देवेन मेवाड़ी

दा, उसे घुघुती मिल गई होगी

दूर पहाड़ के अपने गांव से पढ़ने के लिए मैं शहर नैनीताल चला गया था लेकिन मन में बसा गांव और बचपन के वे संगी-साथी भी मन में मेरे साथ ही चले आए थे. चले आए थे तो रह-रह कर मुझे गांव की, बचपन की बातें याद दिलाया करते थे, कि दा, याद है तब ऐसा हुआ और वैसा भी हुआ! तुम यह करते थे, तुम वह करते थे. मैं मन ही मन चुपचाप उनकी बातें सुनता रहता था.

उन्हीं बातों में एक बात यह थी कि, याद है हम एक टेक पर टोकरी खड़ी करके, टेक पर रस्सी बांध कर घुघुती और घिनौड़ी (गौरेया) पकड़ने की कोशिश करते थे? छिपकर देखते रहते और घुघुती या गौरेया टोकरी के भीतर आते ही रस्सी खींच लेते. चिड़िया हमारी चालाकी समझते ही फुर्र उड़ जाती, लेकिन कभी-कभी टोकरी में बंद भी हो जाती. साथ की घुघुतियां या घिनौड़ियां उड़ जातीं. फिर हम टोकरी उठा कर बंद चिड़िया को भी उड़ा देते. बाद में सोचते रहते- क्या वह अपने संगी-साथियों के पास चली गई होगी? क्या वे उसे मिल गए होंगे? यह टीस मन में उठती रहती. एक दिन यही टीस मेरी कलम से शब्दों में ढल कर कहानी बन गई- ‘क्रौंच वध’. लगभग 55 वर्ष पहले यह कहानी इलाहाबाद से छपने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘कहानी’ में छपी थी : लेखक

क्रौंच-वध
-देवेंद्र मेवाड़ी

खिड़की से बाहर झांक रहा हूं. वैशाख की दुपहर बाहर चिलचिला रही है. छत-आंगन के सारे पटाल गर्मी से खलक रहे हैं. लोग खेतों में होंगे. कमरों के भीतर भभकाने वाली गर्मी है और बेहद उचाट-उचाट सा लग रहा है. मेरी नजरें आंगन में ही चहलकदमी कर रही है. कई घुघुतों (फाख्तों) के जोड़ों का चुपचाप चलना-फिरना देख रहा हूं. हर साल वैशाख आता है और परदेश गए तमाम घुघुतों के जोड़े लौट आते हैं. ऐसी तपन भरी दुपहरियों में आंगन, छत, खेतों और रास्तों- चौरास्तों पर तब ये दाने-दाने चुगते हैं. बचपन से ही इन्हें देखता आ रहा हूं और घुघुती तथा घुघुते में साफ अंतर मालूम कर सकता हूं. घुघुती की गर्दन के चारों ओर एक माला-सी बनी होती है, सुंदर! उसकी चाल निराली होती है, मदभरी होती है, उसकी पतली गर्दन, उसके बदन के झुकाव, उसकी दर्द भरी बोली…घुघु  ति… घु घू ति… कुर्र र्र र्र … कुर्र र्र र्र र्र…

मेंड के एक तपते पटाल पर एक घुघुती कुरुकुराने लगी है और तभी मेरी चहलकदमी करती दृष्टि अनायास ही रूक पड़ी है आंगन के उस किनारे पर. यह जरूर छोटू की बदमाशी होगी. बदमाश वहां पर टोकरी को एक हल्के सहारे पर टिका गया है और उसके भीतर गेहूं के दाने छिटक गया है. कोई घुघुता आएगा और चुगते-चुगते उसके भीतर तक जा पड़ेगा. तभी टोकरी गिरेगी और वह कैद हो जाएगा. टीस भरे स्वर हवा में घोलती घुघुती उड़ पड़ेगी. अकेली! नितांत अकेली.

और अनायास ही मैंने अतीत की ओर दौड़ काट दी है. टोपी सिर से निकाल कर हाथ में ले ली है और दौड़ पड़ा हूं, पीछे की ओर पगडंडियों, रास्तों, चौरास्तों, खेतों, आंगनों पर पसीना-पसीना होकर दौड़ पड़ा हूं. मैले, फटे, बटनहीन कुर्ते के भीतर पसीना चुहचुहा उठा है, गरम कनपटियों पर पसीना चुहचुहा उठा है, पीछे पीठ से नीचे पांव की ओर पसीना चुहचुहा उठा है. मेरे नंगे पैरों में किलमोड़े व घिंघारू के कांटे चुभ रहे हैं, रास्तों के तीखे-दरदरे डांसी पत्थर चुभ रहे हैं. मैंने दौड़ काट दी है पीछे की ओर.

