हुआ, जिसके चक्कर में लल्दा दो दिन तक अपने कमरे में चारपाई पर औंधे पड़े मुंह से लार गिराते रहे. दो दिन की घूमघाम के बाद लल्दा की आत्मा जब उनके शरीर में दोबारा घुसी तो शरीर का पुर्जा-पुर्जा किसी मार खाये आंदोलनकारी की तरह दर्द से कराह रहा था, पर उनकी आंखों में एक चमक थी जो चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कि-
“अब ललित मोहन तिवाड़ी, कृष्ण मोहन तिवाड़ी की कैद से मुक्त हो चुके हैं. दूसरा सोमेश्वर घाटी की लड़कियों सावधान हो जाओ, बिनता के जंगलों से पिंडारियों के गिरोह का सरदार छूट चुका है, अब उसे मोहब्बत की तलाश है, वह किसी भी कीमत पर मोहब्बत करेगा, नहीं मिलेगी तो छीनेगा, नहीं छीन पाया तो पहले पत्थर मारकर मोहब्बत का सिर फोड़ देगा फिर उसके ऊपर चढ जाएगा और अपनी विजय का ऐलान करेगा, दहाड़ कर, गुर्रा कर, गले से चील कव्वों की आवाज निकाल कर. उसे मोहब्बत करनी होगी क्योंकि अब वह सत्रह साल का हो चुका है, उसकी छाती पर बाल आ रहे हैं, उसकी मूछें उग रही हैं, उसकी आवाज भारी हो रही है, वह जवान हो रहा है, वह अपनी जवानी सोमेश्वर की सड़कों पर दौड़ लगाते-लगाते बर्बाद नहीं कर सकता, उसे मोहब्बत करनी होगी, वह हर हाल में मोहब्बत करके दम लेगा.” Love Story of Lalda from Almora Vivek Sonakiya
ललित मोहन तिवाड़ी उर्फ लल्दा को इस पॉइंट पर एक संदेह हो रहा था कि कहीं साले राधे उप्रेती की बातों में जहर घुला है या इस भरी हुई सिगरेट में कुछ गड़बड़ थी. उसे अभी भी शरीर में एक सनसनाहट सी महसूस हो रही थी जिसकी गर्मी कानों की लौ तक को लाल कर रही थी. लल्दा ने इस कन्फ्यूजन में थोड़ी देर और सोना उचित समझा.
पहले की स्थिति और अब की स्थिति में फर्क सिर्फ इतना था कि दो दिन तक औंधे पड़े लल्दा ने अब सीधा होकर किसी तरह से चादर ओढ़ ली थी.
इस घटनाक्रम के ठीक दो दिन बाद लल्दा ने अपने आप को जमीन पर खड़े, दोनों हाथों को टांगों के बीच से निकलते हुए अपने कानों को पकड़े पाया और सिर, जो कि उस समय शरीर का सबसे भारी हिस्सा था आसमान की तरफ न पाकर जमीन की तरफ पाया. कुल मिलाकर लल्दा ने अपने आप को मुर्गा बना पाया, कृष्ण मोहन तिवाड़ी के सामने.
पिंडारी गिरोह के सरदार का लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा दमन कर उसके मोहब्बतनामे में भूसा भरा जा चुका था, छाती के बाल अब कहीं मुंह छुपा रहे थे, क्योंकि सामने लल्दा के सारे अवयवों का मूल स्रोत यानी बाप सामने जो खड़ा था और जब तक लल्दा को होश आता तब तक लल्दा की कायदे से ठुकाई हो चुकी थी, उनकी खाल में भूसा भरकर उनको मुर्गा बना दिया गया था.
कानों में संस्कृत, कुमाऊनी, अंग्रेजी की खिचड़ीनुमा गालियां घुस रही थीं पर सस्ती चरस के चक्कर में वह अभी भी मगज से संपर्क नहीं कर पा रही थी.
