भारत की संस्कृति में हिमालय का महत्वपूर्ण स्थान है. कालिदास साहित्य में हिमालय देवताओं की आत्मा और सत्यं शिवम् सुंदरम के रूप में मिलता है तथा उनके काव्य में कुमाऊं के कतिपय स्थलों का सजीव चित्रण मिलता है, जो कवि के इस क्षेत्र के व्यापक ज्ञान के द्योतक हैं. हिमालयी गंगा, यमुना, सिन्धु की पावन धाराओं को ही स्त्रोत रहा, अपितु काव्य प्रेरणा, ललित-कलाओं का प्रेरणा स्त्रोत भी है. वह हमारी शान्ति का रक्षक एवं उत्तरी सीमा का प्रहरी भी रहा है. हिन्दू धर्म के पवित्र धार्मिक स्थल – गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ, कैलाश, मानसरोवर आदि इसी के गर्भ में यहां की प्रत्येक कन्दरा, प्रत्येक शिला और प्रत्येक शिखर किसी न किसी ऋषि-मुनि की तपोभूमि रही है. इसी पावन भूमि पर युग-युग के महान तत्व चिंतकों द्वारा प्राचीन वेद, पुराण, उपनिषद्, ब्राह्मण आदि बहुशाखा सम्पन्न संस्कृति पल्लवित हुई है. इसी भूभाग के मध्यवर्तीय क्षेत्र को कूर्मांचल कहते हैं. स्वयं कूर्मांचल नाम पौराणिक है, जिसका सम्बन्ध कुर्मावतार से हैं.
(Literature of Kumaon)
भारत की संस्कृति में हिमालय का महत्वपूर्ण स्थान है. कालिदास साहित्य में हिमालय देवताओं की आत्मा और सत्यं शिवम् सुंदरम के रूप में मिलता है तथा उनके काव्य में कुमाऊं के कतिपय स्थलों का सजीव चित्रण मिलता है, जो कवि के इस क्षेत्र के व्यापक ज्ञान के द्योतक हैं. हिमालयी गंगा, यमुना, सिन्धु की पावन धाराओं को ही स्त्रोत रहा, अपितु काव्य प्रेरणा, ललित-कलाओं का प्रेरणा स्त्रोत भी है. वह हमारी शान्ति का रक्षक एवं उत्तरी सीमा का प्रहरी भी रहा है. हिन्दू धर्म के पवित्र धार्मिक स्थल – गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ, कैलाश, मानसरोवर आदि इसी के गर्भ में यहां की प्रत्येक कन्दरा, प्रत्येक शिला और प्रत्येक शिखर किसी न किसी ऋषि-मुनि की तपोभूमि रही है. इसी पावन भूमि पर युग-युग के महान तत्व चिंतकों द्वारा प्राचीन वेद, पुराण, उपनिषद्, ब्राह्मण आदि बहुशाखा सम्पन्न संस्कृति पल्लवित हुई है. इसी भूभाग के मध्यवर्तीय क्षेत्र को कूर्मांचल कहते हैं. स्वयं कूर्मांचल नाम पौराणिक है, जिसका सम्बन्ध कुर्मावतार से हैं.
मध्य युग में सिन्ध के अमीर राजस्थान के राजपूत, सौराष्ट्र के गुर्जर, महाराष्ट्र ब्राह्मण, बंगाल के पाल, कर्नाटक के संगीतज्ञ, कन्नौज के ब्राह्मण किसी न किसी कारणवश इस क्षेत्र में जाकर बस गए. इसलिए आज का कूर्मांचल सम्पूर्ण भारत की संस्कृति का एक समन्वित रूप है. वैदिक काल में यहां अनेक सम्मेलनों का विस्तृत उल्लेख मिलता है जिसमें भारद्वाज ऋषि की अध्यक्षता में लगभग पचास तत्त्वान्शेषी आयुर्वेद-सम्मेलन में एकत्र हुए थे. कूर्मांचल की यह विद्वत् परम्परा प्राचीन काल से ही अनवरत रूप से चली आ रही है. जो आगे चलकर संस्कृत, कुमाऊनी, हिन्दी और अंग्रेजी – चार धाराओं में प्रवाहित हुई है.