सोलह साल धीरे-धीरे मैं पीछे छोड़ चुका हूं और अपने गांव के घर-आंगनों में, खेतों में, रास्तों-पगडंडियों में ऊंची धारों और गहन घाटियों में पहुंच गया हूं. अपनी फूल गई सांस को काबू में ला रहा हूं और मैली-काली टोपी को मैंने पहन लिया है. सचमुच ही मैं सोलह साल पीछे चला गया हूं.

तपती वैशाख की उचाट दोपहरियों में हमारे पंक्तिबद्ध मकानों के आंगनों में हवा के छोटे-छोटे चक्रवात पात-पतेलों को आसमान की ओर उडा रहे हैं. गांव के बच्चों के झुंड सड़कों के मोंड़ों पर, चुप्पी गुल्ली नाल ना दू… चीखते हुए गुल्ली डंडा खेल रहे हैं. गेहूं और जौ के फसल भरे खेतों में पिपरियां बजा रहे हैं. खेत-खेत, आंगन-आंगन में घुघतियों के झुंड…..कुर्र र्र र्र….कु र्र र्र! और तब छींट की झुगुली पहने एक छोटी लड़की हाथ कस कर थामे, सांस रोके मेरे साथ गोठ के अंधेरे से एकटक आंगन की ओर देख रही है. उसके दिल में धुकधुकी हो रही है. वह धीरे-धीरे थरथराने लगी है. जोड़ी का एक नर मेरी लगाई हुई टोकरी के भीतर की ओर बढ़ रहा है. दो दाने चुगता है, फिर गर्दन फुलाता है. घु घू ऽऽ घू… सारे बच्चे गांव की सड़कों में खेल रहे हैं और हम एकटक सन्नाटे में खड़े होकर टोकरी की ओर देख रहे हैं. उसकी थरथराहट बढ़ती जाती है और हृदय अधिक धुकधुक करने लगता है. अचानक बांस की वह टोकरी गिरती है और वह मुझसे चिपट जाती है. उसकी नन्हीं दो छोटी-छोटी आंखें डबडबा कर आंसू ढुलकाने लगती हैं और वह नन्हें सोते की तरह फूट पड़ती है.

घुघुतों के जोड़े पंखों से ताली-सी फटफटा कर धारों के पार गोते लगा जाते हैं. एक अकेली घुघुती ऊंचाई की ओर उड़ती है और किसी तरफ हवा में डुबकी मार लेती है…घु घू ऽऽ ति… और मेरी छोटी सी छाती पर सरली सिसक रही है. चीख रही है, ‘छोड़ दे उसे. उड़ा दे, दा! तेरे हाथ जोड़ती हूं. नहीं तो तेरे साथ कभी नहीं बोलूंगी.’

उसे मैं खूब कलपाता हूं. रुलाता हूं. वह रो-रो कर मुझसे कहती है कि ‘वह अकेली घुघुती किसी देवी के मंदिर के पेड़ की टिकड़ी पर आंसू टपकाएगी. तुझे पराचित लगेगा नहीं तो.’ और मैं उसे खूब बिलखाने-रुलाने के बाद जाकर टोकरी उलट देता हूं और वह नर पाखी भी पंख फटफटा कर उड़ जाता है. झगुली की कुहनियों से वह आंखों को पौंछती है और हम फिर जुट कर दाड़िम के फूलों की बारात सजाने लगते हैं.

चुप्पी गुल्ली नाल ना दू…अकड़-बक्कड़ मंबे बो… गांव के बच्चे गुल्ली डंडा, लुका-छिपी खेल रहे हैं. पिपरियां बजा रहे हैं. छत मुंडेरों पर घुघुतियां कुरकुरा रही हैं और वह मुझसे पूछती हैं, ‘दा उसे घुघुती मिल गई होगी?’