कुल मिलाकर लल्दा की जवानी के मोहब्बतनामे का जुलूस निकल चुका था. यह जुलूस उस दिन देर शाम तक निकाला गया. उनके पैदा होते ही नुवान (एक प्रकार की जहरीली दवा) न पिलाए जाने के कारण छाती पीटी गई, कपूत के पैदा होने पर कृष्ण मोहन तिवाड़ी ने मसान की पूजा न कर पाने और जाने क्या-क्या और किस-किस को कोसा. उनका आर्तनाद अभी बंद नहीं हुआ था कि राधेमोहन उप्रेती बगल में बरमूडा रम की बोतल दबाए हुए कमरे में दाखिल हुआ, कमरे का सीन देख सर पर पांव रख कर उल्टा भागा, कि कहीं वह दूसरे के घर में तो नहीं घुस गया?” पर दूसरे के घर में तिवाड़ी क्यों ठैरा और और तिवाड़ी का लौंडा क्यों हुआ वहां जो. साला आजकल बाजार में ढंग का माल भी तो नहीं आ रहा है, उसी के चक्कर में कहीं का कहीं घुस गये, अभी जूते पड़ते तो“.
राधे यूं तो बिन्ता का ही रहने वाला था पर वह अक्सर पूरी गगास घाटी में किसी भूत की तरह मंडराता मिलता, लोकल पूर्व विधायक का मुंह लगा राधे, ललित मोहन तिवाड़ी एवं कृष्ण मोहन तिवाड़ी दोनों का समान रूप से दम दोस्त था. पूरे गांव को टोपी पहना कर टामा देने वाला उप्रेती जिस कला के कारण पूरे बिनता, बग्वालीपोखर, गगास घाटी में प्रसिद्ध था वह थी जवान होते लड़कों को जवानी के सपने दिखाकर शेर बनाने और फिर शिकार करने की कला सिखाना.
खैर राधे ने कमरे में दोबारा घुसते ही बड़े तिवाड़ी को मां बहन की आधा दर्जन गालियों से दुत्कारा और फटाक से दो गिलास रम के बना लिए. पिटाई कार्यक्रम अब नए आयाम ले चुका था. तोहमतों और मारपीट का समूहगान बंद हो चुका था, माहौल में एक अश्लीलता व्याप्त हो चुकी थी. वहां एक तरफ मार खाया जवान बेटा था तो दूसरी तरफ बुढ़ापे में शिलाजीत की दम पर कमर लपलपाने वाला बाप और उसका चरसी ठरकी दोस्त. अब यह बरमूडा का कमाल था या चरस का खुद लल्दा की समझ से बाहर था.
थोड़ी ही देर में बोतल दो तिहाई के लगभग खाली हो चुकी थी. कमरे से प्रस्थान करने की वेला आ गई थी. जाते-जाते राधे ने लल्दा को आंख मारी जिसका आशय लल्दा बखूबी समझते थे.
