वह सोचती है, एक महीने का समय इतना कम नहीं होता. पूरे तीस दिन होते हैं. बल्कि, तीस दिन और तीस रातें होती हैं. बहुत कुछ बदल जाता है तीस दिनों में. पराए अपने हो जाते हैं और अपने पराए तक हो जाते हैं. बोलबतियाने, कहने-सुनने को इतना समय तो नहीं.
(Lautne Ke Baad Hindi Story)
पहले तो वह उनसे खूब लड़ेगी. खूब झगड़ेगी. यह भी कोई बात हुई, पूरे दो साल में घर आ रहे हैं. जैसे यहाँ उनका कोई है ही नहीं. बस, हवा-पानी के बदलाव को दो-चार दिन घूमने को आ रहे हों जैसे. जाते समय कितने प्यार से कह गए थे, ‘सरु, कैसे कटेगा समय तेरे बिना. जब-जब तेरी याद आएगी, चिट्ठी लिखूंगा तेरे लिये. उमेश से पढ़वा लेना.’
जब से गए हैं, अपने में ही मस्त. सोचा भी नहीं, सरु कैसे रह रही होगी. कोई अपना समझे तब ना. चार दिन मुँह पर आए, मीठी-मीठी बोल गए. पीठ पीछा हुआ तो बस…
मैं क्या नहीं समझती, वहाँ कितनी ही सरु होंगी. वहाँ-कहाँ आएगी मेरी याद. यह तो मैं ही हूँ जो तीज-त्यौहार पर, नई फसल पर, नए फलों पर, वे होते तो साथ-साथ खाते, सोचकर आँखें पोंछती रहती हूँ. यह भी कहाँ सोचा होगा कि त्यौहार-मेलों में अकेले, बेगर पंछी की तरह सरु का मन कितना उदास हो जाता है. चारों तरफ की रंग-रेलियाँ कितनी नीरस लगती हैं तब. किसी भी तीज-त्यौहार और मेले को हँसकर नहीं मनाया मैंने. अपना अधूरापन डॅसता-रहा हरदम.
दो-चार दिन सबका मन करता है अच्छा खाने और अच्छा पहनने को. यहाँ नमक, रोटी और कड़ाही के पतले भात के अलावा मिलता क्या है? किसी आते-जाते के हाथ अलग से पाँच-दस रुपए ही भेज देते. कई बार दुकानों की तरफ जाना होता है, दो-चार पैसे की चीज को भी मन मारना पड़ता है. कई-कई हफ्ते कपड़े बदन पर मैले ही पड़े रहते हैं. एक टिकिया साबुन को भी तरसना पड़ता है. छोटी-छोटी जरूरतों के लिए मैं किससे कह सकती हूँ यहाँ?
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पर तुम तो निरे पत्थर हो. घर-गाँवों में मेहनत-मजदूरी करने वाले भी दिनभर हड्डी-कमर तुड़वाकर शाम को कुछ अच्छी-भली चीज ले ही आते हैं. और कुछ नहीं भी हुआ तो दो आखर प्रेम के तो आपस में बोल-बतिया लेते हैं. एक तुम हो, कभी एक कागज के टुकड़े पर, ‘कैसी हो सरु’ तो लिख देते. किसी से भी पढ़वा लेती. दूसरों को हँसता बोलता देखकर मन कितना कसकता है- तुम क्या जानो. एकदम निर्दयी हो, पत्थर कहीं के.
दिन-भर कमर टूट जाती है इन पहाड़ के खेतों पर. खेतों से लेकर गोबर तक का काम करो, ऊपर से तुम्हारे माँ-बाप के ताने. यह सब अब मुझसे नहीं सहा जाता. मुझे भी अपने साथ ले चलो. जैसा भी होगा दुःख-सुख में साथ तो रहेंगे. यहाँ इतना खटने पर भी क्या मिलता है. छोटे-मोटे दर्द-जुकाम की तो बात नहीं करती, जोर के बुखार में भी आराम नहीं मिलता. ऊपर से ताने-काम करने का मन नहीं हुआ तो नखरे कर लिये.
और हाँ, तुम्हारे छोटे भाई जगदीश की नजर अच्छी नहीं है. क्या-क्या बकता है. कुछ कहूँ तो तुम्हारी माँ वकालत करने लगती है. पता नहीं कैसे लोग हैं. ये महेश के पिताजी भी अच्छे आदमी नहीं लगते. लगने को जेठ लगता है, मगर टेढ़ी नजर से क्यों देखता है मुझे?
