बेटे के परदेश और बेटी के ससुराल जाने की पुरानी रवायत पहाड़ों में रही है. बेटों को बड़े शहर भेजना पहाड़ियों की मज़बूरी ही कहा जा सकता है. कौन जो चाहेगा उसकी अगली पीढ़ी भी पहाड़ में ही अपने हाड़ तोड़े. जीने के लिये जरुरी आधारभूत सेवाओं के बिना कौन रहना चाहेगा कहीं भी, फिर चाहे वह स्वर्ग ही क्यों न हो.
(Kutur Love From Pahadi Mothers)
पहाड़ में रहने वाला ही जान सकने वाला हुआ ही कि यहां बच्चे के पैदा होने में उसके इष्टों और पुरखों का आशीष कितना ज्यादा जरुरी हुआ. स्वास्थ्य, शिक्षा कुछ भी तो न हुआ पहाड़ में. तभी तो बेटी हो या बेटा हो, पुरखों का घर छोड़ना पहाड़ियों की नियति में ही हुआ.
बच्चे कितने भी दूर चले जाये ईजा के लाडले ही रहते हैं. बच्चों के घर आने या उनके घर से जाने के दिनों की संख्या ईजा के चेहरे के रंग से पता चल जाती है. ईजा के काम करने की गति बता देती है की बच्चे घर आने वाला हैं कि जाने वाला है.
फिर घर से दूर रहने वाले का हिस्सा रखने की परम्परा पहाड़ों में हमेशा से रही है. पहाड़ियों के तीज त्यार में इसे खूब देखा जा सकता है. मसलन, मकर संक्रांति के घुघते महीने-महीने तक बचा का रखे जाते हैं, हरेला के आशीष-वचन, चिट्ठी-पत्रों में पहाड़ से देश-परदेश कहाँ जो नहीं गये होंगे.
(Kutur Love From Pahadi Mothers)
ईजा को बच्चों के शहर जाने वाले किसी भी आदमी की खबर मिलनी चाहिये उसके हाथ एक कुटुर बना कर वो भेज ही देती है. घर के किसी कपड़े में बांधकर भेजा गया सामान कुटुर कहलाता है जिसमें अपने बच्चों के लिये ईजा का भेजा प्यार होता है. इसमें कुछ भी निकल सकता है. मौसम के अनुसार उसमें सब्जी-फल भी हो सकता है, ककड़ी, घोगा (मक्का), च्यूड़ा कुछ भी हो सकता है. हां, घर में धिनाली के अनुसार उसके हिस्से का घी, कुटुर का अनिवार्य हिस्सा जरुर हुआ.
अनजान देश-परदेश में जब ईजा का प्यार मिलता है तो सारे दुःख दूर हो जाते हैं. छः बाई दस का हास्टल का कमरा हो, दस बाई बारह का कोई कमरा हो या बारहवीं तेरहवीं मंजिल का कोई फ़्लैट, ईजा के भेजे कुटुर की खुशबू एक सा एहसास देती है, भीतर कहीं ऐसे भीगा देती है की बस आँखें ही बोलती हैं.
(Kutur Love From Pahadi Mothers)
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