मेरे गांव की फसलें पक गई हैं. हमारे आंगनों में गेहूं के कटे पूले बिखरे हैं. बैलों की जोड़ियां घूम रही हैं गोलाईयों में- फिर गोल-गोल. और हम गेहूं की बारीक सींकें, तोड़-तोड़ कर गड्डियां बना रहे हैं. मेरी बगल में एक लड़की है. सरली! भिगोई हुई सींकों से दो टोकरी बुनती है. एक मेरे लिए, एक अपने लिए. सींकों को सीकों में बुनती जाती है, बुनती जाती है और अचानक मेरे कान पर झुक कर पिघलती आवाज में पूछती है,‘दा, उसे घुघुती मिल गई होगी?’

मैं शरारत से उसके चेहरे पर नजरें रोकता हूं, ‘नहीं तो!’ और वह बुनना छोड़ कर आंसू ढुलकाती है. सींकें बिखेर देती है और उठ कर जाने लगती है, ‘मैं तुझसे कभी नहीं बोलूंगी. मैं तेरे साथ नहीं आऊंगी.’ और मैं लपक कर उसकी झुगुली पकड़ कर उसे खींच लेता हूं.

वैशाख में जब चिलचिलाती दुपहरियां मेरे गांव के लोगों के सिर पर पांव फैलाए बैठी रहती, जब वे बैलों की पूंछें पकड़े गोलाईयों में घूमते रहते निरंतर, जब ठंडे वनों में वन पाखी गीत गाने लगते, कफ्फू बोलने लगता, काफल पाक्को बोलने लगता, तब मेरे गांव के वन में काफल पक जाते. अपनी टोकरियां, थैलियां लेकर हम धार-धार चोटी-चोटी तथा वन-वन की धूल छानते. डालियां झरझरा कर मैं काले रसीले काफल झड़ाता और नीचे एक लड़की होती, सरली! अपनी ओढ़नी बिछाए उन्हें समेटती, किलकती और अचानक किसी धार पर मुझे रोक कर पूछती, ‘दा, क्या उसे घुघुती मिल गई होगी?’

मैं नहीं बोलता और वह किसी झुरमुट की ओट में ढुल-ढुल आंसू बहाती. मैं उसकी बेड़ी खींच कर घर के रास्ते पर लाता. दुपहरों में, अपने प्राइमरी स्कूल के मैदान में हम चीखते, पंद्रह तियान पैतालिस, पंद्रह चैक्को साठ.

तख्तियों-कापियों पर जोड़-घटाना, गुणा-भाग के हिसाब, दवात से थोड़ी स्याही ढुलका देता मैं उसकी झुगुली के किनारे पर. नंगे तलुवों पर अंगुलियां गुदगुदा देता. उसकी कापी छिपा देता. और, मेरी बगल में नाराज होकर एक लड़की सिसकती, सरली! और घंटी बजती ही मैं उसे गुदगुदा देता. लड़के गुल्ली डंडा खेलते, बाघ-बकरी खेलते, पानी पीने दौड़ते, पेशाब करने दौड़ते और मुझे एक किनारे ले जाकर वह पूछती, ‘दा, क्या उसे घुघुती मिल गई होगी?’ मैं उत्तर नहीं देता. वह रोने लगती.

मैं जगह-जगह जा रहा हूं और हर जगह मेरे साथ एक लड़की है. सरली! वह हर जगह वही पूछती है और मैं जानबूझकर उत्तर नहीं देता हूं. वह रोती है. रूठती है. मेरे साथ कभी न खेलने की कसमें खाती है. तर्जनी मिला कर ‘कुट्टी’ कर लेती है. नहीं बोलती. पर…पर कुछ समय बाद ही कनखियों से देखती है और न जाने क्यों सिसकने लगती है, मुझसे चिपट-चिपट जाती है. मेरे भीतर पैठने की कोशिश करती है. मेरे लिए घर से खाने की चीजें छिपा लाती है. मुझे खूब मानती है और फिर कभी भी अकेले में वही एक प्रश्न दुहराती है, वही.

वैशाख के महीनों भर हम कूदते-फांदते रहते. हमें फसली छुट्टियां हो जाती हैं. हम गेहूं के खेतों में पकी फसल की गंध सूंधते हैं. हम दाड़िम के फूलों की बारात सजाते हैं, हम पके काफलों के पेड़ों में चढ़ते हैं. बांज, बुरूंशों के वनों से गांव की ओर आ रहे वन पाखियों के असंख्य झुंडों को देखते हैं. उनके मधुर बोल सुनते हैं. गेहूं की पकी फसलों पर टूट पड़ रहे सुवों के झुंडों को पत्थर मार-मार कर भगाते हैं. और, घर-आंगनों, वन-वृक्षों की डालियों पर घुघुतियां कुरकुराती हैं- घु घू ऽऽऽ ति….घु घू ऽऽऽ … और उसकी दो छोटी-छोटी आंखों में किसी स्वच्छ जल स्रोत का-सा जल छल-छला उठता है.