पर तुम्हारी बला से कुछ होता रहे? तुम्हें क्या? घर से निकल गए तो मुँह ही पलट दिया. मैं यहाँ किसको अपना कहकर रहूँ. पिछली पंचमी को माँ के कई बुलावे आए. पर क्या मजाल, इन पर जरा भी असर हुआ हो. एक दिन को भी नहीं जाने दिया.
तुम्हारी तरफ से तो एक नौकरानी है घर में. कोई परदेश से आता है, उसकी घरवाली से पूछती फिरती हूँ, कोई सवाल-जवाब है मेरा? पर सवाल-जवाब तो तब हो, जब तुम्हें कभी ध्यान भी आए. अब मैं यहाँ एक पल भी नहीं रह सकती. या तो मुझे साथ ले चलो या मेरे मायके छोड़ आओ.
निश्चित दिन यानी जिस दिन उनको आना था, उससे पहली रात वह अच्छी तरह सो भी नहीं पाई थी. दिन खुलने से बहुत पहले उठ गई थी. गाय-भैसों के सामने रात की बची घास डालकर, दिन-भर के खाने लायक पीसने बैठ गई थी. फिर साथी औरतों का इंतजार किए बिना जल्दी ही जंगल चली गई थी, हरी घास लाने के लिए. लौटकर उसने केतली में अपने हिस्से की चाय को गरम करके पिया. उसके बाद गोविंदी से एक टिकिया साबुन उधार माँगा कि वे आ रहे हैं तेरा साबुन जल्दी लौटा दूंगी. दो-तीन बार साबुन रगड़कर चमकाने की कोशिश की. फिर शरीर पर कई बार साबुन मलकर नहाई. घर आकर किसी तरह एक कटोरी तेल अलग निकाल लिया. तेल से तर करके हाथ-पैर और शरीर को तेल के चुपड़े हाथों से मल लिया. फिर गोविंदी के पास चली गई, बालों की लटि बनाने. दिन का खाना उसने ऊँघते हुए ही खाया था. चौका-बर्तन का काम जल्दी ही निपटा लिया. सवेरे के धुले कपड़ों को पहनकर एक बार फिर बालों पर कंघी फेरी. शीशे को हाथ में पकड़कर जब अपने को देखा तो वह खुद ही शरमा गई.
उसने अनुमान लगा लिया कि गाड़ी आने ही वाली होगी. वह अकेली मोटर मार्ग की तरफ चली गई. उस दिन उसके अंदर कुछ नया पा लेने की-सी गंध थी.
गाड़ी रुकी. उसने दूर से ही उन्हें उतरते देख लिया. चिट्टे उजले कपड़ों में वे उसे बहुत अच्छे लगे. उनकी चाल और चेहरे की परिचित आत्मीयता ने उसे उनके नजदीक आने का निमंत्रण दिया हो जैसे. पर वह रास्ते से थोड़ा हट गई. देखनेवाले हँसी करेंगे नहीं तो.
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उस दिन वह ‘वह’ नहीं थी. उसे लगा, सारे गाँव में उसी का भाग्य खुला है. कुछ पा लेने की-सी चमक उसके चेहरे पर फैली हुई थी. उसकी चाल में स्फूर्ति आ गई थी. हालाँकि वह अपने को संतुलित करने का भरपूर प्रयास कर रही थी, पर अंदर एक उत्साह उसके सारे संतुलन को उसकी पकड़ से बाहर कर देता था.
घर उस दिन भरा रहा. सारे गाँव के लोग आए थे मिलने, अपने सगे-संबंधियों की खबर पूछने. वे लोगों से बातचीत करते रहे. देश-परदेश की खबरें, गाँव के लोगों की कुशल-क्षेम और बहुत सारी बातें.
