लुरखुर लोरिक
-चन्द्र भूषण
चंडीगढ़ के आर्ट म्यूजियम में लौर-चंदा सीरीज की 14 फोलियो पेंटिंगें मौजूद हैं. 16वीं सदी में बनी चटख रंगों वाली इस कथा-आधारित अद्भुत चित्र श्रृंखला के बहुत सारे चित्रों में अब संभवतः सिर्फ 36 इस दुनिया में शेष बचे हैं, जिनमें बाकी के 22 पाकिस्तान में हैं. किसी ब्रिटिश म्यूजियम में भी कुछ फोलियो होने की बात कही जाती है, लेकिन इस बारे में ज्यादा जानकारी मेरे पास नहीं है. करीब पांच सौ साल पुरानी कॉमिक्स जैसी इस चीज में नायिका को तो राजपूत शैली की पेंटिंग की तरह गोरी और साफ नख-शिख वाली बनाया गया है, लेकिन नायक का रंग कत्थई के करीब पहुंचता हुआ सांवला है. कवच, कुंडल, मुकुट या अन्य किसी भी राजचिह्न का अभाव उसे उस दौर के नायकों से बिल्कुल अलग करता है.
लौर-चंदा या चंदायन 14वीं सदी में (कबीर के जन्म से भी पहले) फारसी की नस्तलीक लिपि में लिखी गई मुल्ला दाऊद की रचना है. राजकुमारी चंदा और अहीर योद्धा लोरिक की यह प्रेमकथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के अवधी और भोजपुरी क्षेत्रों में न जाने कब से कही-सुनी जा रही थी. रायबरेली के मुल्ला दाऊद ने इसे लिखित काव्य का रूप दिया और इस क्रम में जायसी और तुलसी की काव्य भाषा के रूप में अवधी के उदय की बुनियाद रखी.
इन किताबी सूचनाओं का मेरे लिए शायद कोई अर्थ न होता, अगर इनसे साबका पड़ना अचानक मेरे लिए मेरे बचपन की भूली-बिसरी यादों का एक झरोखा न खोल देता. गांव में हमारी गर्मियों की छुट्टियां गाय चराते ही गुजरती थीं, जो कभी मजा तो कभी सजा का सबब बना रहता था. इंसानी आंखों वाली एक दुबली-पतली बीमार सी गाय और उसकी एक वैसी ही बछिया हमारे पास थी. सुबह उन्हें खूंटे से खोलकर ऊसर की तरफ निकल जाता था. शरीर में ताकत अपने हमउम्र साथियों से कम थी और पता नहीं क्यों मुझे पीटने या तंग करने में उन्हें कुछ ज्यादा मजा भी आता था. लेकिन ऊसर के खेलों में फिसड्डी की तरह पीछे-पीछे लगे रहना चुपचाप घर में बैठे रहने से फिर भी कुछ बेहतर ही था.
मेरे लिए सुबह गाय चराने जाने का एक आकर्षण वहां लुरखुर काका से चनइनी सुनने का हुआ करता था, जो उसी चंदायन या लौर-चंदा का देसी नाम है, जिसका जिक्र इस टीप की शुरुआत में आया है. लुरखुर काका के चेहरे पर चेचक के हल्के दाग थे. पखवाड़े भर की बढ़ी हुई कच्ची-पक्की दाढ़ी उनके चेहरे पर सदाबहार दिखती थी और वह दोनों कानों में लुरकी (सोने की मुनरी) पहनते थे. जिस समय की मैं बात कर रहा हूं, उस समय उनकी उम्र चालीस के लपेटे में रही होगी.
बिल्कुल खड़ा शरीर और चलने का अंदाज ऐसा, जो उनके बाद कभी देखने को नहीं मिला. लगता था कि कमर के ऊपर का हिस्सा आगे-आगे चल रहा है और दोनों पैर पहिए की तरह अगल-बगल चलते जा रहे हैं. दौड़ना इस धज में उनके लिए चलने से कहीं ज्यादा आसान होता रहा होगा. रहंठा की एक खांची और खुरपी हमेशा उनके पास रहती थी. जहां भी दूब देखते थे, चुपचाप तपस्या की सी मुद्रा में छीलने बैठने जाते थे.
चनइनी या चंदायन सहज लोकबुद्धि और शारीरिक पराक्रम की कथा है. मुल्ला दाऊद की रचना कभी मेरे हाथ नहीं लगी, न ही आगे कभी लगने की कोई उम्मीद है, लेकिन लुरखुर काका से इसके इतने हिस्से सुन रखे हैं कि दो-चार बातें इसके बारे में आज भी बता सकता हूं. प्रेम इस काव्य में एक स्थायी लय की तरह बजने वाला भाव है और उसमें स्वकीया-परकीया जैसा कोई भेद नहीं है.