हां मैं सोलह साल पीछे चला गया हूं. मैं गांव की पगडंडियों पर भाग रहा हूं. वह सर्दियों में दो महीने मैदान चली जाती, अपने मां-बाप के साथ और मैं पहाड़ में ही रहता. वह भी मौसमी चिड़ियां ही है. मैं उसे यही कहता हूं. ये सर्दियों के दिन दो वर्षों की तरह गुजरते हैं. नींद में उसकी पतली कलाइयों की चूडियों की खिन् खिन् से चौंक उठता हूं, किलकारियों से जाग पड़ता हूं. उसकी खिलखिलाहट मुझे स्तंभित कर देती है. चारों ओर देखता हूं. वह नहीं है. वह मुझसे लड़ने, झपटने, रूठने, न बोलने की कसमें खाने, ‘कुट्टी’ कर लेने वाली लड़की नहीं है. इतना सब कुछ करती है फिर भी पता नहीं क्यों न उसके बिना मुझे कल पड़ती है, न उसे मेरे बिना. गांव के बच्चे भागते हैं, कूदते हैं, गुल्ली डंडा खेलते हैं, और… मैं सड़क किनारों, आंगन-पटालों पर खामोश बैठा रहता हूं. सभी मुझे घर-घुघ्घू कहते हैं. वे पूछते हैं कि मैं क्यों ऐसे घर-घुघ्घू बना अकेला बैठा रहता हूं. मैं उन्हें क्या जवाब दूं? मैं उनसे क्या कहूं? नींद में उसकी किलकारियों से जाग उठता हूं और चुपचाप खाट पर बैठा अंधेरे में एकटक आंखें गड़ाए देखता रह जाता हूं. सचमुच मैं उसके बिना नितांत अकेला महसूस करता हूं.

वह मौसमी चिड़ियां है. वह घुघुती है. वह गौरेया है. चैत आते-आते वह लौट आती है. आते ही मेरे पास आती है. मुझे अकेले में ले जाती है. हम बुरी तरह चिपट पड़ते हैं, रोते हैं. कोई नहीं जानता हमारे बारे में. जी भरकर रोने के बाद वे दो महीने जैसे पुंछ जाते हैं. फिर गांव के बच्चे खेलते हैं…चुप्पी गुल्ली…अक्कड़ बक्कड़…और हम सबसे अलग अपने आंगन के पटालों पर ‘सही-बट्टा’ खेलते हुए तमाम बातें करते हैं. वह मैदान की बातें बताती है. हम अपनी कापियों में हिसाब बनाते हैं. हम पगडंडियों पर दौड़ काटते हैं. काफल-किलमोड़े पके वनों में दौड़ते हैं. फसल-गंध के बीच खेतों में दौड़ते हैं. बुरूंश के फूलों को चबाते हैं. गोठ के कोनों में दुबके दम साधे आंगन में दाने चुग रही घुघुतितों, गौरेयों को देखते हैं. उनकी टीस भरी कुरकुराहटें व चिचियाहटें सुनते हैं. गेहूं के पीले चमकीले भूसे में लोट-पोट होते हैं.

आंगन की मेंड, छत-मुंडेर, ठांगर की टिकड़ी कहीं पर भी जब कोई घुघुती कुरकुराती है- ‘घु घू ऽऽऽ ति….’ अचानक ही यह लड़की खामोश हो जाती है. एकटक देखती रहती है उस ओर. गगलसा उठती है. और, भरी आंखें लेकर मेरा हाथ पकड़ कर पूछती है,‘दा, यह घुघुती अकेली है न?’ उसे हर कुरकुराती घुघुती को देखकर पता नहीं क्यों लगता है कि उसके नर को किसी ने फांस लिया है और पगली पता नहीं क्यों रोती रहती है. एक मैं हूं, मैं भी उसे उल्टे ही जवाब देता हूं. वह रोती है, रूठती है, कुट्टी करती है और नाराज होकर अपने मकान में चली जाती है. मैं फिर जाता हूं और उसे कुतकुता कर बाहर ले आता हूं.

