किताब उठाते ही लगता है किसी जादूगर ने काले लंबे हैट में हाथ डालकर एक कबूतर निकाल दिया हो. किताब पढ़कर आप ख़त्म नहीं कर पाते. कबूतर के पंख हाथ में फड़फड़ाते हैं. किताब के सफ़हे दिलो-दिमाग पर चिपके रह जाते हैं. बार-बार लफत्तू, लाल सिंह, नसीम अंजुम की शीरीं ज़ुबाँ आप पर तारी होने लगती है. बार-बार बमपकौड़ा, सफ़री और खील का स्वाद जीभ पर घुलने लगता है. बार-बार आप उस दौर में लौट जाते हैं, कहानी में लौट जाते हैं, किस्सागो की रवानी में लौट जाते हैं. (Book Review by Amit Srivastava)
कोई कथानक है क्या लपूझन्ना का? मज़े की बात है कि कोई एक कहानी नहीं है. आदि-अंत के नुमायाँ सिरों से हीन, बहुत सारी कथाओं से गढ़ा गया एक कालखंड है बस. एक भूगोल है, एक संस्कृति है और एक छोटे से कस्बे भर में दुनिया भर का फैलाव लिए कुछ कमसिन दोस्तों की जिंदगी का सरमाया है.
सत्तर-अस्सी के दशक का एक भारतीय कस्बा है केंद्र में. अमूमन हम नब्बे के दशक को लेकर बहुत वैचारिक हो उठते हैं. जब आई टी ने, जैव-प्रौद्योगिकी, अभियांत्रिकी ने रोजी-रोटी से लेकर रहन-सहन तक आम जीवन के हर पहलू में आद्यांत बदलाव कर दिये. गांवों-कस्बों-महानगरों की शक्ल-ओ-सूरत बदल दी. जब अर्थव्यवस्था ने पलटी खाई, जब राजनीति ने बड़ी करवट ली, जब देशी-विदेशी संस्कृतियों के सांद्र झोल ने सब गड्डमड्ड कर दिया, हम उस नब्बे के दशक के काल को अपने विमर्श का केंद्र बनाते हैं. लेकिन जिस कालखंड यानी सत्तर-अस्सी के दशक ने घोड़ा बनकर आने वाले समय को उचकने के लिए अपनी पीठ दी उसका क्या?
`क्लॉक ऑफ़ द लॉंग नाउ’ पुस्तक में स्टूअर्ट ब्रांड कम्प्यूटर वैज्ञानिक डैनीएल हिलिस का 1993 में दिया कथन उद्घृत करते हैं- “मेरे पूरे जीवनकाल में भविष्य एक वर्ष प्रति वर्ष की रफ्तार से संकुचित होता जा रहा है. जब मैं छोटा बच्चा था तब लोग ये कहा करते थे कि साल 2000 तक जाने क्या-क्या बदलाव हो जाएगा आज भी लोग यही कहते हैं कि साल 2000 तक जाने क्या-क्या बदलाव हो जाएगा और इसकी वजह ये है कि हमारा `अटेंशन टाइम’ बहुत कम हो गया है.“ अगर डैनीएल हिलिस की बात `फ़्यूचर हैज़ बीन शृंकिंग बाई वन ईयर पर ईयर फ़ॉर माई एंटायर लाइफ़’ का विपरीत करें तो भी ये बात सच लगती है. हिस्ट्री हैज़ बीन शृंकिंग बाई वन ईयर पर ईयर ऑर इन एनी अदर सिमिलर स्पीड! घटे हुए अटेंशन टाइम की वजह से हमारी इतिहास दृष्टि भी संकुचित हुई है. इसमें खूब सारा नॉस्टेल्ज़िया तो है पर वो वैचारिक और तथ्यात्मक संतुलन नहीं मिलता. ‘हमारी पीढ़ी और तुम्हारी पीढ़ी’ का गल्दश्रु विलाप है, इतिहास को तोड़-मरोड़ देने की साज़िशें हैं और पुनर्लेखन के प्रयास हैं लेकिन एक उदार दृष्टि सिरे से नदारत है.
