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तराई-भाबर की लीची न खाई तो क्या खाया

लीची आ गई हैं. बाग-बगीचों में, वहां से तोड़कर बाजारों में और मेरे घर पर भी. लीची मेरा प्रिय फल रहा है. इतना प्रिय कि पहले एक बैठकी में पांच किलो तक उदरस्थ कर लेता था और अब भी कम से कम दो किलो पर तो हाथ साफ कर ही लेता हूं. आज भी लीची खाने में तब तक परमानंद की प्राप्ति नहीं होती, जब तक उसका रस टपक कर कमीज या बनियान पर न पड़ जाए और हाथ लथपथ न हो जाएं. लीची ऐसी मोहिनी है कि बाल्यावस्था में ही मेरे नथुनों में घुस गई थी और आंतों में धंस गई थी. लीची खाने के मामले में खुशनसीबी भी ऐसी कि इसे पाने के लिए यदा-कदा ही जेब में हाथ डालना पड़ा. वरना बचपन में चोरी की खाता रहा और अब स्नेह भेंट में मिली लीचियां तृप्त करती रहती हैं. पिछले कुछ वर्ष से यह स्नेह भेंट रामनगर के भाई विनोद पपने जी से मिल रही . हर वर्ष की तरह इस सीजन भी पपने जी ने अपने बगीचे की सुवासित व सुस्वादु लीचियां आज घर पर भिजवा दी हैं. (Lichi Memoirs from Uttarakhand)

जब से होश संभाला खुद को लीची के बगीचों की खुशबू के बीच पाया. उस दौर में तराई-भाबर के तीन शहर देहरादून, कोटद्वार और रामनगर लीची के गढ़ हुआ करते थे. देहरादून की लीची तो ब्रांड नेम हुआ करती थी और दिल्ली-मेरठ के बाजारों में ठेली वाले सहारनपुर की लीची को भी देहरादून की लीची बताकर बेचा करते थे. कोटद्वार के जिस इलाके में हम रहते थे, उसके चारों तरफ लीची, आम के बगीचे ही बगीचे थे. हमारे मकान मालिक मेजर बड़थ्वाल साहब का बगीचा, मिश्रा भाईयों के चार-पांच बगीचे, डिमरी जी का बगीचा,भवान सिंह जी का बगीचा, कंडारी जी का बगीचा, राणा जी का बगीचा. उधर, रोखड़ पार करके बालासौड़ में घुसे तो भट्ट जी का बगीचा, लाला मिश्री लाल जी का बगीचा. देवी रोड पर भी बगीचे ही बगीचे. बगीचे तो तल्ला काशीरामपुर, गाड़ीघाट, बद्रीनाथ मार्ग, पदमपुर सुखरो आदि में भी बहुत थे. पर इन इलाकों पर दूसरे सूरमाओं का कब्जा था. एक-दूसरे के इलाके में अतिक्रमण करने पर गैंगवार का खतरा बना रहता था. बसंत ऋतु आते ही इन बगीचों में खड़े पेड़ों में बौर आने लगती. इन बौरों पर भौंरे व मधुमक्खियां मंडराने लगते तो हमारे मन में भी उमंगें हिलोरें मारने लगती. बाल मंडली का हिसाब लगने लगता कि अबकी बार फलां के बगीचे में खूब लीची होने जा रही है. इसके साथ ही ये पता लगाया जाने लगता कि अबकी बार किस बगीचे का ठेका किस ने लिया है. तब कोटद्वार के बगीचा मालिक बाग का दो साल के लिए ठेका दिया करते थे. बगीचे नजीबाबाद के कुंजड़ा बिरादरी के मुसलमान लिया करते थे. ये कुंजड़े फसल के पकने पर उसे तोड़ कर बाजार में बेचने ले जाया करते थे. (Lichi Memoirs from Uttarakhand)