संत्कृत वाडऽय की वृद्धि में भी कूर्मांचलीय पंडितों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. संपूर्ण भारत कूर्मांचलीय पंडित, वैयाकरण, ज्योतिषाचार्य एवं आयुर्वेदाचार्य विख्यात रहे हैं. कई भारतीय नरेशों के राजदरबारों में राजगुरु के रूप में कुमाऊनी पंडित सम्मानित हुए हैं. चन्द्रवंशीय राज्यकाल में भारतीय विद्वानों का प्रचुर उल्लेख मिलता है. जो इस प्रदेश की विद्वान् परंपरा एवं प्रकांड पांडित्य के द्योतक है. जगन्नाथ पन्त, देवीदत्त पांडे लोकरत्न पंत गुमानी, पुरुषोत्तम पंत आदि ने संस्कृत में काव्य सजृन किया जिसमें भक्तिरस विशेष रूप से प्रवाहित हुई है. महामहोपाध्याय नित्यानन्द (पट्शास्त्री) पं० तारादत्त पंत, पं० केशवदत शास्त्री, ए० देवीदत्त जोशी, पं. चंद्रा शास्त्री आदि विद्वानों ने संस्कृत साहित्य का भंडार समृद्ध किया. वैयाकरणाचार्य में हरिवल्लभ पंत, नित्यानंद पंत और प्रो. मोहन वल्लभ पन्त का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने व्याकरण जैसे क्लिष्ट विषय को पाठकों के सम्मुख रखा.
हिन्दी के विकास में भी कूर्मांचलीय साहित्यकारों का महान योगदान रहा है. भारतेन्दु काल से 100 वर्ष पूर्व गुमानी कवि की खड़ीबोली की रचनाएं आज भी अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं इसके बाद कवि रूप में शिवदत्त सती, गौरीदत्त पांडे का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने खड़ी बोली को काव्य का रूप दिया.
आधुनिक काल के कवियों में युग द्रष्टा कवि सुमित्रानन्दन पन्त सर्वोपरि हैं. ये छायावाद के पोषक, प्रगतिवाद के जनक और अरविन्द दर्शन के महान् चिन्तक हैं. कूर्मांचल के हिन्दी कवियों ने आज तक महाकाव्य की रचना नहीं की थी. कविवर पन्त के “लोकायतन” महाकाव्य से इस अभाव की पूर्ति हो गई है. श्रीमती तारा पांडे ने अपने काव्य में निराशा एवं वेदना की धारा प्रवाहित की. स्वच्छंदवादी कवियों में जीवन प्रकाश जोशी, विनोद चन्द्र पांडे, कान्ति त्रिपाठी, प्रदीप पन्त आदि का नाम उल्लेखनीय है. कथा-साहित्य क्षेत्र में स्वर्गीय लक्ष्मीदत्त जोशी कूर्मांचल के प्रथम उपन्यासकार हैं. इन्होंने सीमान्त प्रदेश कूर्मांचल की समस्याओं पर आधारित “जवा कुसुम” उपन्यास बीसवीं सदी के प्रथम दशाब्दी में लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद से प्रकाशित किया था. एक अधूरा उपन्यास अभी अप्रकाशित पड़ा है. इलाचन्द्र जोशी ने हिन्दी कथा साहित्य में मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का प्रतिपादन सर्वप्रथम किया. लज्जा, संन्यासी, पर्दे की रानी, प्रेत और छाया इनकी श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक औपन्यासिक कृतियां है. गोविन्दवल्लभ पन्त ने लगभग दो दर्जन उपन्यास लिखकर हिन्दी साहित्य भंडार की श्री वृद्धि की है. इन्होंने सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, प्रतीकात्मक सभी प्रकार के उपन्यास लिखे है. मदारी, जूनिया, प्रतिमा, नूरजहां, नौजवान, तारिका, एकसूत्र, अमिताभ, मैत्रेय, फारगेट मी नाट, कागज के फूल, आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं. यमुनादत्त