सारे दिन में उसे उनसे बात करना तो दूर, एक नजर देख लेने का मौका भी नहीं मिला. दबे कदमों से अंदर-बाहर आती-जाती रही. इच्छा बहुत हुई एक बार भरपूर नजरों से देख ले. झिझक सामने आ जाती थी. लोगों को देखकर संकोच कर जाती थी. अकारण ही कई बार-चाख से अंदर गई, बाहर आई. ठोकर लगते-लगते भी बची. सास ने फटकारा भी. ‘नजर नीचे हो तो कुछ दिखे…
घास लाने का समय हो गया था. बुझे मन से वह औरतों के साथ जंगल चली गई. अपने को समझाती रही जब फुर्सत में होंगे देख लूंगी. ऐसा भी क्या है. कहीं भागे जा रहे हैं? बेकार में लोक हँसाई से क्या फायदा? मन बुझाना भी तो पड़ता है.
उस दिन साथी औरतों में वह अपने को अलग-सा महसूस कर रही थी. खोया खोया-सा भी लग रहा था. उनकी चुहल का सीधा-सा उत्तर दे नहीं पा रही थी. उसके चेहरे पर अधलिखे-अधबुझे-से अस्पष्ट भाव बार-बार उसे चुहल का कारण बना रहे थे. वह बेसुध-सी उनकी बातों पर कभी हँस देती कभी खोई-खोई उनसे आगे-पीछे निकल जाती थी.
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घास का गट्ठर धम् से फेंककर उसने खिड़की की तरफ देखा. लोग जा चुके थे. वे सास-ससुर से बातचीत कर रहे थे. हाथ-पाँव और मुँह धोकर वह अंदर रसोई में चली गई. चूल्हे में आग जलाकर चाय का पानी रख दिया और दीवार से कान लगाकर बातें सुनने लगी. उसे थोड़ा संतोष हुआ कि बात उसके बारे में नहीं बल्कि गाँव के प्रधान के विषय में हो रही थी.
खाना बनाने व बर्तन साफ करने के बाद कहीं जाकर चैन मिला. अपने कमरे में लैंप की टिमटिमाती रोशनी में उन्हें देख पाई. शरमाती हुई-सी बैठी वहाँ पर. जैसे पहली बार मिल रही हो. कुछ कहने-पूछने के स्पष्ट भाव लिए, बोल नहीं पा रही थी.
पहल उन्होंने ही की थी.
“बहुत अच्छी लग रही हो, सरु.” उसके लिए अलग से लाई मिठाई की डाली उसके मुँह में डालते हुए उन्होंने कहा था.
उसे लगा, दुनिया का सारा सुख उसने भोग लिया है. सच, वे कितना प्यार करते हैं उसे!
उसने एक बार गहराई आँखों से उनकी तरफ देखा. लगा, उनकी आँखें कहीं अधिक डबडबा गई हैं. उसके अंदर बहुत-कुछ कह डालने वाला जोश लगभग समाप्त हो गया था.
“कुछ खाने को नहीं मिलता क्या वहाँ? इस बार तो पहले से भी दुबले होकर आए हो.”
“सब कुछ मिलता है. बस, सरु नहीं मिलती.” उन्होंने उसे बाहुपाश में लेते हुए कहा था.
“सरु, दो साल बाद.”
बेशरम कहीं के. बस, दो-चार दिन, इसीलिए रह गई है सरु.”
“बहुत याद आती रही तेरी, सरु.”
“मुंह पर ऐसा ही कह जाते हो. जाने के बाद सुध भी ली है कभी? ‘सरु कैसी है’ तो पूछ लेते किसी से.” दबा रोष उभरने लगा था. जैसे किसी ने फोहे को हटाकर फोड़ा दबा दिया हो. पर वह ज्यादा नहीं बोली. फिर कभी कह लेगी. अभी तो थके-हारे आए हैं.
दो-चार दिन ऐसे ही गुजर गए, रिश्तेदारों के पास जाने और उनके आने में. दिन के उजाले में कभी बतियाने का अवसर ही नहीं मिला. बतियाने का क्या, कुछ देर पास बैठकर जी भर के देख लेने का भी अवसर नहीं मिला. दिन भर एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा काम क्रम में चलता रहता था. काम का क्रम टूटता था रात को. कभी थोड़ा समय बचता भी तो सास घेर लेती थी.