बुद्धि की पेचीदा कसरतों और घनी लड़ाइयों से ब्याह कर लाई गई मैना से लोरिक बहुत प्यार करता है, लेकिन गोभार रियासत के राजा सहदेव की बेटी चंदा से मिलने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है. कहानी में एक बार लोरिक के लिए मैना औरे चंदा का दुर्धर्ष संघर्ष भी आता है, जिसमें एक कोइरी किसान की कई बिस्से में बोई गई सब्जियां बर्बाद हो गईं. श्रोताओं के लिए इस हिस्से का आकर्षण इस लड़ाई के दौरान दोनों नायिकाओं का लगभग निर्वस्त्र हो जाना हुआ करता था- अपने ढंग का आइटम नंबर.
वीरगाथा काल की एक अन्य रचना आल्हा की पहुंच हमारे गांव तक थी. सावन के महीने में किसी नट को आल्हा गाते देखने का तजुर्बा यादगार हुआ करता था. लेकिन चनइनी में कोई ऐसी बात थी, जो उसे आल्हा ही नहीं, बाकी किसी भी काव्य से अलग बनाती थी. रामायण, महाभारत से लेकर आल्हा तक सब की सब राजा-रानियों की कहानियां थीं. इनमें आने वाली चीजें हमारे इर्द-गिर्द कम ही पाई जाती थीं. लेकिन चनइनी में गाय-बैल, गोहरउर और मूंज का बना पिटारा भी आता था.
इसके कथाक्रम में पता चलता था कि पलाश के डंठलों से ज्यादा भारी कोई और वनस्पति नहीं होती. खानदानी तौर पर शाकाहारी हमारे जैसे बच्चे भी यह जान लेते थे कि मांस को अगर गोइंठे की आग में भून दिया जाए तो एक अकेला आदमी भी एक पला-पलाया बकरा पूरा का पूरा खा सकता है. लोरिक के अधेड़ सलाहकार संवरू ने यह उक्ति उनकी बारात को बताई थी, जिसे बिना दुलहन के ही वापस लौटा देने के लिए ससुराल वालों (मैना के मायके वालों) ने एक भी पकी मूंछ वाला आदमी बारात में न लाने की हिदायत दे रखी थी.
बहरहाल, चनइनी के मामले में मेरे लिए कथावाचक का सम्मोहन स्वयं कथा से कम नहीं था. बहुत धीमी आवाज में, मन के भीतर बजती हुई किसी धुन की तरह लुरखुर काका चनइनी गाते थे. कभी-कभी परंपरा निभाने के लिए एक कान में उंगली भी डाल लेते थे. बीच-बीच में श्रृंगारिक या मजाकिया जगहों पर हंसते थे, लेकिन बस जरा सा. ज्यादातर पारंपरिक बिरहिए दोनों कानों में उंगली डालकर बिरहा गाते थे. बैलगाड़ियों की लीख पर बोझा गिराकर लौट रहे गाड़ीवानों को अक्सर इस मुद्रा में देखने का मौका मिलता था.
शहर बनारस के बुल्लू ने बिरहे का फिल्मीकरण उस समय तक तकरीबन पूरा कर दिया था और फिर एक से एक भद्दे प्रयोग इसके साथ किए गए. लेकिन बिना किसी साज-बाज के, अक्सर अकेले ही गाया और सुना जाने वाला खड़ा या खड़ी बिरहा ही इस काव्य विधा का शुद्धतम रूप था, जिसे टेप और सीडी वाले मेकेनिकल समय में बचाए रखना किसी के लिए संभव नहीं था.
लुरखुर काका को सुनते-सुनते मेरे मन में पहली महत्वाकांक्षा जगी थी, जो बिरहिया बनने की थी. उनके जैसा नहीं, सभा-सोसाइटी में गाने वाला, परफॉर्मर किस्म का बिरहिया बनने की, हालांकि अपनी कल्पना में भी अपनी भूमिका मैं बिरहा गाने वाले से ज्यादा इसे बिठाने, या लिखने वाले की ही सोच पाता था. परफॉर्मर बनने में कई तकनीकी समस्याएं थीं. एक इनमें जाति की भी थी क्योंकि उस समय तक बिरहा बतौर प्रोफेशन अहीर जाति की इक्सक्लूसिव चीज समझा जाता था.
मैंने अपने पिताजी से एक दिन इसके बारे में बताया. कहा कि यह जो राम, कृष्ण की कहानियां आप लोग सुनाते हैं, वे लोरिक और दयाराम तो क्या, गेनिया अहिरिनिया की कहानी के सामने भी कुछ नहीं हैं. इस पर मुझे डांट पड़ी. पिताजी ने कहा कि ये झूठ-फूठ कहानियां अहीर लोग अपने को खास साबित करने के लिए बनाते हैं, ताकि उनके पास भी अपनी बिरादरी से राम-कृष्ण के सामने खड़ा करने के लिए कोई हो.
