अंग्रेज़ी की कक्षाएं बन्द हो गई थीं और उस पीरियड में सीनियर बच्चों को पढ़ाने वाले एक बहुत बूढ़े मास्साब अरेन्जमेन्ट के बतौर तशरीफ़ लाया करने लगे. वे बहु्त शरीफ़ और मीठे थे. वे एक प्रागैतिहासिक चश्मा पहनते जिसकी एक डण्डी थी ही नहीं. डण्डी के बदले वे एक सुतलीनुमा मोटा धागा बांधे रहते थे जो उनके एक कान के ऊपर से होकर खोपड़ी के पीछे से होता हुआ दूसरे कान पर सुसज्जित डण्डी के छोर पर किसी जुगाड़ से फंसाया जाता था. चश्मे के शीशे बहुत मोटे होते थे और लगता था कि शेरसिंह की दुकान वाले चाय के गिलासों की पेंदियों को लेन्स का काम करने हेतु फ़िट किया गया हो. उनके पास ‘गंगाजी का बखान’ नामक एक कल्याणनुमा किताब हमेशा रहती थी. किताब के लेखक का नाम गंगाप्रसाद ‘गंगापुत्र’ अंकित था. वे उसी को सस्वर पढ़ते और भावातिरेक में आने पर अजीब सी आवाज़ें निकाल कर गाने लगते.
यह रहस्य कोई एक हफ़्ते बाद लालसिंह के सौजन्य से हम पर उजागर हुआ कि गंगाप्रसाद ‘गंगापुत्र’ कोई और नहीं स्वयं यही बूढ़े मास्साब हैं. मास्साब का शहर में यूं भी जलवा था कि ‘गंगोत्री चिकित्सालय’ नाम से वे एक आयुर्वेदिक, यूनानी दवाख़ाना चलाते थे. गंगाप्रसाद ‘गंगापुत्र’ आकंठ गंगाग्रस्त थे और हर पीरियड में अपने महाग्रंथ से हमारी ऐसीतैसी किया करते. वे थोड़ा सा तुतलाते थे और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में लिखी अपनी ऋचाओं को सुनाने के उपरान्त उनकी संदर्भरहित व्याख्या किया करते: “कवि कैता है कि प्याली गंगे, मैं तो तेरा बच्चा हूं! और गंगामाता कवि से कैती है कि मेरे बच्चे मैं तो तेरी मां हूं! फिर कवि कैता है कि प्याली गंगे, हमने तुज पे कित्ते अत्याचार किए …”
एक साइड से लफ़त्तू की दबी सी तोतली आवाज़ आती: “जित का बत्ता इत्ता बुड्डा है वो गंगा कित्ती बुड्डी होगी बेते! दला पूतो तो प्याली मात्तर ते!” गंगाप्रसाद ‘गंगापुत्र’ के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती और उनका प्याली गंगे पुराण रेंगता जाता. लालसिंह ने यह भी बाद में बताया कि मास्साब को दिखाई भी बहुत कम देता है और सुनाई भी. लफ़त्तू ने गंगाप्रसाद ‘गंगापुत्र’ का नामकरण ‘प्याली मात्तर’ कर दिया था और यह नाम सीनियर्स तक में चर्चा का और जूनियर्स में लफ़त्तूकेन्द्रित ईर्ष्या का विषय बन गया.