ऐसे में ये किताब बीते हुए पलों को देखने और भोगने का दूसरा मौका देती है. उस दौर को बेहद तटस्थ लेकिन तन्मय भाव से सामने रख देती है. उसकी सुंदरता और बदसूरती के साथ. जिस तरह का समाज कस्बों की बुनावट में ठहरा हुआ था और परिवर्तन की जो भी खदबदाहट थी उसे उस दौर की ही भाषा-भाव-तौर-तर्ज़ पर बयान कर देना एक जादू जैसा ही है.
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किताब में जो कुछ भी दिखता है वो पहली बार नहीं दिखा है, वो आखिरी बार दिखाने का दावा भी नहीं है, लेकिन जिस तरह से दिखता है वो अलहदा है. देखना चाहें तो दिखता है कि यहाँ बिना किसी बात का दम भरते हुए सांप्रदायिकता, सामाजिक भेद-भाव, असमानता की मुखालिफ़त है, आपसी सौहार्द और प्रेम की वकालत है. यानी एक तरह से बिना किसी विचार प्रदर्शन के भी विचार उपस्थित है. दिखता है कि किताब के पेशलफ़्ज़ से आख़िरी लफ़्ज़ तक इसका मूल विचार प्रेम है, मूल भाव प्रेम है, मूल प्रतिबद्धता प्रेम है! यहाँ ये बात भी कहनी होगी कि किसी किताब की भूमिका को इस तरह से डूबकर लिखा जाए कि वो भी किताब का ही एक अभिन्न अंग नज़र आने लगे तो जादू मुकम्मल होने लगता है.
लपूझन्ना का ज़ाहिरा आकर्षण उसका कथोपकथन है. पात्रों की भाषा और बोलने का तरीका साहित्य की दुनिया में एक ताज़ी हवा के जैसा है. समकालीन परिदृश्य में एक तरफ तो वो भाषा है जो आम जनता से बात ही नहीं कर रही. हालांकि बात न कर पाने की अहमन्यता-असमर्थता दोनों तरफ से है. जनता के जीवन में साहित्य के लिए जगह कम होती गई है तो साहित्य में भी साहित्य होने का आग्रह कुछ इस भंगिमा में है कि यहाँ जनता का जीवन उपस्थित तो है लेकिन अपनी जीवन भाषा छोड़कर आया हुआ सा.
दूसरी तरफ वो भाषा है जो अपने साहित्यिक अलंकरण उतारने की ज़िद में डूबी कपड़े तक उतार देने के लिए तैयार बैठी है. अपने हाथ-पांव कटवा देने के लिए तत्पर. इस परिदृश्य में लपूझन्ना की भाषा बहुत सशक्त नज़र आती है. साहित्य का भविष्य मेरी नज़र में इसी भाषा में है. वो जो लफत्तू, सकीना और हरिया हकले की भाषा है. जीवन रस में रची-पगी. बेकार के आभूषणों को हटाकर. सादी और सच्ची. संचार के सभी वाचिक-अवाचिक तरीकों से परिपूर्ण. याद नहीं पड़ता कि संवाद में फोनेटिक्स का इतना बेहतरीन इस्तेमाल आख़िरी बार कहाँ देखा था. बिल्कुल सिनेमाई. वैसे भी आदर्श रूप में किताब की भाषा कहीं भी लेखक की कम पात्र की ज़्यादा होनी चाहिए. कहीं अगर कुच्चू, फुच्ची, दुर्गादत्त मास्साब जैसे चरित्र आएंगे, शान से बमपकौड़े खाएँगे तो गाना इसी तरह से तो गाएँगे-
अजीरो ठकर अब काँ जाइएगा
जाँ जाइएगा मुजे पाइएगा
किसी भी उम्र के चरित्र की बात करने पर लेखक को उसकी उम्र की तरह सोचना पड़ता है और जितना बड़ा फासला लेखक की उम्र और उस चरित्र की उम्र में होगा चरित्र-चित्रण में चुनौती उतनी ही बड़ी होगी. लपूझन्ना में टीन एज के तुरंत पहले वाली संक्रमणकालीन आयु के पात्र हैं. उनकी `रेंज ऑफ साइट’ जितनी कम होती है, `रेंज ऑफ फायर’ या कहें कि नज़र को फैलाने का माद्दा उतना ही ज़्यादा. उनके चरित्र में उतरना उनकी बातों में, कहानियों में, सपनों में एक साथ उतरना होता है. कमाल देखिए कि लपूझन्ना का हर पात्र अपनी उम्र, तजुर्बे और तर्बियत के हिसाब से सामने आता है. लेखक का हुनर ही तो है कि `इंसान में इंसान का ग्लैमर’ रखने वाला लफत्तू, लफत्तू के जैसा लगता है ज़ियाउल, ज़ियाउल के जैसा और असोक, अगर आप अशोक पांडे को जानते हों, ठीक अशोक जैसा.