सोलह साल पीछे की इस दौड़ में मैं थक गया हूं. मेरी सांस फूल गई है. मैं तमाम पगडंडियों पर धीरे-धीरे चल रहा हूं. कोई मेरा पीछा कर रहा है. हर जगह! सुस्ताने के लिए एक मोड़ पर बैठ जाता हूं. पीछा करने वाली मूरत को पहचानता हूं. एक लड़की. सरली. मैं उसके साथ सिर्फ पांचवी जमात तक पढ़ पाता हूं. उसके सिर्फ दो महीने मैदान चले जाने पर ही हम घर-घुघ्घू हो जाते हैं. अकेले पड़ जाते हैं और अब?  अब मैं पांचवी पास कर चुका हूं. मुझे शहर के स्कूल में पढ़ने जाना है. हम दोनों फिर गोठ के कोनों में दुबकते हैं. और वह मेरी आंखों में झांकती रहती है ऐसे, जैसे उसे मैं न जानता होऊं. हम टकटकी बांध कर एक-दूसरे को देखते रहते हैं, रोते है खूब, वैसे ही जैसे उसके मैदान से लौट आने पर एक-दूसरे से चिपट जाते हैं.

और मैं नया कोट पहनता हूं. जूता पहनता हूं. सिर में तेल डाल कर बाल बनाता हूं और किताबों का बस्ता लटका कर शहर जाने को तैयार होता हूं. सब खुश होते है. हंसते हैं. मेरे भागों की दाद देते हैं जो मैं पढ़ने शहर जा रहा हूं. पर मैं…मैं खड़ा का खड़ा रह जाता हूं. जड़ जैसे कुछ नहीं सोच सकता. उसके पास जाता हूं. अपने खेलने की सारी चीजें उसे सौंपता हूं. वह एकटक मेरी ओर देखती रहती है. उसकी आंखों में झांकता हूं. अपनी ओढ़नी का किनारा चबा-चबा कर उसने एक कर दिया है और, सोलह साल पीछे किसी एक दिन मैं उसे ओढ़नी का किनारा चबाते हुए देखता-देखता पढ़ने के लिए शहर को आता हूं. घुघुतियां कुरकुरा रही हैं. घर-आंगनों में- घु घू ऽऽऽ ति….कु र्र र्र र्र…कु र्र र्र र्र…

और वह मेरे पास आती है. गगलसा कर पूछने लगती है, ‘दा…’ और उसका गला बंद हो जाता है. वह नहीं बोल सकती, और मैं उसे रोती छोड़कर गांव की टेढ़ी-मेढ़ी सर्पाकार पगडंडियों पर उतर शहर को आता हूं. वह गांव में ही रह जाती है.

वर्षों बाद गांव आता हूं. एक लड़की को देखता हूं. सरली! काम में व्यस्त. उसकी शादी होती है. वह वैशाख की तपती दोपहरियों में गेहूं के खेतों में काम करती है. उसके चारों ओर लंबे-चौड़े खेत हैं. उचाट दुपहरियां हैं. हर दिशा में घुघुतियां कुरूकुराती हैं… घु घू ऽऽऽ ति…घु घूऽऽऽ ति…कु र्र र्र…कु र्र र्र…कु र्र र्र र्र…

और वह एक ब्याही हुई लड़की तपती दोपहरियां भर आंसू ढुलकाती रहती है….छुल…छुल…! हर साल! हर गर्मियों में उसके होंठ खाली फड़फड़ाते हैं. खाली! और मुझे जैसे कौंच दिया है किसी ने तीखी सलाखों से. निपट अकेला महसूस करता हूं. घिर गया हूं जैसे किसी टोकरी के भीतर. कैद हो गया हूं. मेरा दम घुटने लगा है और अचानक जैसे किसी ने टोकरी उलट दी है. पंख फटफटा कर ऊंचाई तक भागता हूं और कलाबाजी खाकर सामने की ओर सीधा उड़ चलता हूं. मैं एक घुघुता. और उस एक सीधी रेखा में उड़ते-उड़ते सोलह साल फिर पीछे छोड़ देता हूं.

कमरे की भभकाने वाली गर्मी दम घोंट रही है. निचाट अकेलापन चिपक गया है मुझसे और गर्मी से खलक रहे आंगन के पटालों पर पांव रखता हुआ मैं किनारे तक आता और छोटू की लगाई हुई टोकरी उलट कर भीतर गोठ के अंधेरे की ओर फैंक देता हूं.

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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  • बहुत सुंदर मेवाड़ी जी धन्यवाद अगले देख का इंतजार रहेगा.

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