इसी तरह अपनी खाल में भूसा भरवाते, सस्ती चरस पीते-पीते और मुर्गा बनते-बनते लल्दा पूरे जवान हो चुके थे. पिंडारियों को ऐसा दमन हुआ कि वह दोबारा सोमेश्वर का रुख नहीं कर पाए. अलबत्ता लल्दा जरूर उच्च शिक्षा के लिए अल्मोड़ा कूच कर चुके थे क्योंकि सोमेश्वर में बिताए गए चार सालों में ललितमोहन तिवाड़ी है अच्छी तरह समझ चुके थे कि बेटा कृष्ण मोहन तिवारी से पीछे छोड़कर यह जीना है तो आगे बढ़ और कुछ बन कर दिखा ताकि अपनी मर्जी का शिकार कर सके और उसे बिना किसी डर भय के किसी का एहसान लिये खा सके. क्योंकि अपनी खुद की काबिलियत से पैदा मोहब्बत का अपना मजा होता है. नहीं तो साला दो साल लग जाते हैं खेत बनाने में और फिर एक दिन कोई पढ़ा लिखा डाक्टर इंजीनियर, मास्टर आकर फसल के साथ साथ खेत भी हथिया लेता है. Love Story of Lalda from Almora Vivek Sonakiya
लल्दा अब अल्मोड़ा आ चुके थे. महाविद्यालय में दाखिला लेकर वह अब एक नई दुनिया का हिस्सा बन गए. यह सोमेश्वर नहीं अल्मोड़ा था यहां लल्दा अब ललित मोहन बन चुके थे, मोहन को सिंगल इनवर्टेड कॉमा में बंद किया जाने लगा था. तिवाड़ी जो पिछले पांच सालों से नाम के पीछे दुमछल्ले की तरह लगा था पहले तिवारी बाद में त्रिपाठी में बदल दिया गया फिर कुछ समय बाद गायब कर दिया क्योंकि उससे ललित मोहन का मार्केट सीमित होने का खतरा पैदा हो रहा था.
यह रूपांतरण एक नए अवतार की कहानी लिख रहा था, एक नया चरित्र गढ़ रहा था, अब घंटे की जगह पीरियड, होमवर्क की जगह असाइनमेंट थे, चरसी गुरुजी की जगह स्मार्ट प्रोफेसर थे जो बीड़ी तक नहीं पीते थे. अब पढ़ने के लिए किताब के साथ साथ जर्नल और रिसर्च पेपर थे. घूमने को अच्छी सड़कें, ताड़ने को अच्छी लड़कियां, सिनेमा, पान, सिगरेट और तो और पीने को बरमूडा से अच्छी शराब भी थी.
बिंता बग्वालीपोखर की चरस ने कोसी पुल तक आते-आते दम तोड़ दिया था. लल्दा अब ललित मोहन तिवारी वाले फेज़ में थे. बिनता की सीमा छूट चुकी थी अल्मोड़ा अपने नए संसार के साथ हाथ फैलाए इंतजार कर रहा था. बिल्कुल शाहरुख खान की स्टाइल में. क्लासेस शुरू हो चुके थे पर उन्हें थोड़ा वक्त लगा अल्मोड़े की स्पीड से तालमेल बैठाने में
अल्मोड़े में एक सर्द अंधेरी रात में किसी औसत दर्जे की अंग्रेजी शराब के नशे में आत्मतत्व को प्राप्त लल्दा अपने मुंह से गोपाल बाबू गोस्वामी का कोई पहाड़ी जोड़ा (एक प्रकार के कुमांयनी लोकगीत) गला फाड़कर गाते हुए चले जा रहे थे कि उन्हें अचानक लगा की सड़क अचानक पहाड़ पर जाने की बजाय आसमान की तरफ मुड़ गई अब सामने घर, मकान, पेड़ों की जगह खिले खिले तारे दिख रहे हैं एकदम उजला धवल आसमान, सितारों से जगर मगर.
काफी देर तक सितारों की तरफ कदम बढ़ाने पर जब कोई सितारा लल्दा के करीब तक भी न पहुंचा कि तभी उन्हें अपनी पीठ पर कुछ गीलापन महसूस हुआ. लल्दा ने खींचकर एक दुलत्ती लगाई तो उन्हें अपनी आंखों के सामने कभी पेड़, कभी सितारे दिख रहे थे तभी उन्हें अचानक ख्याल आया कि वे सड़क के किनारे बने एक गड्ढे में गिरे पड़े हैं. लल्दा की आकाश यात्रा का पटाक्षेप हो गया था. लल्दा को जहां कुछ देर पहले तारे ही तारे नजर आ रहे थे तो अब उन्हें पेड़, पौधे, जमीन, जंगल सब नजर आने लगा. अब वह गड्ढे के किनारे बैठ चुके थे टांगे खड़ी होने से इंकार कर रही थी और ठंड थी कि चलो भागो का ऐलान कर रही थी, यह जद्दोजहद चल ही रही थी लल्दा के कानों में किसी लड़की की आवाज पड़ी. लड़की की आवाज कानों में पड़ते ही वह कूदकर खड़े हो चुके थे, नशा हिरन हो चुका था.
