बटरोही

लॉक डाउन के दिनों में सुल्ताना डाकू और जिम कॉर्बेट की धरती पर बने अपने फार्म हाउस में

आजकल मैं अपने गाँव फतेहपुर में हूँ. हल्द्वानी से सात किलोमीटर दूर कालाढूंगी रोड में नया उभरता हुआ एक क़स्बा है फतेहपुर. आज से पचास-साठ बरस पहले यह जगह क़स्बा तो क्या, गाँव भी नहीं थी. जिम कॉर्बेट ने अपनी किताबों में इस जगह का कई जगह जिक्र किया है, खासकर अपने बचपन के दिनों की घुमक्कड़ी और अपने भाई टॉम के साथ किये गए शिकार के प्रसंग में. Lockdown Memoir by Batrohi

कालाढूंगी में कॉर्बेट का पैतृक घर था जो रामनगर-हल्द्वानी-नैनीताल तिराहे पर आज भी ‘कॉर्बेट-म्यूजियम’ के रूप में पर्यटकों का एक लोकप्रिय आकर्षण है. इसी जगह पर जिम कॉर्बेट ने एक गाँव बसाया था, जो ‘छोटी हल्द्वानी’ के नाम से प्रसिद्ध है. 1930 के आसपास उन्होंने इस जगह से करीब आठ मील दूर घने जंगल के बीच अपनी देख-रेख में एक डाक-बंगला बनवाया था जो फतेहपुर के फारेस्ट रेस्ट हाउस के नाम से प्रसिद्ध है. मूल फतेहपुर गाँव तो इसके उत्तर में स्थित है मगर इन दिनों डाक बंगले के बगल से गुजरने वाले हल्द्वानी-रामनगर मुख्य मोटर मार्ग के किनारे बसे कुछ खेतों-घरों को, जिन्हें सरकारी बहियों में ‘पीपल पोखरा’ के नाम से पुकारा जाता था, ‘फतेहपुर’ कहा जाने लगा है. मूल फतेहपुर गाँव को तो लोग भूल गए, आज पीपल पोखरा ही फतेहपुर के नाम से प्रसिद्ध हो गया. Lockdown Memoir by Batrohi

आज से करीब सत्तर साल पहले मेरे पिताजी ने अपने पांच सगे-चचेरे भाइयों के साथ मिलकर इसी पीपल पोखरा में सौ रुपये बीघा के हिसाब से जमीन खरीदी और मलेरिया-ग्रस्त इस डरावने इलाके में बस गए. जिस मकान और उससे जुड़ी जमीन को हमारे पुरखों ने खरीदा, उस मकान में एक औरत रहती थी जिसे लोग ‘पधानी’ नाम से पुकारते थे. इस औरत के बारे में कहा जाता था कि वह तराई में आतंक के पर्याय सुल्ताना डाकू की प्रेमिका थी. कहा तो यह भी जाता था की इस भूमि में सुल्ताना का खजाना दबाया हुआ है, जो अभी तक हमारे बिरादरों में से किसी को नहीं मिला. पता नहीं इस किम्वदंती में कितनी सच्चाई है, मगर अब तो सभी भाइयों और उनकी संतानों ने ज्यादातर जमीन आवासीय प्लॉटों के रूप में बेच डाली है. Lockdown Memoir by Batrohi

मगर मुझे पुरखों की इस विरासत में सुल्ताना डाकू ने नहीं, जिम कॉर्बेट ने आकर्षित किया. कॉर्बेट ने अपनी विश्व-विख्यात पुस्तक ‘मेरा हिंदुस्तान’ (My India) में अपने बचपन के संस्मरणों में इस इलाके का विस्तार से बेहद मार्मिक चित्रण किया है. आजकल फतेहपुर के अपने गाँव में मैं जिम कॉर्बेट की किताबों को पढ़ रहा हूँ, जो बचपन से ही मेरी प्रिय किताबों में हैं.

अपने पैतृक घर नैनीताल के गर्नी हाउस के पास स्थित चीना पहाड़ी से अपने भाबर के गाँव के इलाके का चित्र खींचते हुए जिम लिखते हैं : “अब बर्फ के पहाड़ों की तरफ आप पीठ कर लीजिये और चेहरा दक्षिण की तरफ. अपनी दूर निगाह की आखिर हद पर तीन शहर आपको दिखाई देंगे – बरेली, काशीपुर और मुरादाबाद. इन तीन शहरों में काशीपुर हमारे सबसे नजदीक है और यदि कव्वे की उड़ान से हम आसमानी दूरी मापें तो यह हमसे पचास मील दूर है. रेलवे लाइन और इन पहाड़ियों के बीच की जमीन तीन किस्म की पट्टियों में बंटी हुई है. पहली पट्टी में खेती-किसानी होती है और यह करीब बीस मील चौड़ी है. दूसरी पट्टी घास की है. करीब दस मील चौड़ी इस पट्टी को तराई कहा जाता है और तीसरी पट्टी भी दस मील चौड़ी है जिसे भाबर कहा जाता है. भाबर पट्टी सीधे निचली पहाड़ियों तक फैली हुई है. इस पट्टी में साफ किये गए जंगलों की उपजाऊ जमीन को सींचने के लिए कई नदी-नाले हैं और इस पट्टी में छोटे-बड़े कई गाँव बस गए हैं.”

मेरा गाँव ‘पीपल पोखरा नंबर दो’ (फतेहपुर) कॉर्बेट की जन्मभूमि इसी पट्टी में है.

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इसे भी पढ़ें: सदियों से कुछ कहना चाहती है लछिमा – बटरोही की कहानी

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फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन. 

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