हिमालय को महादेव का वासस्थल माना जाता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मस्त-मलंग शिव-शंकर, भोलेनाथ को हिमालय में रमना प्रिय है. लिहाजा उत्तराखण्ड की देव भूमि में सर्वाधिक लोकप्रिय भगवान शिव ही हैं. उत्तराखण्ड में शिव के कई रूपों की पूजा की जाती है.
इन्हीं में एक हैं लम्बकेश्वर देवता जिन्हें स्थानीय ग्रामीण लमकेश्वर देवता भी कहते हैं. शिव के लम्बकेश्वर रूप का जिक्र पुराणों में भी मिलता है. पिथौरागढ़ जिले के बेड़ीनाग और गंगोलीहाट के बीच एक गाँव है झलतोला. झलतोला पहुँचकर 4-5 किमी की चढ़ाई चढ़ने के बाद शिव के लम्बकेश्वर रूप का एक मंदिर आता है. मंदिर में शिव का ज्योतीर्लिंग स्थापित है. बेरीनाग, चौकोड़ी और इसके आस-पास का समूचा क्षेत्र हिमालय के नयनाभिराम दृश्यों के लिए दुनिया भर में जाना जाता है. यहाँ से हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएं जितनी विस्तृत, नजदीक और स्पष्ट दिखाई देती हैं वैसी हिमालय से इतनी ही दूरी और इतनी कम ऊंचाई वाली जगह पर कहीं और से नहीं दिखाई देती हैं. लम्बकेश्वर से हिमालय का और भी ज्यादा विस्तृत और विराट रूप दिखाई पड़ता है. यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हिमालय का ऐसा नयनाभिराम दृश्य पूरे उत्तराखण्ड में किसी अन्य जगह से नहीं दिखाई देता.
झलतोला और इसके आस-पास के गाँवों में कुथलिया बोरा जाति के लोगों की बहुतायत है. कुथलिया बोरा समुदाय को भांग के पौंधे के रेशों से कुथले तथा घराटों के पाट बनाने के लिए भी जाना जाता है. लम्बकेश्वर की पहाड़ी पर इन्हीं कुथलिया बोरों द्वारा लम्बकेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना की गयी है. मंदिर के बारे में जीआईसी, चौड़मन्या के अध्यापक और मंदिर की देखभाल करने वाले गणेश चन्द्र कोठ्यारी बताते हैं कि यह मंदिर कितना पुराना है इस सम्बन्ध में कुछ ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता मगर हमारे बाप-दादाओं ने हमेशा से इस मंदिर को देखा है. वे बताते हैं कि मंदिर का वर्तमान में जो आकार है वह मात्र 60-70 साल ही पुराना है मगर यह मंदिर बहुत पुराना है. यह मंदिर सदियों से स्थानीय ग्रामीणों की आस्था का केंद्र भी है. कई सालों से यहाँ पर्व-त्यौहारों के मौके पर गंगोलीहाट के पास के गाँव मातोली के जोशी और जाड़ापानी गाँव के कोठ्यारियों द्वारा पूजा-अर्चना करने की परम्परा रही है.
मंदिर की स्थापना के सम्बन्ध में जनश्रुति है कि आज से 200-300 साल पहले कभी इस पहाड़ी पर स्थानीय कुथलिया बोरा लोगों के ग्वाले अपनी गाय चराने जाया करते थे. इन गायों में एक गाय ऐसी भी थी जिसके थन दिन भर चरने के दौरान दूध से भरे रहते थे, लेकिन रात को घर लौटने से पहले ही उसका दूध रहस्मयी तरीके से गायब हो जाता था. घर लौटने पर जब उसे दुहा जाता तो उसके थनों में दूध का कतरा तक नहीं पाया जाता था. यह सोचकर कि इस गाय का दूध कोई चोरी कर रहा है, इस रहस्य से पर्दा उठाने के लिए गाँव वालों ने इस गाय का पीछा किया. ग्रामीणों ने यह पाया की एक स्थान पर आकर यह गाय स्वयं ही वहां खड़े होकर अपना दूध दूह देती है. उस जगह गौर करने पर पाया गया कि यहाँ एक शिवलिंग है. इस जगह की खुदाई करने पर पाया गया कि इस शिवलिंग का कोई ओर-छोर नहीं है. यह धरती पर अनंत तक धंसा हुआ है. तभी से स्थानीय ग्रामीणों ने यहाँ पूजा-अर्चना शुरू कर दी. यह भी कहा जाता है कि एक बार एक महात्मा ने इस शिवलिंग को गहराई से ऊपर उठाने की भरसक कोशिश की लेकिन यह नहीं उठा. बल्कि इसका आकार और ज्यादा बढ़ता चला गया.