आत्मकथात्मक किताबों की दूसरी चुनौती अपने आस-पास के लोगों को तटस्थ भाव से प्रस्तुत करने में है. आपके पूर्वाग्रह आपको घेरते हैं, बहुत करीबी लोगों से कटुता होने की संभावनाएं पैदा हो जाती हैं. ये कहना आसान है कि लेखक को सच कहने में नहीं डरना चाहिए, साबित करना बहुत मुश्किल. लपूझन्ना एक तरह से बेबाक आत्मकथात्मक उपन्यास है. उसने इस मुश्किल को आसान करने का फ़ॉर्म्युला हमें दिया है. वो फ़ॉर्म्युला है प्रेम से सराबोर एक साफ़, बारीक़ मगर तिरछी नज़र. हम अपने आस-पास के लोगों पर कितनी मुलायम नज़र रख सकते हैं, उनकी मासूमियत उनकी चालाकियों को किस भंगिमा में प्रस्तुत कर सकते हैं कि अपनी पक्षधरता और विश्वास से समझौता न हो, उसका शानदार उदाहरण है ये उपन्यास. लेखन का कमाल इसी में है कि आपको ये न कहा जाए कि आप रोइए और आप रोने लगें, ये न कहा जाए कि लीजिए पेश है ह्यूमर पर आप हंसने लग जाएं, ये ना कहा जाए कि ये चीज़ बुरी है पर आप उसे दिल से उतार दें, ये न कहा जाए कि… ख़ैर छोड़िए! नसीम अंजुम को क्यों लाना बार-बार.
किताब बिलाशक एक ट्रेंड सेटर है. एक टर्निंग प्वाइंट. भाषा और कथ्य दोनों मामलों में. मेरा कहना है कि इसे भारतीय अंग्रेज़ी नॉवेलों में चल रहे कॉलेज रोमांस के बरक्स नहीं बल्कि किसी भी भाषा के गम्भीर वैचारिक उपन्यासों के सामने रख कर पढ़ा जाना चाहिए. वैचारिकी की जैसी महीन तराश यहाँ है उसके बरक्स मुझे `द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ द थंडरबोल्ट किड’, `द काइट रनर’, `टू किल अ मॉकिंगबर्ड’ जैसे नाम ही सूझ रहे हैं.
ट्रेंड सेटर इस लिहाज़ से भी कि आने वाले समय में भाषा और पृष्ठभूमि के इस तरह के प्रयोग बहुत से होने हैं. इस बात पर गम्भीर बहस होनी है कि कैसे गंभीर से गंभीर राजनैतिक सामाजिक मुद्दों को प्रकारांतर से चुटकियां बजाते हुए बहस में लाया जा सकता है. उपन्यास विशुद्ध फ़िक्शन हो या बायोग्राफ़िकल. चिली के उपन्यासकार अल्हेंद्रो जांब्रा अपनी किताब ‘वेज़ ऑफ़ गोइंग होम’ में कहते हैं “यद्यपि हम सुनाना तो चाहते हैं दूसरों के कहानियाँ पर अंततः हम अपनी ही कहानी कहते हैं.” लपूझन्ना की ख़ासियत यही है कि वो अपनी कहानी कहते-कहते दूसरों की कहानी कहता है. बल्कि यूँ कहें कि अपने पूरे समाज और समय की कहानी कहता है. फिर समाज और समय से घूमकर वो अचानक ही लेखक की कहानी बन जाता है. हैट का कबूतर वापस हैट में मखमली रूमाल में तरमीम हो जाता है. आसमान से फूल झरने लग जाते हैं. (Book Review by Amit Srivastava)
लपूझन्ना जादू है!
अमेज़न और फ्लिपकार्ट पर किताब का पता यह रहा:
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जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव उत्तराखण्ड कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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सच में लपूझन्ना जादू ही है 💐