मई के पहले सप्ताह से ही रेकी शुरू हो जाती थी कि किस-किस बगीचे के कौन-कौन से पेड़ की लीची कब पकने जा रही है. दिन बीतते-बीतते लीची के ये बगीचे अपने पूरे यौवन पर पहुंच जाते. लीची के छोटो-छोटे दाने अपना पूर्ण आकार ग्रहण करने लगते. उनका हरा रंग पहले हल्का लाल और फिर गहरा सुर्ख होने लगता. आते-जाते निगाहें बार-बार इन पेड़ों पर लगे लीची के लाल-लाल गुच्छों से टकरातीं. दप-दप करके दमकती लाल-लाल लीचियों को देखकर मन करता, काश हम में हनुमान जैसा बल आ जाता. हम उड़कर इन पेड़ों पर पहुंच जाते और ठीक उसी तरह इन्हें चट कर देते, जैसे उन्होंने अशोक वाटिका में पहुंच कर वहां के सारे फलों को खा लिया था. सबसे ज्यादा तो बेदाना लीची ललचाया करती थी. ये वो लीची होती है, जिसमें अंदर से गुठली बेहद छोटी और नाममात्र की हुआ करती थी. बाजार में इस लीची के दाम दूसरी लीचियों के मुकाबले दो-चार रुपये किलो ज्यादा ही हुआ करते थे. हर बगीचे में इस नस्ल के दो-तीन पेड़ अवश्य हुआ करते थे. इसके पेड़ों पर फसल कम हुआ करती थी, लेकिन बगीचा मालिक इन्हें अपने खाने के लिए जरूर लगवाते. ठेके की तयसुदा शर्तों के मुताबिक फसल पकने पर कुंजड़ा बगीचा मालिक को घरेलू इस्तेमाल के लिए जो दो-चार टोकरियां लीची देता था, वो बेदाना की ही होती थी. बगीचा मालिक घर पर भी इसका रसास्वादन करते और अपने मित्रों-रिश्तेदारों को भी भेंट करते. भवान सिंह जी के बगीचे के एक बेदाना की तो दूर-दूर तक ख्याति थी. लोग उसके मुलायम गूदे, मिठास भरे रस और खुशबू की तारीफ करते अघाते नहीं थे.

रमेश घिल्डियाल रेकी का मास्टर था. लंगूर की तरह एक बगीचे से दूसरे बगीचे तक छलांगें मारता हुआ शाम को ग्रुप लीडर जगदीश पंडित और दूसरे साथियों के सामने एक-एक पेड़ की डिटेल रख देता. उसकी डिटेलिंग इतनी जबरदस्त होती थी कि ये तक बता देता था कि अमुक पेड़ पर पकी हुई लीची कितने फीट की ऊंचाई पर है और कुंजड़ा रात को किस पेड़ के नीचे खाट बिछाकर सोएगा. पूरी डिटेल मिलते ही रात को मनोज की छत पर ही सोने की योजना बन जाती. ग्रुप लीडर जगदीश क्या करना है-कैसे करना है, इसे लेकर एक-एक सदस्य को ऐसे निर्देश देता जैसे डाकू मलखान सिंह सेठ गंगाराम की बेटी की शादी के मौके पर उसके घर में डकैती डालने की योजना बनाते हुए दिया करता होगा.

लीची अभियान की उस रात सब लोग खाना खाने के बाद घरों से ये कह कर निकल लेते कि मनोज की छत पर सोने जा रहे हैं. ये वो दिन थे जब परिवारों में परस्पर विश्वास काफी गहरा था. मां-बाप बच्चों को एक-दूसरे के घर खेलने, खाने और सोने से इन्कार नहीं किया करते थे. टेलीविजन नया-नया आया था और पूरे कस्बे में गिनती के दस-बीस घरों में ही मौजूद था. एंड्रायड फोन तब तक कल्पनातीत था. लिहाजा बच्चे भी एकांतिक न थे और एक-दूसरे के साथ खेलना, नहाना, खाना, सोना उनके मनोरंजन के साधन थे. रात नौ-दस बजे के बीच मनोज की छत पर छकड़ी जम जाती. थोड़ी देर गपशप लगती. उसके बाद कुत्तों की भौं-भौं थमने लगती और सियारों की हुवां-हुवां उठने लगती तो जगदीश पंडित का सब लोगों को मिशन पर निकलने का उसी तरह इशारा होता, जैसे प्लाटून कमांडर देर रात प्लाटून को दुश्मन की चौकी पर हमला करने के लिए संकेत कर रहा हो. संकेत मिलते ही सभी लोग निकल पड़ते. बगीचे के करीब पहुंचते ही एक-एक कदम बेहद मजबूती और सावधानी से रखते हुए आगे बढ़ना होता था, ताकि सूखे पतों पर पैर पड़ने से उनकी छिबड़ाट से कुंजड़ा जाग न जाए. सोचता हूं फौज में भर्ती हो गए होते तो हम जमीन में बिछाए गए आईईडी विस्फोटकों से बचकर निकलने के विशेषज्ञ होते. टारगेट ट्री करीब आते ही मोर्चा मुझे संभालना होता था, क्योंकि मैं पेड़ पर चढ़कर बगैर आवाज किए फुर्ती से लीची तोड़ने का विशेषज्ञ था. तुरत-फुरत 30 से 40 किलो लीची तोड़कर साथ लाए बोरे में भर ली जाती. पूरा का पूरा पेड़ अभिनेता डेविड की खोपड़ी की तरह खल्वाट कर दिया जाता. कई बार कई बार ढंग से नजर न पड़ने के कारण उतनी ही लीचियां पेड़ पर छूट जातीं, जितने अनुपम खेर के सिर पर बाल. मिशन पूरा होने के बाद ये पदातिक सेना चुपचाप अपने शिविर की ओर लौट आती. कभी-कभी कुंजड़े की जाग भी हो जाती. पेड़ के लुट जाने का अहसास होते ही वो जोर से चिल्लाता- “ अरे लुट गई रे……जागो रे जागो, पकड़ों रे पकड़ो. हल्ला मचते ही कुंजड़ा परिवार के दूसरे सदस्य हाथों में लट्ठ लिए घटनास्थल की ओर दौड़ पड़ते और हम भी सिर पर पैर रखकर अपने ठिकाने की ओर. कुंजड़े के जागने की घटना कई बार हुई, पर जगदीश उस्ताद की ट्रेनिंग ऐसी कमाल की थी कि कभी किसी के युद्धबंदी बनने की नौबत नहीं आई. अगर ऐसा हो जाता तो शायद फिर उसकी रिहाई के लिए जिनेवा संधि के उपबंध भी कम पड़ते.