इस मंदिर से जुड़ी एक कहावत यह भी है कि 1920 में ब्रिटिश शासन के दौर में झलतोला स्टेट में अंग्रेजों का एक बँगला हुआ करता था. उस समय इस बंगले में एक अंग्रेज अधिकारी टफ साहब रहा करते थे. एक दफा टफ साहब शिकार करने के लिए झलतोला से इस जगह पर आये जहाँ पर लम्बकेश्वर महादेव का लिंग स्थापित था. जब उनका लश्कर यहाँ पहुंचा तो उनके स्थानीय सेवकों ने यहाँ शिवलिंग के सामने सर नवाजा और पूजा-अर्चना करने लगे. टफ साहब ने यह देखकर ग्रामीण सेवकों का मजाक बनाना शुरू किया. उन्होंने कहा कि तुम लोग बेवकूफ हो जो इस पत्थर को पूजते हो. ऐसा कहने के साथ ही उन्होंने हिकारत का भाव दिखाते हुए लिंग पर अपनी बंदूक से गोली चला दी. ऐसा करते ही उनके पांवों में लकवा पड़ गया. उनके पैरों ने काम करना बंद कर दिया. किसी तरह सेवक उन्हें गोद में उठाकर वापस लाये. इस घटना से न सिर्फ स्थानीय लोगों की इस ज्योतिर्लिंग पर आस्था बढ़ी वरन आस-पास के इलाकों में भी इस स्थान की यश-कीर्ति चर्चित होने लगी.
इस मंदिर में कभी कोई स्थायी पुजारी नहीं रहा. स्थानीय ग्रामीण ही मिल-जुलकर इस मंदिर की देखभाल किया करते थे. 1960 में राजस्थान से एक महात्मा निर्मल दास बाबा यहाँ आये. उन्होंने 40 सालों तक घने जंगल से घिरे इस निर्जन में अकेले ही तपस्या की. बताया जाता है कि उस समय स्थानीय ग्रामीण भी यहाँ यदा-कदा ही आया करते थे. पीने के पानी और भोजन का कोई भी साधन तब यहाँ पर नहीं था. निर्मल बाबा ने तब ग्रामीणों को बताया कि जंगली जानवर ही उनके संगी-साथी हैं और उनके लिए कंद-मूल इत्यादि के रूप में भोजन की व्यवस्था भी यही जंगली जानवर करते हैं. निर्मल बाबा की प्राकृतिक मृत्यु पर उनके शरीर को भी उन्हीं की इच्छा के अनुरूप इन जंगली जानवरों के लिए छोड़ दिया गया था.
इसके बाद राजस्थान से ही 1985 के आस-पास बाबा माधवदास यहाँ आये. उन्होंने स्थानीय ग्रामीणों के सहयोग से लम्बकेश्वर मंदिर का निर्माण किया. उन्होंने ही राजस्थान से भगवान विष्णु की मूर्ति लाकर झंडी धार में विष्णु मंदिर की भी स्थापना की. वर्तमान लम्बकेश्वर महादेव मंदिर से ऊंचाई की चोटी को झंडीधार कहा जाता है. इस चोटी से चारों ओर हिमालय की लगभग सभी चोटियां स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं. अंग्रेजों द्वारा यहाँ एक झंडा गाड़ा गया था, जिस वजह से इस जगह का नाम झंडीधार पड़ गया. आज इस जगह पर माधव दास द्वारा निर्मित भगवान विष्णु का मंदिर है.