सास के तेवर उन दिनों और ही थे. हुआ करें. वह कौन-सा अपराध कर रही है? दो साल बाद घर आए हैं. थोड़ा हँस-बोल लूँगी तो कौन-सा अनर्थ हो जाएगा? बुढ़िया की तो आदत ही ऐसी है. कानी आँख से भी नहीं भाती उसे मैं. उसे बस बौल (काम) चाहिए. अपने दिनों में उसका मन नहीं करता होगा, दोचार घड़ी साथ बैठने को. जहाँ-तहाँ, ‘मेरे बेटे को सिखा रही मेरे बेटे को सिखा रही’ की रट लगा रखी है. इसके बेटे हैं, तो मेरे भी तो कुछ हैं? पर उसकी समझ में कुछ आए तब ना. जो कहती है, कहती रहे. मैं अब किसी से डरनेवाली नहीं.
दिन में कभी कहने-बोलने को तरसती हूँ, दो घड़ी रात का सुख भी बुढ़िया को डस जाता है. इस बार तो चाहे कुछ हो, मैं साथ जरूर जाऊँगी.
और एक दिन उसने अपनी बात रख दी थी.
“इस बार मैं भी साथ चलूँगी. मेरे से नहीं होता है घर का बौल. आग लगे पहाड़ की इस धरती पर. यहाँ के लोग भी पत्थर हैं.” उसने बहुत असंतुलित और रोष भरे शब्दों में कहा.
वे चुप हो गए थे; तालाब के ठहरे पानी की तरह स्थिर. अपलक उसे देखते रहे थे. जैसे उन्हें इस माँग की आशा ही नहीं रही हो, इसलिए एकदम उत्तर देने को तैयार भी नहीं हो पाए हों.
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“चुप क्यों हो गए?” “यों ही.” “मैंने साथ जाने का नाम लिया तो.”
“नहीं सरु,” वे सहज-से हो गए थे और अधिक आत्मीय होते हुए बोल, “तुम्हें बुलाने का विचार तो पिछली सर्दियों में ही था, पर.” आगे कहने से पहले अधिक आराम से बैठ गए थे, जैसे बोझ उतारने के बाद हल्के हो गए हो. बहुत करीब आते हुए, उसके चेहरे को दोनों हथेलियों के बीच लेते हुए बोले, “इस साल तुझे जरूर बुलाऊँगा.”
वह चुप देखती रह गई-कोई अनुमान नहीं लगा उनके लहजे का. उनका स्वर सीधा और सपाट था. नहीं, बहका तो नहीं रहे हैं, टाल भी नहीं रहे इतनी बेचारगी थी कि वह जिद पकड़ ही नहीं पाई.
दिन तेजी से गुजरते गए. बात अपनी जगह रही. उसके भीतर खीझ बनती गई. यहाँ का दमघोट माहौल, ऊपर से इनकी चुप्पी. वह खीझी, अपने को मजबूत किया. जो होगा, आज तय करवाके रहूँगी. आखिर मैं यहाँ कब तक खटूं, केवल अपयश लेने के लिए! इन्हें जरा भी चिंता नहीं है मेरी. ख़ुद महसूस करना तो अलग, मेरे कहने पर भी चुप. इनसे नहीं कहूँगी तो फिर कहुंगी? चुप्पी पहले तो नहीं साधते थे. हर बात को समझते थे समझा देते थे. मन को शांति मिल जाती थी. कहीं सास ने तो नहीं भड़का दिया?
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दूसरे दिन उसने झकझोर देनेवाले अंदाज में कहा, “साथ चलने का नाम लेती हूँ तो चुप क्यों हो जाते हो?”
“कहा ना, इस बार तुझे जरूर बुलाऊँगा.”
“हर बार मुझे बहका जाते हो.” वह ज्यादा कड़े और रूखे स्वर में बोली.
वे उत्तेजित नहीं हुए, भावुक भी नहीं हुए. स्वर शांत ही रहा, “देख सरु, मैं क्या तेरे से मीलों दूर रहकर सुखी रहता होऊँगा. परिस्थिति ही ऐसी बन गई है. तेरे से कब तक दुराव-छिपाव करूँगा. चार-साढ़े चार सौ रुपया तनखा मिलती है. सौ-पचास घर को हर महीने भेजना पड़ता है. यहाँ होता क्या है. सारा साल खपकर, दो महीने के खाने को तो निकलता नहीं. कोई थोड़ा-सा सहारा देनेवाला भी नहीं है. हर समय कर्ज बना रहता है. इस समय किसी के साथ रहकर गुजारा कर लेता हूँ. तुझे बुलाने पर अलग कमरा लेना पड़ता. शहर जैसे कपड़े भी बनाने पड़ेंगे. पर तू चिंता न कर, जैसा भी होगा, इस साल तुझे जरूर बुलाऊँगा.”
