कुमाऊँ के मध्यकालीन शासकों द्वारा एक विशेष नगाड़े का निर्माण करवाया जाता था. इस नगाड़े का इस्तेमाल ख़ास मौकों पर घोषणा करने के लिए किया जाता था. इसे धतिया नगाड़ा कहा जाता था.
कुमाऊनी में धात या धाद का अर्थ होता है ऊँचे स्वर में दूर-दूर तक पहुँचने की गरज से आवाज लगाना. क्योंकि इस नगाड़े के माध्यम से दूर-दूर तक के क्षेत्रों तक आवाज पहुंचाकर सन्देश दिया जाता था, अतः इसे धतिया नगाड़ा कहा जाता था. इस नगाड़े के माध्यम से लोगों को युद्ध की सूचना या फिर अचानक हुए किसी बाहरी आक्रमण की सूचना दी जाती थी.
उस दौर में पहाड़ों में त्वरित संचार के साधन नहीं हुआ करते थे. यहाँ के गाँव में आबादी छितराई हुई होने के कारण एक गाँव तक में किसी सूचना को पहुंचा पाना काफी मुश्किल हुआ करता था. उन दिनों किसी भी सुचना के प्रति लोगों को सतर्क करने के लिए धाद देने का ही विकल्प था. किसी आपदा या युद्ध की स्थिति में लोगों को आगाह करने के लिए एकमात्र उपाय हुआ करता था धतिया नगाड़ा. धतिया नगाड़े को किसी ऊंचे स्थान पर ले जाकर बजाया जाता था. इसके लिए ऐसे स्थान का चयन किया जाता था जहाँ से आवाज बहुत दूर तक पहुँच जाती हो.
धतिया नगाड़ा अष्टधातु से बना होता था. दिखने में यह सामान्य नगाड़े की तरह ही होता था मगर इसका आकार उससे कहीं ज्यादा बड़ा होता था. इसका वजन तकरीबन 15 किलो हुआ करता था. इसके पुड़े का का व्यास लगभग डेढ़ फुट हुआ करता था. इसका पुड़ा भैंस की खाल का बना होता था. इसे बजने वाले दास जाति के लोग ही भैंसे की खाल से इसे बनाया करते थे. उत्तराखण्ड का लुप्तप्रायः वाद्य बिणाई
इसके लिए खास तौर से 4-5 साल की आयु के भैंसे की खाल को चुना जाता था. खाल को धूप में अच्छी तरह से सुखाकर फिर कुछ दिन घी में भिगोने रख दिया जाता था. घी में भिगाकर रखने से पुड़ा नरम हो जाता था और डंडे की मार सी फटता भी नहीं था. नगाड़ा तैयार हो जाने के बाद इसकी नरमी बनाये रखने के लिए भी साल में 3-4 दफा इसमें काले तिलों को पीसकर बनाया गया लेप लगाया जाता था. इस नगाड़े की डोरिया भी भैंसे की आंत के चमड़े से ही बनायी जाती थीं.
हर शासक द्वारा इसे बजाने का स्थान तय कर दिया जाता था. उस स्थान पर इसे एक पत्थर की विशाल शिला पर रखकर बजाया जाता था. इस पत्थर को धतिया पाथर या धतिया ढुंग कहा जाता था. कुमाऊँ में आज भी धतिया पाथर या धतिया ढुंग नाम से जाने जाने वाली कई जगहें हैं.
इस जगह से बजायी जाने वाली नगाड़े की धुन दूर-दूर तक सुनाई दिया करती थी. इसे बजाने के लिए भी ताकतवर व्यक्ति की जरूरत पड़ा करती थी. इसे बजाते समय इसके सहायक वाद्यों के रूप में दमुओं, विजय्सागर ढोलों, तुरही, नागफणी, रंसिंघों या भौंकरों का इस्तेमाल भी किया जाता था. बजने से पहले सभी वाद्यों की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती थी. वादकों को अन्न-धन व नए वस्त्र राजकोष से दिए जाते थे.
उत्तराखण्ड ज्ञानकोष: प्रो. डी. डी शर्मा के आधार पर
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