स्थानीय उत्सव-पर्वों पर ग्रामीण यहाँ पर पूजा-अर्चना के लिए आया करते हैं. लम्बकेश्वर मंदिर में अश्विन मास की पूर्णिमा को मेला लगता है. इस अवसर पर स्थानीय कुथलिया बोरा/कार्की फसल के पहले अनाज के रूप में भोग चढ़ाते हैं. इस दौरान यहाँ नौर्त भी लगते हैं.
माघ मास के मंगल और शिव के सावन में भी यहाँ श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है. महाशिवरात्रि के पर्व पर यहाँ विराट मेला आयोजित किया जाता है. इस मेले में दूर-दूर से 20 से 30 हजार तक श्रद्धालु इकठ्ठा होते हैं. फ्रांस, जापान और अमेरिका आदि देशों से भी लोग यहाँ पर आते हैं और योग ध्यान करते हैं.
निर्जन वन और हिमालय के विराट दर्शन से यहाँ का माहौल बेहद अध्यात्मिक बन पड़ता है. इस जगह के धार्मिक पर्यटन स्थल और योग ध्यान केंद्र के रूप में विकसित होने की बहुत अधिक संभावनाएं हैं. सरकारी संरक्षण के अभाव में यह जगह अपना वह मुकाम नहीं बना पायी है जिसकी कि यह हकदार है. इस दिशा में पहलकदमी लेते हुए स्थानीय ग्रामीणों द्वारा 2002 में मंदिर समिति की स्थापना कर सरकारी अमले का ध्यान इस तरफ खींचने की कोशिश भी की गयी मगर कोई सफलता नहीं मिली. इससे निराश होकर इस समिति के 2016 में समाप्त हो गए पंजीकरण का नवीनीकरण भी नहीं करवाया गया. इस सबके बावजूद स्थानीय ग्रामीण अपनी आस्था के चलते इस मंदिर को लगातार संवारते जा रहे हैं. आज लम्बकेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन के लिए राज्य के कई अन्य जिलों तथा देश के अलग-अलग हिस्सों से भी लोग आने लगे हैं.
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भौत बढ़िया पोस्ट लिखी राखी.....सुंदर अति सुंदर।
पौष माह के इतवारों और माघ महीने में यहाँ काफी भक्त जन आते हैं दूर दूर व आस पास के गांवो से। यहाँ के बारे में एक कहावत यह भी है कि पहले यहाँ बीच जंगल में सोने के दैवीय नौले(पानी के जल श्रोत) हुआ करते थे, ऊंचाई में होने के बावजूद यहाँ पर हमेशा बर्फ जमी रहती थी, पानी के लिये वे ही दैवीय नौले थे जिनसे जंगली जानवर यहाँ पर अपनी प्यास बुझाते थे।
आस पास के गाँव वालों के पालतू जानवर भी जब जंगल आते थे घास चरने तो वो घर लौटने के बाद पानी नहीं पीते थे, तो एक बार एक ग्रामीण को शक हुआ और वो उस दिन खुद अपने जानवरों के साथ लगा रहा तब उसने देखा कि जंगल के बीचों बीच पानी के नौले हैं और सभी जानवर अपनी प्यास वहीं पर बुझाते हैं। वो आदमी घर आया और उसने इसकी सुचना अन्य ग्रामीणों को दी। तो सभी ग्रामीण फावड़ा, सब्बल, हथौड़ा कुदाल लेकर उधर चले गए....पर वहाँ जाकर देखा तो वो देवीय नौले गायब थे। आज भी वहाँ पर जब भी कोई काम काज होता है तो पीने के पानी को ढोया जाता है। जाड़ो में तो बर्फ पीघला कर पानी तैयार किया जाता है, बर्फ पिघला कर पानी मैंने भी स्वयम पिया है.....एक बार के माघ महीने मे, तब एक बाबा हुआ करते थे वो वहाँ से बिना भोजन खिलाये नहीं जाने देते थे....हम लोगों ने खिचड़ी खाई थी, और भांग की चटनी।