उनके रुधियाते स्वर से वह चुप हो गई, ठंडी पड़ गई आग की तरह. और कहने को शेष बचा ही नहीं जैसे. सर उनकी छाती पर रख दिया. शांत पड़ी रही हृदय की धड़कनें ही थम गई हों. महीना कब और कैसे बीता, उसे पता भी हा चला. रोज उसी तरह स्वचालित मशीन की तरह उठती. घर, बाहर, खत, सब काम करती. रात की टिमटिमाती रोशनी में उनकी बाँहों के इर्द-गिर्द सा महसूस करती. उसी में अपार सुख मिलता.
उनके वापस जाने से पहली रात उसका अंतर फिर भर आया. मन का बोझ गले पर अटक गया. बर्तन माँज, चूल्हा साफ कर, बिना खाए ही अपनी चारपाई बैठ गयी. उनको देखती रही. वे भी चुप थे, दुखी और भाव-विभोर. वह पसीज-सी गई. उन्हें समझाने लगी, “तुम फिकर मत करना, अपने शरीर की हिफाजत करना. कर्जा तो लगा रहता है. किस पर नहीं है कर्जा? तुम्हारी जिन्दगी रही तो सब उतर ही जाएगा. अपने खाने पीने में कमी मत करना. घर-गांव की समस्या तो हमेशा रहेगी. इसके लिए रात दिन चिंता क्या करनी. यहाँ थोड़े गुजारा कर लेंगे.
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“मेरी कोई चिंता मत करना. इस साल न भी बुला सको तो अगले साल देख लेना. लंबी जिंदगी पड़ी है. दो आँखर अपनी राजी खुशी के लिखते रहना. और मुझे कुछ नहीं चाहिए. अपने शरीर की हिफाजत…”
गाड़ी जब स्टार्ट हुई तो उसकी इच्छा हुई, दौड़कर गाड़ी के आगे खड़ी हो जाय . कुछ देर और रुक जाने को कहे. पर गाड़ी बेरहमी से, कच्ची सड़क की सारी धूल उसकी आँखों में डाल, बहुत आगे निकल चुकी थी.
उसने आँखों पर पड़ी धूल को साफ कर नजर उठाई. बस अगले मोड़ को पार कर ओझल हो गई थी.
थोड़ी देर वह मूर्ति-सी खड़ी सड़क को निहारती रही. दोपहर काफी ढल चुकी थी. मरे मन से घर की ओर लौट पड़ी. “सास के तेवर चढ़ रहे होंगे. ढेर सारा काम सवेरे से अब तक इकट्ठा कर लिया होगा. घर पहुँचते ही क्या-क्या बकने लगेगी. जैसे मैं कोई अपराध करके लौट रही होऊँ. इन दिनों उसका मिजाज निराला ही है. वैसे भी कानी आँख से भी नहीं भाती उसे मैं मेरी परवाह है ही किसको? किस-किसकी नहीं सुनी मैंने. क्या कुछ नहीं भोगा मैंने. खाने-लगाने, देखने-सुनने के ये दो-चार दिन.
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एक तो वे हैं. उनके लिए जैसे कुछ हो ही नहीं रहा मेरे साथ. मुँह पर कितना मीठा बोल जाते हैं. जाने के बाद खबर पूछने की जरूरत भी नहीं समझते. मैं क्या नहीं समझती, वहाँ कितनी ही सरु होंगी. वहाँ-कहाँ आएगा मेरा ध्यान. वह तो मैं ही हूँ…
दोष मेरा भी तो है. पागल नहीं हूँ तो और क्या हूँ मैं. कैसे बहकावे में आ गई. एक बार भी जोर नहीं दिया. अगर मैं जिद पर ही आती तो कैसे नहीं ले जाते?
इस बार तो चाहे कुछ हो लेकिन इस बार कहाँ? अगली बार. पर पता नहीं कब आएगी ‘अगली बार’ और जाने तब मेरी मति किधर फिर रही होगी.
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हृदय को झकझोरती, पहाड़ की मातृशक्ति की पीड़ा को सही मायनों में दर्शाती कहानी। हृदय रो पड़ा। छितिज शर्मा जी आपके उदगारों व लेखनी को कोटि कोटि नमन।