मुझे यह समझने में थोड़ा वक्त लगा कि न सिर्फ मेरे पिता के लिए बल्कि समूची बभनौटी के लिए लुरखुर काका की हैसियत किसी आम घसियारे से ज्यादा नहीं थी. लेकिन गांव के बाकी हिस्से में उनकी ताकत, उनकी मर्दानगी और उनके सख्त लंगोट के किस्से कहे जाते थे. इनमें सबसे गुपचुप ढंग से कहा जाने वाला किस्सा यह था कि एक बार गांव की एक चलता-पुर्जा महिला ने उनसे प्रणय निवेदन किया तो उन्होंने बदले में इसके लिए काफी ऊंची रकम मांग ली.
महिला ने कहा कि गांव में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कंधे पर हाथ भर रखने के लिए उसे मनचाहे पैसे देने को तैयार हैं, लेकिन वह उन्हें मुंह नहीं लगाती. लुरखुर काका ने कहा कि तुम्हारे पास जो है, उसकी कीमत लगाने वाले बैठे हैं लेकिन मेरे पास जो है उसकी कोई कीमत नहीं है- जो कुछ मैंने कहा, वह पैसे के लिए नहीं, सिर्फ तुम्हें समझाने के लिए था, उसे भूल जाओ और अपना काम करो.
समय बीतने के साथ मेरा गाय चराना छूट गया और लुरखुर काका भी कहीं विस्मृति में सिरा गए. अभी दो-तीन साल पहले मैं अपने गांव गया था तो एक सुबह मां को एक साड़ी, कुछ रुपये और सिद्धा-बारी लेकर घर से निकलते देखा. पूछा, कहां जा रही हो तो पता चला कि लुरखुर काका की छोटी बेटी का ब्याह है. लौटकर उसने बताया कि पिछले साल गांव में उनके अकेले बेटे का कत्ल हो गया था, अब पूरा गांव मिलकर उनकी आखिरी बेटी की शादी कर रहा है.
मुझे याद नहीं आता कि कत्ल की कोई वारदात मेरे गांव में इससे पहले कब हुई थी. कभी हुई भी थी या नहीं. यहां चाकू निकलते हैं, गोलियां चलती हैं, बम फटते हैं, लेकिन लड़ाई हर बार बराबरी की ही छूटती है, कोई मरता नहीं. इसके बावजूद यहां लुरखुर काका का जवान लड़का न सिर्फ मारा गया बल्कि इस तरह मारा गया कि उसका जिक्र करने पर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
रात में पता नहीं कैसे सोते में ही उसे चारपाई सहित उठा लिया गया. अगली सुबह खोजबीन शुरू हुई, कुछ पता नहीं चला. कई दिन बाद दिसा-मैदान गई औरतों को एक अरहर के खेत में जगह-जगह खून के निशान दिखे और आसपास एक बिस्सा से भी ज्यादा दायरे की अरहर टूटी नजर आई. जैसे वहां कोई युद्ध हुआ हो. अगले ही दिन सिवान में एक अंधे कुएं से भयंकर बदबू उठी और वहां जमा बरसाती पानी में बिल्कुल खड़ी तैरती हुई उसकी लाश दिखाई पड़ी. फूलकर कुप्पा. सैकड़ों चाकुओं से गुदी हुई लाश.
यह कत्ल किसने किया, क्यों किया, इसका पता आज तक नहीं चल पाया है. किसी का कहना है कि पड़ोस के पंडित परिवार की किसी लड़की से उसका कुछ चक्कर चल गया था, तो कोई इसके लिए उसी परिवार के जमीन के लालच को जिम्मेदार मानता है- अकेला लड़का है, नहीं रहेगा तो देर-सबेर लुरखुर की जमीन अपने ही खाते में आएगी. मन हुआ चलकर लुरखुर काका से मिलूं, लेकिन पता नहीं क्यों हिम्मत नहीं पड़ी. जिस आदमी ने पहली बार मेरे मन में एक काव्य नायक खड़ा किया, जो खुद मेरे लिए किसी नायक से कम नहीं था, उसे इतने बड़े वक्फे के बाद इस टूटी हुई हालत में क्या देखूं.
चन्द्र भूषण नवभारत टाइम्स में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार हैं. विज्ञान एवं खेलों पर शानदार लिखते हैं. समसामायिक मुद्दों पर उनकी चिंता उनके लेखों में झलकती है. चन्द्र भूषण की कविताओ के दो संग्रह प्रकाशित हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
View Comments
लुरखुर?