इधर कुछ व्यक्तिगत कारणों से दुर्गादत्त मास्साब लम्बे अवकाश पर चले गए थे और टोड मास्साब की क्लास के तुरन्त बाद पड़ने वाले उनके वाले पीरियड में भी यदा-कदा प्याली मात्तर हमारी क्रूरतापूर्ण हर-हर गंगे किया करते थे. लफ़त्तू लगातार बोलता रहता था और पिक्चरों की कहानी सुनाना सीख चुकने के अपने नवीन टेलेंट पर हाथ साफ़ किया करता: “… उत के बाद बेते, हौलीतौप्तल छे धलमेन्दल भाल आया और उतने अदीत छे का – तुम थब को तालों तलप छे पुलित ने घेल लिया ऐ, अपनी पित्तौल नीते गेल दो. … उतके बाद बेते अदीत एक तत्तान के पीते थुप के धलमेन्दल छे कैता है – मुदे मालने ते पैले अपनी अम्मा की लाछ ले दा इन्पैत्तल! … धलमेन्दल कैता है कुत्ते थाले, मैं तेला खून पी दाऊंगा … ”
एक तरफ़ से तोतली हर-हर गंगे, दूसरी तरफ़ से धरमेन्दर और अजीत के क्लाइमैक्स वाले तोतले ही डायलॉग्स और बाकी दिशाओं से स्याही में डूबी नन्ही गेंदों का फेंका जाना – यह नित्य बन गया दृश्य जब एक दिन हमारी कक्षा के पास से टहलते जा रहे प्रिंसीपल साहब ने देखा तो वे पीतल के मूठवाली अपनी आभिजात्यपूर्ण संटी लेकर हम पर पिल पड़े. जब तीन चार बच्चों ने दहाड़ें मार-मार कर रोना चालू किया, तब जाकर प्याली मात्तर ने गंगपुराण बन्द किया और आंखें उठाकर नवागंतुक प्रिंसीपल साहब की आकृति को श्रमपूर्वक पहचाना. कुछ औपचारिक बातचीत के बाद दोनों गुरुवर कुछ गहन विचार विमर्श करते हुए कक्षा के बाहर दरवाज़े पर खड़े हो गए. इतने में प्रिंसीपल साहब के मामा यानी मुर्गादत्त मास्साब उर्फ़ परसुराम वहां से पान चबाते निकले. क्लास के बाहर खड़े प्रिंसीपल साहब और प्याली मात्तर को वार्तालापमग्न देख उन्होंने पीक थूकी और उक्त सम्मेलन में भागीदार बनने की नीयत से उस तरफ़ आने लगे.
दरवाज़े पर मुर्गादत्त मास्साब ने “प्रणाम कक्का” कहते हुए प्याली मात्तर के पैर इस शैली में छुए मानो उनकी जेब काट रहे हों या होली के टाइम किया जाने वाला आकस्मिक मज़ाक कर रहे हों. प्रिंसीपल साहब की तरफ़ उन्होंने एक बार को भी नहीं देखा और आधे मिनट से कम समय में सारी बात समझ कर प्रिंसीपल साहब के हाथ से संटी छीनी और “अभी देखिये कक्का” कहते हुए हम पर दुबारा हाथ साफ़ किया. “अपनी मां-भैंनो से पूछना हरामज़ादो मैं तुम्हारे साथ क्या-क्या कर सकूं हूं. और खबरदार जो साला एक भी भूतनी का रोया तो!” एक हाथ से संटी को मेज पर पटकते और दुसरे से अपने देबानन-स्टाइल केशझब्ब को सम्हालते उन्होंने इतनी तेज़ आवाज़ निकाली कि अगल-बगल की सारी क्लासों के अध्यापक बाहर आकर कक्षा छः (अ) की दिशा में ताकीकरण-कर्म में तल्लीनतापूर्वक व्यस्त हो गए.
घन्टा बजने के बाद मास्टरों के तिगड्डे के लिए हम जैसे मर गए. वे ख़रामा-ख़रामा मुर्गादत्त मास्साब का अनुसरण करते किसी दिशा में निकल पड़े. “छाला हलामी लाजेस्खन्ना का बाप!” औरों को बचाने के चक्कर में अपने पृष्ठक्षेत्र पर असंख्य संटियां खा चुके लफ़त्तू ने ज़मीन पर थूका. “इत्ते तो दुल्गादत्त मात्तर छई है याल!”
लफ़त्तू की दुआ सुनी गई और अगले रोज़ प्याली-गंगे की चाट का ठेला उठते ही अपने पुरातन धूल खाए कोट और हाथों मे सतत विराजमान कर्नल रंजीत समेत दुर्गादत्त मास्साब सशरीर उपस्थित थे.
“टेस्टूपें कल ले आबें सारे बच्चे! और दद्दस पैसे भी!” अटैन्डेन्स से उपरान्त यह कहकर वे उपन्यास पढ़ने ही वाले थे कि उन्हें पता नहीं क्या सूझा. उन्होंने उपन्यास जेब के हवाले किया और कुर्सी पर लधर गए. “मैं मुर्दाबाद गया था बच्चो! मुर्दाबाद भौत बड़ा सहर है. और हमाये रामनगर जैसे, आप समल्लें, सौ सहर आ जावेंगे उस में.”