वैष्णव ने दोपहर को अंधेरा, शैलवधू उपन्यासों में समाज में व्याप्त कुरीतियों, भ्रष्टाचार का चित्रण कर एक आदर्श समाज की कल्पना की है. शैलेश मटिमानी ने ‘बोरीवली से बोरीबन्दर तक, कबूतरखाना और किस्सा नर्मदा बेन गंगूबाई’ में बम्बइया जीवन के वक्ष पर सामाजिक अनाचार, अत्याचार के फोड़े की सत्य-चिकित्सा बड़ी कुशलता एवं प्रभावोत्पादक ढंग से की है. कुमाऊं के जन-जीवन की पृष्ठभूमि पर चिट्ठी, हौलदार, एक मूंठ सरसों, बेसा हुई अबेर आदि लिखी हैं. इसी नव प्रचलित शैली “आंचलिक” के कथाकारों में शैलेश मटियानी, शिवानी, हिमांशु जोशी, जगदीशचन्द्र पांडे, बलवन्त मनराल आदि उल्लेखनीय हैं.
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शैलेश मटियानी का प्रभाव तो उनके उत्तरवर्ती कथाकारों पर इतना पड़ा है कि नई पीढ़ी के कथाकारों की कृतियां पढने से अगर कथा साहित्य में इसे मटियानी युग कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी. भाव, भाषा, शैली, कथावस्तु चयन आदि सभी पर मटियानी का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है. कूर्मांचल के साहित्यकारों में इतने प्रभावी कथाकार शैलेश मटियानी है जिन्होंने यहां के सभी कथाकारों को एक ही धारा में मोड़ दिया है.
नाटक साहित्य का सृजन कुर्मांचल में बहुत कम हुआ. इस क्षेत्र में गोविन्दबल्लभ पन्त ने कई नाटकों की रचना की है इनके नाटकों में वरमाला, राजमुकुट, अन्तःपुर का छिद्र, ऐतिहासिक नाटक ययाति – पौराणिक और कंजूस की खोपड़ी, अंगूर की बेटी, सुहाग बिन्दी, सुजाता सामाजिक नाटक अत्यन्त लोकप्रिय हैं. पन्त के नाटकों में सबसे बड़ी विशेषता उनकी रंगमंचीयता है. इनके कथोपकथन सरस, छोटे-छोटे, आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक होते है जो साधारण से साधारण मंच पर बड़ी सुविधा से खेले जा सकते हैं. सुमित्रानन्दन पन्त जी ने अपने नाटक “ज्योत्स्ना” में एक स्वर्गिक आत्मा का अवतरण विश्व की मंगलकामना के लिए की है. इसके अतिरिक्त इन्होंने कई रेडियो रूपक भी लिखे हैं जिनमें रजत शिखर, शिल्पी, सौवर्ण आदि लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध है.
आलोचना क्षेत्र में प्रो. मोहनवल्लभ पन्त का नाम अग्रणीय है. प्रो. पन्त के आलोचना सिद्धान्तों एवं प्रक्रिया पर इनके गुरुवर लाला भगवानदीन एवं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट प्रभाव है. हिन्दी साहित्य के गुटबन्दी पूर्ण जगत् में मूर्द्धन्य आलोचक सदैव तटस्थ रहे और इन्होंने साहित्य को गुटवन्दी की पंक्तिलता से सदैव मुक्त रखा है. तुलसी का अलंकार विधान, रस विमर्श, भारतीय नाट्यशास्त्र और रंगमंच, आलोचना शास्त्र, नहुष का स्वाध्याय, सूर पंचरत्न और दोहावली आदि गम्भीर एवं विद्वत्तापूर्ण कृतियों से हिन्दी साहित्य की अमुल्य सेवा की. अनुसंधानात्मक साहित्य में डा. हेमचन्द्र जोशी, डा. अम्बादत्त पन्त, डा. त्रिलोचन पांडे का कार्य प्रशंसनीय रहा है. वर्तमान में भी अनेकों प्रतिभाएं हिन्दी साहित्य की सेवा सक्रिय रूप से कर रही हैं और विभिन्न क्षेत्रों में समय, स्थिति और वातावरण के अनुसार सजग होकर कार्यरत हैं.
