थलकेदार से लगभग 2500 फीट की ढलान पर दुर्गम मार्ग को पार कर लटेश्वर नामक मंदिर आता है. यहाँ पर एक सम्पूर्ण विशाल शिला खण्डित होकर गुफा रूप में परिवर्तित हुई है जहाँ “लाटा” देव की प्रथम स्थापना है. श्री लटेश्वर एक प्राचीन पूज्य स्थल है. कहा जाता है कि बड़ाबे के वर्तमान निवासी जब अन्यत्र से आकर यहाँ बसे तो उन्हीं के साथ उनके ईष्ट देवता “लाटा” लटेश्वर भी यहां आये. इस सन्दर्भ में स्थानीय किवंदन्तियां भी प्रचलित है.
(Lateshwar Mahadev Mandir Pithoragarh)
बड़ाबे गांव पिथौरागढ़ से 25 किमी की दूरी पर स्थित है. यहाँ पर पहुँचने के लिए आपको पिथौरागढ़ से स्थानीय टैक्सी मिल जाएगी. बड़ाबे गांव, प्रकृति की गोद में बसा, चारो तरफ हरियाली और नीले आसमान का अद्भुत रंग समेटे हुए.
लटेश्वर मंदिर गुफा अत्यंत संकरी है जहाँ पहुँचना दुष्कर कार्य है. गुफा के भीतर स्वच्छ जल का स्त्रोत है. स्थनीय लोग इसे गुप्त गंगा मानते हैं और इसके जल को गंगा के समान पवित्र. कहा जाता है कि इस जल के प्रयोग से चर्म रोग समाप्त हो जाते हैं और बच्चों का हकलाना बन्द हो जाता है. पहले पूजा-अर्चना गुफा मंदिर में ही होती थी. वर्तमान में ग्रामवासियों के प्रयास से एक मंदिर और एक धर्मशाला का निर्माण यहाँ हो गया है.
लटेश्वर देवता जिन्हें नंदीगण कहा जाता है अपने अधीनस्थ अपने 52 गणों के अग्रपति हैं. शरद पूर्णिमा को लगभग 2000 श्रद्धालुजन यहां आकर रात्रि में निराहार रहकर पूजा, भजन-कीर्तन करते हैं. प्रातः स्नान कर पुनः देव दर्शन करते हैं. फिर दोपहर को मेला लगता है.
(Lateshwar Mahadev Mandir Pithoragarh)
कहते हैं कि बड़ाबे गांव के पास हल्दू नामक जगह पर लटेश्वर देवता और एक दैत्य के बीच लड़ाई हो गयी. 22 हाथ लम्बी शिखा वाले दैत्य ने यहां खूब आतंक मचाया था. लटेश्वर देवता ने उसकी शिखा उखाड़ फैंकी और दैत्य वहां से भाग गया. लोगों का विश्वास है कि लटेश्वर देवता की कृपा से यहां अब कभी भूत-पिशाच नहीं आते.
कुमाऊँ मंडल के पूर्वोतरी क्षेत्रों का ‘लाटा’ एक बहुमान्य लोक देवता है. चम्पावत जनपद में चमलदेव के बहुपूजित देवता ‘चौमू’ का यह एक गण था. चौमू के देवगाथाओं में कहा गया है कि जब एक दुष्ट राक्षस का वध करने के लिए चौमू ने अपने एक अन्य गण के साथ उसे (लाटा) भेजा था तो शक्तिशाली दैत्य ने दोनों को परास्त कर एक की जीभ तथा दूसरे की टांग तोड़ डाली थी. फलतः जीभ काटने से गूंगा (लाटा) हो जाने से वह लाटा कहा जाने लगा और इसी नाम से पूजा भी जाने लगा.
(Lateshwar Mahadev Mandir Pithoragarh)
थलकेदार क्षेत्र में इन्हें यहाँ के क्षेत्रपाल/भूमि रक्षक देवता के रूप में पूजा जाता है. इसकी मान्यता सोर पिथौरागढ़ के अनेक गाँवों में भी एक भूमि रक्षक लोकदेवता के रूप में पायी जाती है.
मूल रूप से गंगोलीहाट की रहने वाली सुमन जोशी फिलहाल नैनीताल में रहती हैं और कुमाऊँ विश्वविद्यालय से इतिहास से पीएचडी कर रही हैं. कविताएँ और लेख लिखने का, घूमने का और फोटोग्राफी का बहुत शौक है. उत्तराखंड के लोक जीवन और संस्कृति से पूरे देश को अवगत कराना चाहती हैं.
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