मुरादाबाद में दुर्गादत्त मास्साब की ससुराल थी जहां उनके ससुर दरोगा थे. इतनी सी बात बताने में उन्होंने बहुत ज़्यादा फ़ुटेज खाई और हमें छोटे क़स्बे का निवासी होने के अपराधभाव से लबरेज़ कर दिया. आख़िर में उन्होंने एक क़िस्सा सुनाया: “परसों मैं और मेरा साला जंगल कू गए सिकार पे. और सिकार पे क्या देखा तीन बब्बर सेर रस्ता घेरे खड़े हैं. जब तक कुछ समजते तो देखा कि दो बब्बर सेर पीछे से गुर्राने लगे. हमाये साले साब तो, आप समल्लें, व्हंई पे बेहोस हो गए. मैंने सोची कि दुर्गा आत्तो तेरी मौत हो गई. मुझे तुम सब बच्चों की याद भी आई. मैंने सोची अगर मैं मर गया तो तुमें बिग्यान कौन पढ़ाएगा. और टेस्टूपें भी बेकार जावेंगी. मैंने दो कदम आगे बढ़ाए तो सबसे बड़ा सेर बोला: ‘मास्साब आप जाओ! हम तो सुल्ताना डाकू का रस्ता देख रये हैं.’ अब मेरी जान में जान आई मगर साले साब तो बेहोस पड़े थे. तब उसी बड़े सेर ने हमाये पीछे खड़े एक सेर से कई कि साले साब को अपनी पीठ पे बिठा के जंगल के कोने तक छोड़िआवे. तो आप समल्लें कि जंगल का छोर आने को था कि साले साब को होस आ गया. मेरे पीछे सेर ऐसे चलै था जैसे कोई पालतू कुत्ता होवे. साले साब की घिग्घी बंध गई जब उन्ने खुद को सेर की पीठ पे देखा. …”
क़िस्सा ख़त्म होते न होते घण्टा बजा और मास्साब ने हमें बताया कि कैसे साले साहब की जान बचाने की वजह वे से मुरादाबाद में रामनगर का झंडा फ़हरा कर लौटे हैं. सारे बच्चे नकली ठहाके लगा कर ताली पीटने लगे. उनका क़िस्सा कोरी गप्प था पर दुर्गादत्त मास्साब जैसे ज़ालिमसिंह के मुंह से उसे सुनना ख़ुशनुमा था. इस पूरे पीरियड में लफ़त्तू मास्साब के नए जुमले “आप समल्लें” को पकड़ने वाला पहला बच्चा था: “आप छमल्लें मात्ताब छमज लये हम थब तूतियम छल्फ़ेत हैं.”
तूतियम छल्फ़ेत यानी चूतियम सल्फ़ेट हमारे जीवन में अग्रजों के रास्ते पहुंची पहली कैमिकल गाली थी. अगले ही दिन पता चला कि दुर्गादत्त मास्साब भी इस गाली के दीवाने थे.
अगले दिन अटैन्डेन्स दुर्गादत्त मास्साब ने ली. इस दौरान लालसिंह ने सारे बच्चों से दस-दस के सिक्के इकठ्ठे किये और बन्सल मास्साब की दुकान से जल्दी जल्दी दो थैलियां ले कर वापस लौटा. एक थैली में चीनी थी और दूसरी में नमक.
मास्साब के पीछे-पीछे हम सब क़तार बना कर परखनलियों की अपनी-अपनी जोड़ियां लेकर परजोगसाला की तरफ़ रवाना हुए. परजोगसाला-सहायक चेतराम ने मास्साब को नमस्ते की और हिकारत से हमें देखा. हलवाई के उपकरणों, भूतपूर्व बारूदा-बीकरों वाली मेज़ों और कंकाल वाली अल्मारियों के आगे एक बड़ा दरवाज़ा था. इसी के अन्दर थी परजोगसाला की रसायनविज्ञान-इकाई. विचित्रतम गंधों से भरपूर इस कमरे में तमाम शीशियों में पीले, हरे, नीले, लाल, बैंगनी द्रव भरे हुए थे. बीकर और कांच के अन्य उपकरणों की उपस्थिति में वह सचमुच साइंस सीखने वाली जगह लग रही थी.