लोक साहित्य की ओर कुमाऊनी विद्वानों का ध्यान यद्यपि उपेक्षणीय न रहा अपितु उचित प्रोत्साहन के अभाव में वह वहां की गिरि-कन्दराओं और उपत्यकाओं तक सीमित रहा. कूर्मांचलीय भाषा अन्य लोक भाषाओं से कम समृद्ध नहीं. इसका साहित्य भंडार अत्यन्त समुद्ध हैं. कूर्मांचल के लोक साहित्य का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना वहाँ के संस्कृत साहित्य का. प्रकाशित रूप में हमें कविवर गुमानी की ही रचनाएं मिलती हैं इससे पूर्व की रचनाएं नहीं मिलती. सम्भवतः इससे पूर्व के लोकगीत आदि परम्परागत रूप में मौखिक ही चलते आए हो.
कुमाऊनी बोली पर केलाग, ग्रियर्सन आदि विद्वानों ने बड़ा कार्य किया है. भारतीय विद्वानों में सर्वप्रथम गंगादत्त उप्रेती का ध्यान उधर गया. कुमाऊनी में साहित्य सृजन कब से हुआ है यह अलग विषय है. किन्तु कुमाऊनी साहित्य की मौखिक परम्परा तो अतीत काल से चली आ रही है. प्राचीन वीरगाथाएं, परियों की कहानियां, पशु-पक्षियों की कहानियां, जादू-टोना, धार्मिक, पौराणिक, वैदिक और देवी-देवताओं की कथाएं और कौरव-पांडवों की कहानी तथा शिव-पार्वती और हिमालय के गीतों की. इस परम्परागत मौखिक साहित्य को शैलेश मटियानी ने कुमाऊं की लोक-कथाओं के 12 भागों में संग्रह कर वहां की संस्कृति का उद्वार किया. देवी देवताओं के अवतरण एवं पूजन तथा सांस्कृतिक गीतों को अपनी रचना “बेला हुई अबेर” और “मुख सरोवर के हंस” में ग्रहण कर स्तुत्य कार्य किया है. कुमाऊनी लोक संस्कृति सम्पन्न साहित्य को स्थायी साहित्य के रूप में प्रस्तुत करने में आज तक केवल एक ही लेखक शैलेश मटियानी का प्रयास रहा है. ओकले के अनुसार हिमालय के साहित्य की अपनी विशेषताएं है. उन्होंने कुमाऊनी साहित्य को अपने जन्मदाता हिमालय की ही भांति पवित्र और रहस्यपूर्ण माना है. मटियानी ने ऐसे साहित्य को अपना प्रश्रय प्रदान कर उसे अमर बनाया है. कुमाऊनी में लिखित साहित्य की परम्परा 16वीं शताब्दी से मिलती है और यह परम्परा अपने प्रथम कवि गुमानी पन्त से लेकर आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है.
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प्राचीन काल में कुमाऊनी में बहुत कम रचनाएं सामने आयीं. किन्तु इस काल को अपनी अलग परिस्थितियां, परम्पराएं और विशेषताएं रही हैं. कुमाऊनी के प्रथम कवि गुमानी पंत से इसका आरम्भ माना जा सकता है. इस काल में गोरखा राज्य के बाद अंग्रेजी राज्य की स्थापना हो चुकी थी. अंग्रेजी राज्य की बुराइयों और त्रुटियों पर कवि ने रोष प्रकट किया. राष्ट्रीय भावना प्रबल रूप मे स्पष्ट होने लगी. गुमानी ने कुमाऊं की प्रकृति, वहां के जीवन और समाज का सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया. उन्होंने काफल और हिसालू की सरसता और दाड़िम, केले के मिठास को कुमाऊनी साहित्य में समेटा. इनका दृष्टिकोण प्रकृति के प्रति संवेदनशील रहा है. सामाजिक चित्रणों में इनकी कविता व्यंग्य और विनोद प्रधान है. इन्होंने नीति और उपदेश की बातें भी लिखीं. उनकी कविताओं के संग्रह “गुमानी नीति” और “गुमानी विरचित काव्य संग्रह” के नाम से प्रसिद्ध है.