हल्द्वानी में फलों के कारोबारी असगर अली. फोटो: अशोक पाण्डे

हांफते हुए, पर अपने पराक्रम की सफलता पर गदगद हो हम छत पर पहुंचते. बोरे से उलीच कर सभी सदस्यों के बीच लीची का ढेर लगा दिया जाता. छांट-छांट कर पहले ज्यादा पकी हुई लाल लीचियां खाई जातीं. इस पर भी मन नहीं भरता तो थोड़ा कम पकी हुई लीचियों का नंबर आता. खाते-खाते जब अघा जाते तो बची हुई अधपकी लीचियां और गुठली-छिलके घर के आगे बह रही गूल में बहा दिए जाते. कभी-कभी शरारत सूझती तो इन्हें मोहल्ले की ही कोहली आंटी के घर के आगे रखे कूड़े के कनस्तर में डाल दिया जाता. कोहली आंटी से यह शरारत सोद्देश्य होती थी. आंटी हमें मोहल्ले के आवारा और बिगड़ैल बच्चे समझती थी तथा अपने बच्चों को हमसे दूर रखती थी. यहां तक तो ठीक था, पर वो इसके अलावा कई बार अपने बच्चों को निहायत शरीफ घोषित करते हुए हमारी माताओं से हमारी शिकायतें भी किया करती थी. इसके बाद हमें अपने घरों पर खरी-खोटी सुननी पड़ती, जो कोहली आंटी के प्रति हमारे गुस्से और डाह को और बढ़ाती. अपने इस गुस्से को हम उनके कनस्तर में गुठली-छिलके फेंक कर निकालते. अगली सुबह आंटी छिलकों से भरा कनस्तर देखती तो बड़बड़ाती हुई पंजाबी में अनाम-अज्ञात शरारतियों को कोसती- “इन मांवा ने किद्दां दे पुत्त जम के छड्डे होवे. जे संभलदे नी तां पैदा का ते किते. जे मैनूं इनां दा पता लग जावे तां मैं कस के जुतियां लाणी ए इनां नूं .” आंटी की इस बड़बड़ाहट को सुनकर हम मन ही मन मुस्कुराते. हमारी मांएं हमसे पूछतीं- रे तुमने तो नहीं किया ये. हम गौ माता की कसम खाकर साफ इन्कार कर देते और वहां से खिसक लेते.

हमारा यह पराक्रम चार-पांच वर्ष तक अनवरत चलता रहा. हमारे बाद हमसे छोटे भाइयों ने एकाध दशक तक इस महान परंपरा को जारी रखा और शायद वो इस परंपरा की आखिरी पीढ़ी भी थी. उसके बाद बहुत कुछ बदलने लगा.