तनिक ऊंचे एक प्लेटफ़ॉर्म पर मास्साब खड़े हुए. लालसिंह के हाथ से चीनी-नमक लेकर उसे चेतराम को थमा कर मास्साब ने गला खंखार कर कहना शुरू किया: “बच्चो, आज से हम बास्पीकरण सीखेंगे. चाय बनाते हुए जब पानी गरम किया जावे है तो उसमें से भाप लिकलती है. इसी भाप को साइंस में बास्प कहा जावे है. और अंग्रेज़ी में आप समल्लें इस का नाम इश्टीम होता है. चाय की गरम पानी को कटोरी से ढंक दिया जावै तो भाप बाहर नईं आ सकती और कटोरी गीली हो जा है. और जो चीज़ गीली होवै उसे द्रब कया जावे. द्रब से भाप बने तो बिग्यान में उसे बास्पीकरण कैते हैं और जब भाप से द्रब बने तो द्रबीकरण. आज हम परजोग करेंगे बास्पीकरण का.”
चेतराम चीनी और नमक को अलग-अलग ढक्कन कटे गैलनों में पानी में घोल चुका था और मास्साब को देख रहा था. “अब सारे बच्चे अपनी टेस्टूपों में अलग – अलग नमक और चीनी का घोला ले लेवें और चेतराम जी से सामान इसू करा लें.”
चेतराम ने हर बच्चे को परखनली पकड़ने वाला एक चिमटा और एक स्पिरिट-लैम्प इसू किया. हमने इन उपकरणों की मदद से दोनों परखनलियों के घोले को सुखाना था. यह कार्य बहुत जल्दी-जल्दी किया गया. स्पिरिट लैम्प की नीली लौ पर टेस्टूप में खदबदाते पानी को देखना मंत्रमुग्ध कर लेने वाला था. मास्साब बता चुके थे कि परजोग की कक्षा दो पीरियड्स तक चलनी थी. लफ़त्तू जैसा बेचैन शख़्स तक मन लगा कर परखनली पर निगाहें टिकाए था.
कुछ देर बाद सारा पानी सूख गया और परखनलियों के पेंदों में बर्फ़ जैसी सफ़ेद तलछट बची. यह नमक और चीनी था जिसे हमने बरास्ता बास्पीकरण नमक और चीनी से ही बनाया था. दूसरा घन्टा बजने में बहुत देर थी और स्पिरिट लैम्पों के साथ कुछ और करने की इच्छा बहुत बलवती हो रही थी. लफ़त्तू ने यहां भी अवांगार्द का काम किया और रंगीन शीशियों से दो एक द्रब निकालकर परखनली में गरम करना शुरू किया. लफ़त्तू की देखादेखी एक-एक कर सारे बच्चों ने अलग – अलग रसायन-निर्माण का प्रोजेक्ट उठा लिया. हवा में अजीबोग़रीब गंधें और धुंए फैलना शुरू होने लगे. इस का पहला क्लाइमैक्स एक मुन्ना टाइप बच्चे की टेस्टूप के ‘फ़टाक’ से फूटने के साथ हुआ.
इसे सुनते ही दुर्गादत्त मास्साब का “हरामज़ादो!” कहते हुए उपन्यास छोड़ना था और सारे बच्चों ने स्पिरिट लैम्पों से हटाकर अपनी टेस्टूपें लकड़ी के स्टैंडों में धंसा दीं. लाल आंखों से एक-एक बच्चे को घूरते दुर्गादत्त मास्साब सारी क्लास से कुछ कहने को जैसे ही लफ़त्तू के पास ठिठके, लफ़त्तू के बनाए रसायन वाली परखनली से तेज़-तेज़ धुंआ निकलना शुरू हुआ. मास्साब की पीठ उस तरफ़ थी. घबराया हुआ लफ़त्तू परजोगसाला से द्वार तक लपक चुका था. अचानक से परखनली और भी तेज़ फ़टाक के साथ चूर-चूर हो गई. मास्साब घबरा कर हवा में ज़रा सा उछले. पलटकर उन्होंने “साले चूतियम सल्फ़ेट! इधर आ हरामी!” कहकर लफ़त्तू को मारने को अपना हाथ उठाया पर तब तक लफ़त्तू संभवतः बौने के ठेले तक पहुंच चुका था.
“जिस साले ने मुझ से पूछे बिना एक भी सीसी छुई तो सारी सीसियां उसकी पिछाड़ी में घुसा दूंगा. अब चलो सालो फ़ील्ड पे …”
लतियाते-फटकारते हमें फ़ील्ड ले जाया गया जहां तेज़ धूप में मुर्गा बना कर हमारे भीतर बची-खुची वैज्ञानिक-आत्मा के बास्पीकरण का सफल परजोग सम्पन्न हुआ.
(ब्लॉग http://lapoojhanna.blogspot.com से साभार)
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