कृष्ण पांडे नामक लोक कवि गुमानी जी के समकालीन थे जो अपने व्यंग काव्य के लिए प्रसिद्ध हैं. इनके काव्य में ब्रिटिश सरकार पर कटु व्यंग्य प्रहार किया गया है. भैरवदत्त जोशी ने दुर्गा (चन्डी) पाठसार पुस्तक का कुमाऊनी में अनुवाद किया. गंगादत्त उप्रेती ने अनेक पुस्तकें लिखी. ज्वालादत्त जोशी ने दशकुमारचरित का अनुवाद कुमाऊनी पद्यों में किया. अतः इस काल में मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त अनूदित रचनाओं ने भी कुमाऊनी साहित्य को समुद्ध किया. गौरीदत्त पाण्डेय की रचनाओं में हास्य का अधिक पुट रहा. इनके हास्य रस में तत्कालीन समाज पर कर व्यंग्य का पुट भी मिलता है. ये जनता मे ‘गौर्दा’ नाम से प्रसिद्ध थे. इसके बाद साहित्य धारा में नया मोड़ आया और नई चेतना, सामाजिक उत्थान तथा नव निर्माण की भावना से ओत-प्रोत रचनाएं लिखी जाने लगी. इस काल में प्रसिद्ध कवि शिवदत्त सती ने सरस और मार्मिक शैली में रचना की. बुद्धि प्रवेश (तीन भाग) घस्यारी नाटक और गोपी गीत इनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं. इनकी शैली बड़ी चुटीली है. व्यंग्योक्तियों के लिए ये प्रसिद्ध हैं. “मित्र विनोद” में तत्कालीन समाज का सुन्दर चित्र है. गोपी गीत की शैली बड़ी ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी है. इसी काल में कवि दिवानीसिंह के दिवानी विनोद में पारिवारिक और सामाजिक जीवन की झांकी मिलती है.
आधुनिक काल का उत्तरार्द्ध 1930 से माना जा सकता है. सन् 1930 के बाद कुमाऊं राष्ट्रीय आन्दोलन उग्र रूप में बढ़ा और वहां के कवियों ने भी राष्ट्रीय जागरण और के गीत गाए. समाज के बदलने ढांचे से एक नई लहर, एक नई बेदना आई और साहित्य भी उससे अछूता न रहा. राष्ट्रीय चेतना, देशभक्ति, नव निर्माण और समाज सुधार की भावनाएं काव्य के विषय बने. इस काल में बचीराम ने अपना काव्य-संग्रह ‘विपत्ति का हाल’ में सामाजिक कुरीतियों को दूर करने और समाज सुधार की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया है. हीरावल्लभ शर्मा ने अपनी काव्य साधना द्वारा कई पुस्तकें लिख कर कुमाऊनी साहित्य को समृद्ध किया. इनमें भी समाज सुधार की प्रबल भावना मिलती है.