1984 के बाद अधिकांश घरों की छतों पर टेलीविजन के एंटीना दिखाई देने लगे. यह दृश्य श्रव्य माध्यम अब तक के सारे मनोरंजन के माध्यमो पर बीस पड़ा. बच्चे खेल के मैदानों, नहरों-तालाबों, बाग-बगीचों से दूर होकर घर की बैठक में सिमटने लगे. बुक स्टालों पर मोटू-पतलू, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा, मैंड्रेक आदि के कामिक्स की बिक्री घटने लगी. इस स्टालों पर सैकड़ों की तादाद में आने वाली पराग, नंदन, चंपक, बाल हंस, चंदा मामा जैसी बाल पत्रिकाएं घटकर दर्जनों में रह गई. इसके साथ ही एक और परिवर्तन आ रहा था. दो से पांच एकड़ तक के ये बगीचे कट कर नगर और विहार बनने लगे थे. नई पीढ़ी को खेती-बाड़ी, बाग-बगीचे रास नहीं आ रहे थे. इन्हें बेचकर नव धनाढयों की जमात में शामिल होने के लिए धड़ाधड़ कालोनियां कटने लगीं. पिता का नाम दुर्गा दत्त था तो कालोनी का नाम दुर्गा नगर हो गया और अगर नारायण सिंह था तो नारायण विहार खड़ा हो गया. रोज एक नया नगर या विहार वजूद में आने लगा. उमेश नगर, जानकी नगर, मंदाकिनी नगर, प्रताप नगर, देवी नगर, बद्री विहार, महेश एन्क्लेव आदि-आदि, ये फेहरिस्त दिन ब दिन लंबी होने लगी. ये नामकरण पितृ पुरुषों के भाबर की पथरीली जमीन में एक-एक पत्थर को चुनकर उसे उपजाऊ बनाने के लिए किए गए चार-पांच दशक के अथक परिश्रम के प्रति अंतिम श्रद्धासुमन थे. इन नई कालोनियों में से बसने के लिए ग्राहकों की कमी न थी. पहाड़ में नीचे उतर कर मैदानों में बसने का शौक चर्राने लगा था. उधर मैदानों में ढाई-तीन दशक तक सरकारी, अर्ध्द सरकारी कर रिटायरमेंट के बाद किसी ऐसे ठिकाने पर मकान बनाने की चाह रखने वाले पहाड़ियों की भी कमी नहीं थी, जो पहाड़ की संस्कृति व मैदान जैसी सुविधा दोनों ही की ही तलाश में थे. ऐसे लोगों के लिए देहरादून, कोटद्वार, रामनगर, हल्द्वानी सबसे मुफीद जगह थे. नतीजतन इन शहरों-कस्बों पर जनसंख्या का दोहरा दबाव पड़ने लगा. बगीचे कालोनियों में तब्दील होने लगे. देहरादूनी, गुलाबी, बेदाना, चाइना जैसी लीची की नस्लों और दशहरी, कलमी, बनारसी, लंगड़ा आमों के पेड़ धराशायी होने लगे. नजीबाबाद से असलम भाई, असगर भाई आते. इन कटे पेड़ों का सौदा करते. इन्हें ट्रकों में भरकर नजीबाबाद, नहटौर, नगीना के आसपास के ईंट भट्टों तक पहुंचाते. सुस्वादु, सुवासित लीचियों के मृतप्राण वृक्ष ताप भटिट्यो के अंदर पहुंचकर जलौनी के रूप में धू-धू कर जल उठते. ऊं शांति, शांति…

भट के डुबके – इक स्वाद का दरिया है और डुबके जाना है

दो दशकों तक रोजी-रोटी की जद्दोजहद में विभिन्न प्रांतों में भटकने के बाद पांच साल पहले हल्द्वानी पहुंचा तो शिवालिक की तलहटी की रसीली लीचियों से पुराना रिश्ता फिर जुड़ गया. रामनगर से पहले साल भाई विनोद पपने ने एक पेटी लीची भिजवाई. वो दिन है और आज का दिन है, विनोद दा हर साल बिना नागा मई के अंतिम या जून के प्रधम सप्ताह में आपने बगीचे की लीची की पेटी भिजवाना नहीं भूलते. मुझे ही नहीं, मेरे जैसे कई मित्रों पर हर वर्ष उनका यह लीची रूपी स्नेह छलकता है. लीची की पेटी घर पहुंचते ही मैं उस पर टूट पड़ता हूं. वैसे ही जैसे कड़े घाम में तीन किलोमीटर खड़ी चढाई में चलने के बाद किसी प्यासे पथिक को पानी का छोया मिल जाए और वो अंजुरी भर-भर, भर-भर पानी पीता रहे, पीता रहे. पिछले साल लीचियां मिलने के बाद विनोद दा को धन्यवाद कहने का फोन लगाया तो कहने लगे- “अब रामनगर की लीचियां भी बचनी मुश्किल हैं. कालोनाइजरों की निगाह इन इलाकों की जमीनों पर लगी हैं. मुझे भी ऑफर आया है. अच्छा पैसा देने को तैयार हैं, पर मैं अपने जीते-जी लीची नहीं मिटने दूंगा. मेरे बाद बेटा जो चाहे करे. “ लीची के प्रति ऐसी आसक्ति मैंने अपने बाद विनोद दा में ही देखी. लीची उत्तराखंड के तराई-भाबर का अमृत फल है, इसकी धरोहर है. इस माटी में लीची बची रहनी चाहिए और साथ ही दीर्घजीवी होने चाहिए विनोद पपने जैसे लोग, जो इस अंचल में लीची को बचाए-बनाए रखने के लिए बेहद जुनूनी हैं.

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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय  से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी  संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखेंगे.

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