कांपती टांगे, बिखरे बाल, लार से सना चेहरा, गीले कपड़े, लल्दा में भूसा भरे जाने को बयान कर रहे थे. अंधेरे में लड़की का चेहरा उन्हें साफ साफ नजर नहीं आ रहा था. पर वह इतना हंड्रेड परसेंट आश्वस्त थे कि वह थी कोई लड़की ही. तभी उन्हें अपने कंधे पर किसी नरम मखमली स्पर्श की गर्मी महसूस हुई. लल्दा अब पूरे होश में आ चुके थे. बस उनकी जुबान और उनकी टांगे उनके काबू में नहीं थी. और वे उनका कहा तो मान ही नहीं रही थी. कुल मिलाकर उस अंधेरी रात में लल्दा किसी “भूल“ हो जाने का इंतजार करते करते अपने कमरे पर पहुंच गए. उन्हें पूरे रास्ते में वह चेहरा तो नहीं दिखा, बस बालों में लगे किसी अंग्रेजी तेल की और जी भर के डाले गए परफ्यूम की गंध पूरे रास्ते उनका संतुलन बनाए रही. पूरे रास्ते एक हल्का नरम मखमली एहसास जो एक सहारा बनता दिख रहा था उन्हें गिरने से रोके रहा. Love Story of Lalda from Almora Vivek Sonakiya
घटना की अगली सुबह जब लल्दा की नींद खुली, तो वह काफी डरे हुए थे क्योंकि उनके गीले गंदे कपड़े एक कोने में पड़े थे और वह साफ-सुथरे कपड़े पहने बिस्तर में घुसे दफ्न थे, सर दर्द के मारे फटा जा रहा था, कंधे पर हल्की-हल्की खुशबू अभी भी आ रही थी. डर के मारे लल्दा पसीने पसीने थे. दो दिन बाद जब वह क्लास में पहुंचे तो उन्हें हर लड़की में रात वाली अनाम नायिका नजर आ रही थी. वह अयाचित सहारा ढूंढते ढूंढते ललित मोहन तिवारी आठ साल में मोहन सर हो गए थे. नेम प्लेट के नीचे नाम के अलावा पीएचडी और दो-तीन उपाधियां और जुड़ चुकी थी. पर उस रात से आज तक लल्दा उसी रात का वही सहारा खोज रहे हैं, कभी-कभी कोई सहारा देते देते उन्हें हॉलिडेहोम में उनके कमरे तक छोड़ जाता है पर चेहरा आज भी नहीं दिखता, और अब वह चेहरा देखने की फिलासफी में यकीन भी नहीं रखते. लल्दा की प्रेम कहानी की नायिका की तलाश बदस्तूर आज तक जारी है. इधर आमां उन्हें रंगे हाथ दबोच को तैयार बैठी है.
-विवेक सौनकिया
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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क्या गज़ब का लिखाते हैं सर।मैं तो आपका मुरीद हो गया हूँ
बहुत सुंदर चित्रण है सभी पात्र सहजता से स्वयंम को अभिव्यक्त करते हैं कहानी का शिल्प लोक रंजक शैली सरलता से प्रवाहित होती हुई अतीत के चित्र उकेरती हुई स्वतह आगे बहती है साधुवाद अच्छी रचना के लिए
अल्मोड़िया चाल का माहात्म्य यह बात कुछ जमी नहीं । यद्यपि मैं स्वयं अल्मोड़ा मूल से हूँ लेकिन धूर्तता को एसे विशेषणों का आवरण पहनाकर महिमामंडित करना , मनुष्य के अंदर संभावित wisdom का निरादर है ।