(Literature of Kumaon)
वर्तमान काल के प्रमुख कवि चिंतामणि पालीवाल है, जिन्होंने लगभग एक दर्जन पुस्तकें लिखी है. इन्होंने सामाजिक कुरीतियों का खण्डन किया है. समाज सुधार की प्रबल इच्छा में कवि उपदेशक का रूप ले लेता है. चिंतामणि पालीवाल ने सामाजिक बुराइयों की निर्भीकता से आलोचना कर आदर्श समाज की स्थापना का मार्ग बताया है. देश भक्ति, प्रकृति प्रेम, समाज सुधार, नव जागरण और राष्ट्रीय एकता के गीत लिखे है. ये कुमाऊं के जनप्रिय कवि है. दिल्ली की झलक, बलिदान खण्ड, कुमाऊं के सम्राट, इनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं. इन्होंने कुमाऊं के मौलिक महाकाव्य मालूसाई को काव्य का रूप दिया है. इनकी शैली बड़ी ही मर्मस्पर्शी और प्रभावपूर्ण है. कविराज रामदत्त पंत ने “गीत माला” और “गांधी गीत” तथा अनेक फुटकर रचनाओं से कुमाऊं साहित्य की बड़ी सेवा की है. ऐतिहासिक प्रसंगों को काव्य का जामा पहनाने में खीमानन्द शर्मा का नाम उल्लेखनीय है. उनकी रचना “हरू हीत” बड़ी सुन्दर एवं लोकप्रिय रचना है. कुलानन्द भारतीय सामाजिक समस्याओं को लेकर काव्य रचना करते हैं. इनकी भाषा में गढ़वाली, कुमाऊनी दोनों बोलियों का सम्मिश्रण मिलता है | “डोल्या” इनकी प्रमुख रचना है, जो अपने आप में एक लोक साहित्य का खण्ड-काव्य बन गया है. इसमें देश-प्रेम झलकता है तथा लेखक युवक वर्ग को अपने ही समान परिश्रम, राष्ट्र-सेवा का संदेश देता है. परिणामतः लेखक का व्यक्तित्व यत्र-तत्र स्पष्ट रूप में झलकता है. नवयुग तथा नव निर्माण की प्यास के दर्शन नरसिंह हीत बिष्ट की रचनाओं में होते हैं है. “कलियुग का हाल” और “ग्राम पंचायत” में इन्होंने समाज सुधार की भावना भी व्यक्त की है. श्यामचरण पंत, ताराराम आर्य, भवानीदत्त पंत बजेसिंह पटवाल आदि में नव जागरण, सामाजिक विकास, राष्ट्रीय एकता आदि की प्रवृत्ति पाई जाती है. पूर्णानन्द भट्ट का नाम विशेष उल्लेखनीय है. इन्होंने बाल साहित्य से लेकर कुमाऊं के जीवन के विभिन्न पक्षों को अपनी रचना “मेरी भावना” में चित्रित किया है. नई-नई प्रतिभाएं सामने आ रही है और कुमाऊनी में एक से एक उत्कृष्ट रचनाओं के दर्शन हो रहे है. डा. गुणानन्द जुयाल ने “कुमाऊनी और गढवाली के तुलनात्मक अध्ययन” पर शोध कार्य किया है और डा. त्रिलोचन पांडे ने कुमाऊनी लोक साहित्य पर शोध कार्य किया है. डा. नारायण दत्त पालीवाल ने अपने शोध प्रबन्ध “कुमाऊं के लोक गीत” द्वारा महान कार्य किया है. अब विभिन्न विश्वविद्यालयों में कई अन्य विद्वान कुमाऊनी साहित्य पर शोध कार्य से जुटे हैं.
कुमाऊनी काम के अध्ययन से पता चलता है कि यहां के साहित्यकारों ने लता- पादपों के अन्तर की वेदना को अनुभव किया, वन-उपवन के पुष्पी की हंसी को जीवन में समेटा, चांद सितारों के गीत गाए, पशु-पक्षियों की बोली को काव्य का जामा पहनाया. बसन्त की बहार और वर्षा की रिमझिम को काव्य में समेट कर प्रकृति के नाना मनोहारी रूपों का सजीव चित्रण किया है. कुमाऊं के जन-जीवन की झांकी, नव जागरण और राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति, नवयुग और नव निर्माण के गीत, भारतीय संस्कृति व धर्म का स्वरूप भी सभी कुछ उसमें मिलता है.
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1967 में प्रकाशित डॉ. भगत सिंह की किताब ‘हिन्दी साहित्य को कूर्मांचल कि देन’ से साभार.
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